प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने कहा है कि ‘जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी, उल्का पिंडों के टकराव और परमाणविक आतंक को देखते हुए खुद को बचाए रखने के लिए मनुष्य को दूसरी धरती खोज लेनी चाहिए। सौ साल बाद पृथ्वी पर मानव का बचे रहना मुश्किल होगा।’ धरती पर जीवन के अंत की शुरुआत हो चुकी है। बदलते मौसम और जलवायु के कारण स्तनधारियों की सतहत्तर प्रजातियां, एक सौ चालीस तरह के पक्षी और चौबीस तरह के उभयचर प्राणी लुप्त हो चुके हैं। हर साल जानवरों की पचास प्रजातियां खत्म होने के कगार पर पहुंच जाती हैं। अमेरिका के तीन नामी विश्वविद्यालयों के शोध के अनुसार धरती पर जीवन अब अंत की ओर बढ़ रहा है। सबसे पहले खत्म होने वाली प्रजाति इंसानों की हो सकती है। इसके अलावा रीढ़ की हड्डी वाले जानवरों के लुप्त होने की दर सामान्य से एक सौ चौदह गुना तेज है। अब हम लुप्त होने के छठे बड़े दौर में प्रवेश कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर प्रजातियों के लुप्त होने की आखिरी ऐसी घटना साढ़े छह करोड़ साल पहले घटी थी। तब डायनासोर धरती से लुप्त हो गए थे। पर अब खतरा इंसानों के सिर पर मंडरा रहा है। लोग बदलते मौसम के कहर से परेशान हैं। ठंडे स्थान और ठंडे हो रहे हैं, जबकि गरम जगहें ज्यादा गरम हो रही हैं। तूफान, बाढ़, सूखा और भूकम्प की घटनाएं अब विकराल रूप में बार-बार कहर बरपा रही हैं।

कुदरत का अंधाधुंध दोहन अब हमारे लिए काल बनता जा रहा है। आज मनुष्य के लिए शुद्ध वायु, जल और भोजन मिलना मुश्किल हो गया है, जो उसके स्वस्थ और दीर्घ जीवन के लिए सबसे जरूरी है। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास की आधुनिक नीति ने आज जल, थल और नभ- तीनों को विषाक्त कर दिया है। इससे मानव जाति सहित कई जीवों के जीवन और अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। पिछले चालीस-पचास वर्षों में इस धरती के कई जीव-जंतु विलुप्त हो गए हैं और कई विलुप्ति के कगार पर हैं। हर साल साठ लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि मरुभूमि में बदल रही है। ऐसी जमीन का क्षेत्रफल तीस साल में लगभग सऊदी अरब के क्षेत्रफल के बराबर होता है। हर साल एक सौ दस लाख से अधिक हेक्टेयर वन उजाड़ दिए जाते हैं, जो तीस साल में भारत जैसे देश के क्षेत्रफल के बराबर हो सकता है। अधिकतर जमीन जहां पहले वन उगते थे ऐसी खराब कृषि भूमि में बदल जाती है, जो खेतिहरों को भी पर्याप्त भोजन दिलाने में असमर्थ है।

आधुनिक पारिस्थितिकी अनुसंधान से ज्ञात होता है कि जैव मंडल पर मनुष्य के अनवरत, एकतरफा और काफी हद तक अनियंत्रित प्रभाव से हमारी सभ्यता एक ऐसी सभ्यता में तब्दील हो सकती है, जो मरुभूमियों को मरुद्यानों और मरुद्यानों को रेगिस्तानों में बदल देगी। इससे पृथ्वी पर सारे जीवन के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा। अब स्पष्ट है कि मनुष्य द्वारा भौतिक चीजों का नियोजित उत्पादन जैव मंडल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रभावों का अनियोजित ‘उत्पादन’ भी करता है और यह इतने बड़े पैमाने पर होता है कि पृथ्वी पर मनुष्य सहित सारे जीवन को नष्ट करने का खतरा पैदा कर देता है। प्रमुख जैविकविद जानवरों और पौधों की जातियों के इतने बड़े पैमाने पर लुप्त होने का पूर्वानुमान लगाते हैं, जो प्रकृति और मनुष्य की क्रिया के फलस्वरूप पिछले करोड़ों वर्षों में हुए उनके विलुप्तीकरण से कहीं अधिक बड़ा होगा।

यह बात भी सिद्धांतत: सच है कि अंतत: सारी जैविक प्रजातियां विलुप्त होंगी। पर पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध और इस शताब्दी के शुरुआती दशक में भूतपूर्व वीरान क्षेत्रों में मनुष्य की बस्तियां बस जाने, जहरीले पदार्थों के व्यापक उपयोग और प्रकृति के निर्मम शोषण की वजह से जातियों के विलुप्तीकरण की दर तेजी से बढ़ी है और जातियों-प्रजातियों के क्रम-विकास की दर के मुकाबले अधिक हो गई है। पिछले दो हजार वर्षों में जो जातियां विलुप्त हुर्इं उनमें आधे से अधिक 1900 के बाद हुई हैं। जैविकविदों की मान्यता है कि पिछले साढ़े तीन सौ वर्षों में प्रति दस वर्ष में प्राणियों की एक जाति या उपजाति नष्ट हुई।

प्रकृति और प्राकृतिक साधनों के अंतरराष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर वर्ष एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग एक हजार जातियों के लुप्त होने का खतरा है। पौधों की किसी एक जाति के लुप्त होने से कीटों, जानवरों या अन्य पौधों की दस से तीस तक जातियां विलुप्त हो सकती हैं। अगर मौजूदा प्रवृत्ति जारी रही तो उनकी बहुत बड़ी संख्या के जीवित बचे रहने की संभावना बहुत कम है। इसलिए अब प्रकृति के साथ मनुष्य जाति की अंतर्कि्रया के तरीकों को बदलना अनिवार्य हो गया है।

दरअसल, मनुष्य ने भौतिक उत्पादन के विकास से जैव मंडल के आंगिक ढांचे में एक विशेष कृत्रिम अंग शामिल कर दिया है। उसके इस कार्य का न सिर्फ समाज और उत्पादन के हमारे लक्ष्यों, बल्कि जैव मंडल की क्रिया के साथ भी समन्वय होना जरूरी है। इसके लिए हमें उद्योगों के विकास पर रोक नहीं लगानी है, बल्कि उनके विकास का ढंग सुनियोजित करना है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि क्या वहां के उद्योग-धंधे हमारे परिवेश से सामंजस्य बिठा सकेंगे? हमारे विकास कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए, जिनसे अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुंचे।

इसके लिए उद्योगों के विकास का ढंग सुनियोजित करना है। कच्चे माल के लिए प्राकृतिक संसाधनों का वैज्ञानिक आधार पर दोहन किया जाए, जिससे उस संपदा का ह्रास न हो। उद्योगों की आवश्यक ऊर्जा पूर्ति के लिए र्इंधनों के साथ गैर-परंपरागत ऊर्जा-संसाधनों का भी समुचित उपयोग किया जाए, जिससे प्रदूषण न्यूनतम हो। विकास कार्यक्रमों के संबंध में इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रत्येक देश की अपनी स्थिति, परिस्थिति और पर्यावरण होता है। किसी दूर देश की जलवायु और मिट्टी को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। इस तथ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि क्या वहां के उद्योग-धंधे हमारे परिवेश से सामंजस्य बिठा सकेंगे? हमारे विकास कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए, जिनसे अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुंचे।

वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति ने मनुष्य की प्रकृति पर नियंत्रण का विशेष अधिकार दे दिया है। हम पर्वतों को हटा सकते हैं, नदियों के मार्ग बदल सकते हैं, नए सागरों का निर्माण कर सकते हैं और विशाल रेगिस्तानों को उर्वर मरुद्यानों में परिणत कर सकते हैं। हम प्राकृतिक जगत में मौलिक परिवर्तन कर सकते हैं। हमारे उत्पादन और आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी कार्यकलाप अंतरिक्ष तक विस्तृत हो गए हैं। पर हम प्रकृति पर अपने अंतहीन अतिक्रमण और बगैर सोचे-समझे उसमें बड़े-बड़े फेरबदल करके इस अधिकार का अविवेकपूर्ण उपयोग नहीं कर सकते और हमें करना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इसके हानिकारक नतीजे हो सकते हैं। हम उत्पादन कार्यों द्वारा जैव मंडल में हुए परिवर्तनों को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते। इसलिए जरूरी है कि हम जीवन प्रणाली के विभिन्न तत्त्वों पर अपने प्रभाव को सावधानी से देखते रहें। मौलिक प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकता के अनुसार रूपांतरित करना और विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे भूकम्प, टाईफून, चक्रवात, बाढ़ और सूखा, हिमानी भवन, चुंबकीय और सौर आंधियां, रेडियो सक्रियता, अंतरिक्षीय विकिरणों के विरुद्ध संघर्ष करना अनिवार्य है। पर ऐसे परिवर्तन केवल उन नियमों के अनुसार किए जा सकते हैं, जिनसे जैव मंडल एक अखंड और स्वनियामक प्रणाली के रूप में काम करता और विकसित होता रहे।