भारत एक मातृत्व हक-विहीन देश है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को धूमधाम से मनाने वाले देश में गजब की असंवेदनशीलता है। वास्तव में हमारे समाज और सरकार में केवल उसी श्रम की गणना होती है, जिससे आर्थिक उत्पादन होता है। खेती, पशुपालन, जंगल से र्इंधन लाने, लघु वनोपज इकट्ठा करने, बच्चों, बीमार और वृद्ध परिजनों की देखभाल के काम में महिलाएं जुटी रहती हैं, पर इन कामों के महत्त्व और योगदान का कोई मूल्यांकन होता ही नहीं है। उनके योगदान को ‘बेमोल’ और आर्थिक तौर पर ‘अनुत्पादक’ मान लिया जाता है। जरा सोचिए कि यदि महिलाएं ये काम नहीं कर रही होतीं तो इस समाज का चरित्र और स्वरूप क्या होता? क्या परिवार नाम की इकाई का निर्माण हो पाता? महिलाएं, जो काम ‘बिना वेतन’ और ‘बिना मोल’ के करती हैं, यदि उसके लिए परिवार और समाज को भुगतान करना पड़े, तब हमारी अर्थव्यवस्था की स्थिति क्या होगी? वैसे यह जान लीजिए कि भारत तीस करोड़ श्रम-साधकों के श्रम को बेहद लचर-लापरवाह और असंवेदनशील नजरिए से तोलता है क्योंकि ये श्रम-साधक महिलाएं हैं। जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 14.995 करोड़ महिलाएं मुख्य और सीमांत कामगार के रूप में काम करती हैं। इसके साथ ही 5.8 करोड़ महिलाएं काम की तलाश में हैं। काम की तलाश कर रही ये महिलाएं भी कहीं न कहीं काम में जुटी ही रहती हैं। इस मान से 20.795 करोड़ महिलाएं काम से जुड़ी हुई हैं या काम की जरूरतमंद हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण (2015-16) के मुताबिक भारत में संगठित क्षेत्र में कुल 2.96 करोड़ लोग काम करते हैं। इनमें से महिलाओं की संख्या केवल 60.5 लाख है। संगठित क्षेत्र का मतलब यह है कि जहां एक हद तक श्रम करने वालों के लिए काम के घंटे, अवकाश, स्वास्थ्य, उनके बच्चों की शिक्षा, सामाजिक व्यवहार के लिए समय और सेवानिवृत्ति का सुरक्षित अधिकार निर्धारित है। इस तबके को श्रम कानूनों का संरक्षण हासिल है। संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को ही मातृत्व हक मिल पाते हैं; यानी गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद वेतन के साथ अवकाश, स्वास्थ्य और सुरक्षित प्रसव की सेवाएं, जब वे काम पर जाएं तब कार्यस्थल पर शिशु की देखभाल की व्यवस्था, आदि। ये मातृत्व अधिकार दबाव से नहीं, अहसास के साथ मिलने चाहिए। अलबत्ता इन सुविधाओं की बाबत शिकायतें भी काफी हैं। वहां भी महिलाओं को मातृत्व हक के मामले में भेदभाव, दुर्व्यवहार, उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। फिर भी संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए एक व्यवस्था तो है। पर असंगठित क्षेत्र की महिलाओं के मातृत्व हकों का क्या?

प्रत्यक्ष रूप से 14.99 करोड़ महिला कामगारों में से केवल 60.5 लाख महिलाएं (4.03 प्रतिशत) ही संगठित क्षेत्र में हैं, यानी केवल इतनों को ही मातृत्व हक उपलब्ध हैं। बड़ी आर्थिक शक्ति बनते देश की 95.97 प्रतिशत कामगार महिलाएं मातृत्व हक से पूरी तरह से वंचित हैं। यही कैसी शक्ति है, जिसमें लैंगिक बराबरी ही नहीं है? बात केवल इन 14.50 करोड़ महिलाओं की ही नहीं है। हमारे यहां जीवन में मुख्य काम के रूप में अपने घर की जिम्मेदारी संभालने वालों को अ-कामगार या गैर-कामकाजी माना जाता है। जिस काम के बारे में भारत सरकार के समय-उपयोग के अध्ययन बताते हैं कि महिला औसतन छह घंटे देखरेख का काम करती है और जिसका कोई भुगतान नहीं होता है; उसे ‘आर्थिक रूप से उत्पादक’ काम नहीं माना जाता है। जहां देखभाल की जरूरत ज्यादा होती है, वहां महिलाएं नौ से सोलह घंटे घर संभालने का श्रम करती हैं; पर उसका कोई मोल नहीं होता है।

जनगणना-2011 के मुताबिक भारत में काम न करने वाली महिलाओं की कुल संख्या 43.76 करोड़ है, जिनमें से 15.99 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वहन’ करना है। यदि काम का बंटवारा श्रम के मापदंडों पर ईमानदारी से हो, तो ये सभी महिलाएं श्रम-साधक ही मानी जाएंगी। बस दिक्कत यही है, समाज और सरकार श्रम का बंटवारा करने और श्रम के मापदंड तय करने में हमेशा बेईमानी कर देते हैं। वास्तव में मुख्य और सीमांत कामगार और घरेलू जिम्मेदारियों में संलग्न महिलाओं की संख्या को जोड़ा जाए, तो 30.98 करोड़ महिलाओं के लिए न तो काम के घंटे तय हैं, न आराम के। उनकी तो मजदूरी भी तय नहीं है। मजदूरों को उनके पसीने का पारिश्रमिक देते समय काम के घंटों को जोड़ा जाता है। यह अलग बात है कि पांच हजार रुपए प्रतिदिन के मान से वेतन पाने वाले सरकारी अधिकारी के काम और घंटों को कभी नहीं मापा जाता। मजदूरों को तो कभी सेवा-निवृत्ति का अधिकार भी नहीं मिलता है, न ही सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा। इन महिलाओं को कोई मातृत्व-हक नहीं मिलते हैं। मजदूरी करने वाली महिला प्रसव के कुछ घंटों पहले तक शारीरिक श्रम करती रहती है, क्योंकि इससे ही उनके परिवार में खाना पकता है।

भारत सरकार का विज्ञापन कहता है कि गर्भवती महिला को हर रोज दिन के समय दो घंटे आराम करना चाहिए; विज्ञापन यह नहीं बताता कि असंगठित क्षेत्र में काम कर रही महिला को उसका नियोक्ता पेशाब करने भी नहीं जाने देता है, दो घंटे का आराम किस खाते से आएगा? कुछ क्षणों का आराम करने पर निर्माण-ठेकेदार महिला मजदूर को हरसंभव तरीके से अपमानित करता है। उसके लिए दो बातें महत्त्वपूर्ण होती हैं- अधिकतम आर्थिक लाभ कमाना और श्रमिक वर्ग पर अपना आधिपत्य बनाए रखना। इसके लिए वह हरसंभव तरीके अपनाता है। वह ऐसा कर सकता है क्योंकि छियानवे प्रतिशत महिलाओं की न तो श्रम कानून सुरक्षा करते हैं, न ही उनके मातृत्व-हकों के लिए कोई ठोस व्यवस्था बनाई गई है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2014-15 में भारत में गर्भवती महिलाओं की अनुमानित संख्या 2.97 करोड़ थी। इनमें से संगठित क्षेत्र में कार्यरत केवल 11.89 लाख महिलाएं ही मौजूदा मातृत्व हकों के दायरे में आती हैं। इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मातृत्व हक से जोड़ा गया है) के तहत देश के तिरपन जिलों में वर्ष 2012-13 के आंकड़ों के आधार पर 6.37 लाख महिलाओं को ही मातृत्व-हक दिया जा रहा है। यानी 2.78 करोड़ महिलाएं तो इससे पूरी तरह से वंचित ही हैं। इसी मंत्रालय के मुताबिक उस साल में 16.05 लाख गर्भपात पंजीकृत हुए और 10.80 लाख बच्चे अपना पहला जन्मदिन मनाने से पहले मर गए। मातृत्व-हक कइयों की जान बचा सकता था।

कुछ उदाहरण देखते हैं। हमारा संविधान अनुच्छेद बयालीस में कहता है कि मातृत्व सुरक्षा के लिए राज्य विशेष प्रावधान करे। भारत में असंगठित-अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद बच्चों के प्रारंभिक पालन के लिए वेतन का कोई मुआवजा या आर्थिक सहयोग नहीं मिलता है। इससे उनके अपने स्वास्थ्य और शिशु के जीवन पर खतरा बढ़ जाता है। वे अपने परिवार में और नियोक्ता से इस अवस्था में पर्याप्त आराम, पोषण, वजन में वृद्धि, अच्छे स्वास्थ्य और जन्म के बाद बच्चों को छह महीने के लिए केवल स्तनपान के लिए सहयोग की अपेक्षा ही कर सकती हैं। परिणाम यह है कि 42 प्रतिशत महिलायें गर्भवती होते वक्त दुबली-पतली होती हैं और गर्भावस्था में उनका पर्याप्त वजन नहीं बढ़ता है। ऐसे में मातृत्व सहयोग कानून (1961) न केवल असंगठित-अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को उनके हक देने के मामले में असफल साबित हुआ है, बल्कि सरकारी तंत्र में ही काम करने वाली जमीनी कार्यकर्ताओं (जैसे ‘आशा’ कार्यकर्ताओं को, जो खुद महिलाओं को मातृत्व सेवाएं देने का काम करती हैं) को मातृत्व हक नहीं देता है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून ने एक उम्मीद पैदा की थी। इसमें हर गर्भवती-धात्री महिला को छह हजार रुपए के मातृत्व हक का प्रावधान किया गया था। हालांकि मातृत्व अवकाश की जरूरत और उस अवधि के वेतन की राशि के बीच भारी अंतर है, फिर भी यह तो माना जाना चाहिए कि इसके जरिए कम से कम पहली बार सभी महिलाओं के लिए व्यापक मातृत्व हक के महत्त्व को स्वीकार किया गया। इस प्रावधान को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मातृत्व सहयोग योजना के जरिए लागू किया जाना है, लेकिन यह योजना बहुत कमजोर हालत में है, आर्थिक आबंटन बहुत कम है और इसमें हक पाने के लिए बहुत बुरी शर्तों का उल्लेख है, जिससे सबसे उपेक्षित महिलाएं हक से वंचित रह जाती हैं।

यह एक हक आधारित योजना नहीं है, यह बस एक शर्त आधारित नकद हस्तांतरण योजना है, इसमेंबच्चों के पोषण के अधिकार और मातृत्व हक पर असर सीमित हैं और यह योजना अभी देश के केवल तिरपन जिलों में लागू है, और वह बुरे क्रियान्वयन के दौर से गुजार रही है। सभी महिलाओं को इस योजना में लाभ देने के लिए 16,680 करोड़ रुपए के बजट की जरूरत है, पर वर्ष 2016-17 में इसमें केवल चार सौ करोड़ रुपए (जरूरत का 2.4 प्रतिशत) का आबंटन किया गया है। मातृत्व हकों के नजरिए से देखें तो हमें पता चलता है कि अपनी आर्थिक-सामाजिक विकास की रूपरेखा में हम मानवीय सभ्यता के मूल्य डालना तो भूल ही गए हैं। संविधान के प्रावधान और महिलाओं की जीवन के लिए जरूरी व्यवस्था के निर्माण के लिए न तो सरकार संवेदनशील दिखाई देती है, न ही समाज। बहरहाल, यह बात फिर पुख्ता होती है कि मर्दवाद गर्भावस्था और प्रसव के अहसास को महसूस करने वाली ग्रंथि को कैद कर लेता है।