ब्रह्मदीप अलूने

देश की आंतरिक सुरक्षा को चाक-चौबंद रखने में सीआरपीएफ की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आतंकवाद विरोधी अभियान, चरमपंथ और नक्सलवाद से निपटना, मतदान के समय तनावग्रस्त इलाकों में बड़े स्तर पर सुरक्षा व्यवस्था करना, भीड़ नियंत्रण, दंगा नियंत्रण, अतिविशिष्ट लोगों और स्थलों की सुरक्षा, पर्यावरण एवं जीवों का संरक्षण, युद्ध काल में आक्रमण से बचाव, प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत एवं बचाव कार्य जैसी जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक सीआरपीएफ ने निभाया है। पिछले दशकों में इस बल ने अपने कौशल और दक्षता का परिचय देते हुए घरेलू मोर्चे पर शत्रु को कड़ी चुनौती दी है। सीआरपीएफ भारतीय सेना के समान ही लेकिन देश के भीतर युद्ध जैसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में काम करने के लिए जाना जाता है।

गृह मंत्रालय के अधीन केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) देश में आंतरिक सहायता की स्थापना में राज्य और केंद्र सरकार का मददगार होता है। इसकी तैनाती किसी विशेष क्षेत्र या स्थान की समग्र सुरक्षा स्थिति पर निर्भर करती है। 27 जुलाई, 1939 से अस्तित्व में आए सीआरपीएफ को भारत की आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा पहरुआ समझा जाता है जिससे सुकमा के घने जंगलों समेत पूरे रेड कॉरिडोर में नक्सली खौफ खाते हैं। इसके जवान पूर्वोत्तर की जटिल भौगोलिक परिस्थितियों में पृथकतावादी संगठनों से मुकाबला करते हैं और उनके निशाने पर होते हैं। इनमें यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा), नेशनल डेमोकेट्रिक फंट्र ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी), पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलीपक, मणिपुर पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट, ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स, नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा जैसे आतंकी और अलगाववादी संगठन शामिल हैं। इन इलाकों में सामाजिक, सांस्कृतिक, सामरिक जटिलताओं और प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी सीआरपीएफ के जांबाज इन संगठनों की उग्रवादी गतिविधियों पर विराम लगाते हैं।

कश्मीर की आतंकी कार्रवाइयों का सामना करने में सीआरपीएफ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पत्थरबाजों से नित्य जूझते सीआरपीएफ के जांबाज कुख्यात लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, हरकत उल जेहाद-ए-इस्लामी, हिजबुल मुजाहिदीन, अल उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, अल बदर, जमात उल मुजाहिदीन, अल कायदा, दुख्तरान-ए-मिल्लत और इंडियन मुजाहिदीन जैसे पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों के आमने-सामने होते हैं। इसके साथ ही पीपुल्स वार ग्रुप, एमसीसी और भाकपा-माओवादी जैसी अलगाववादी शक्तियों को देश के भीतर स्थापित होने से रोकने के लिए भी सीआरपीएफ मुस्तैदी से काम करता है। आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील स्थानों, चुनाव, दंगे, सांप्रदायिक तनाव, आपदा से लेकर युद्ध जैसी परिस्थितियों में लगातार काम करने वाले सीआरपीएफ के जवानों को अल्प सूचना पर और अक्सर बिना किसी पूर्व तैयारी के देश के किसी भी इलाके में भेज दिया जाता है।

छत्तीसगढ़ के जंगलों में नक्सलियों से जानलेवा संघर्ष में अपनी जान गंवा देने का जोखिम, उत्तर-पूर्व के गहरे बियाबानों में अलगाववाद हो या दक्षिण कश्मीर में आतंकियों से सामना, सीआरपीएफ ने चुनौतियों का लगातार सामना किया है और वह डटा भी हुआ है। लेकिन विडंबना है कि देश के विभिन्न भागों में देश के दुश्मनों से जूझते हुए अपनी जान न्योछावर करने वाले इन सैनिकों को स्वतंत्र भारत के सात दशक बीत जाने के बाद भी व्यवस्थागत खामियों से लगातार जूझना पड़ रहा है। उन्हें दुश्मनों से निपटने के लिए रणभूमि प्रबंधन प्रणाली का ज्ञान तो दिया जाता है, लेकिन घातक हथियारों, उपकरणों, सुरक्षा के उच्च संसाधन से लैस नहीं किया जाता। इसका परिणाम इस संगठन के लिए बहुत ही खतरनाक सबित हो रहा है और यही कारण है जिसकी वजह से देश के कई भागों में अक्सर सीआरपीएफ के जवान आतंकी हमलों के शिकार हो जाते हैं। हाल में पुलवामा में सीआरपीएफ के चवालीस जवानों का मारा जाना इसी खामी का परिणाम है।

कश्मीर जैसे असुरक्षित और आतंकवादियों के गढ़ को लेकर बेहद खतरनाक इलाके में एक साथ सीआरपीएफ के अठहत्तर वाहनों का काफिला जाने देने की अनुमति देना सुरक्षा के प्रति गंभीर लापरवाही का प्रतीक है। इस दौरान हाईवे की सामान्य आवाजाही को भी नहीं रोका गया था। सीआरपीएफ के काफिले से टकराने वाली एसयूवी में बैठा जैश का आत्मघाती आतंकी पहले से संदिग्ध था, लेकिन उसकी पहचान हमले से पहले किसी ने नहीं की। सुरक्षा को लेकर अलर्ट के बाद भी रोड सुरक्षा पार्टी ने संदिग्ध वाहन की जांच की होती तो इस खतरनाक हमले से सीआरपीएफ के जवानों को बचाया जा सकता था। जाहिर है, एक अतिसंवेदनशील मामले में सुरक्षा प्रबंधन को लेकर भारी कोताही बरती गई।

देश के कई इलाकों में अलग-अलग परिस्थितियों में काम करने वाले इस अर्ध सैनिक बल के जवानों के बड़ी संख्या में मारे जाने का प्रमुख कारण बेहतर योजना का अभाव रहा है। भारतीय सेना से किसी भी मामले में कमतर न होने वाला यह अर्ध सैनिक बल सुविधाओं के लिए भी मोहताज है और उसे पुलिस जैसा ही समझा जाता है। यह भी बेहद आश्चर्यजनक है कि देश के इस सबसे बड़े अर्ध सैनिक बल का मुखिया किसी आइपीएस को बनाया जाता है जिसे युद्ध जैसी परिस्थितियों में काम करने का कोई अनुभव नहीं होता है। इनका कार्यकाल अमूमन एक या दो साल का होता है।

इतने कम समय में सीआरपीएफ की रीति-नीति को समझना मुश्किल होता है और यही प्रमुख कारण रहा है कि दुश्मनों से सबसे ज्यादा जूझने वाला यह संगठन व्यवस्थागत कमियों से भी बेहाल है, जिसकी कीमत इसके जवानों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है। देश के भीतर भारतीय सेना जैसी चुनौतियों का सामना करने के बाद भी सीआरपीएफ अत्याधुनिक हथियारों की कमी, सैन्य साजोसामान का अभाव, मूलभूत सुविधाओं की कमी और उच्च स्तर के सेवा लाभों से महरूम है। रणक्षेत्र में सेवा के दौरान और मारे जाने के बाद भी इन जांबाजों को सेना के सभी लाभ नहीं मिल पाते। यही नहीं, उन्हें शहीद का दर्जा भी नहीं दिया जाता। सातवें वेतन आयोग की सिफारिश स्वीकार कर अर्धसैनिक बलों को शहीद का दर्जा देने की केंद्र की घोषणा अभी तक साकार रूप नहीं ले सकी है।

सीआरपीएफ की इस समय देश भर में लगभग दो सौ बयालीस बटालियन हैं जिनमें से दो सौ चार विशेष बटालियन, छह महिला बटालियन, पंद्रह आरएएफ बटालियन, दस कोबरा बटालियन, पांच सिग्नल बटालियन और एक विशेष ड्यूटी ग्रुप और एक पार्लियामेंट्री ग्रुप है। इसकी एक बटालियन में करीब एक हजार जवान होते हैं। इसमें प्रतिनियुक्ति पर आए महानिदेशक के अलावा तीन-तीन अतिरिक्त महानिदेशक और सात इंस्पेक्टर जनरल हैं। सीमा पर तैनाती से लेकर देश के भीतर तमाम तरह के अभियानों में जुटे रहने के साथ संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशन में भी सीआरपीएफ के जवान शामिल होते हैं। सन 1959 में सीमा पर चीन को दबाने का साहस हो या कच्छ के रण में 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के महत्त्वाकांक्षी सैन्य अभियान से लोहा लेना, सीआरपीएफ के जवानों ने दिलेरी और हौसले से ही अभियान पूरा किया था। तेरह दिसंबर 2001 को संसद पर और पांच जुलाई 2005 को श्री रामजन्मभूमि अयोध्या पर आतंकी हमले को नाकाम करने का श्रेय भी सीआरपीएफ के जवानों को ही जाता है।

सीआरपीएफ सहित अन्य अर्ध सैनिक बलों की समस्याओं और उनकी भूमिका को देखते हुए अविलंब निर्णायक कदम उठाने और सुधारों की जरूरत है। केंद्र सरकार को देश में अर्ध सैनिक बलों के लिए भी डिफेंस सविर्सेज रेगुलेशन की तरह नियमावली बननी चाहिए और इनकी कार्यप्रणाली और सेवा नियमों में परिवर्तन करने चाहिए। यहां पर यह महत्त्वपूर्ण बदलाव भी होना चाहिए जिसमें केंद्रीय अर्धसैनिक बलों का प्रमुख या महानिदेशक उसी सेवा के वरिष्ठ अधिकारी को नियुक्त किया जाए। ऐसा होने पर सीआरपीएफ जैसे अत्यंत अति महत्त्वपूर्ण सुरक्षा संगठन की व्यवस्थाएं बेहतर हो सकती हैं, साथ ही बल की जरूरतों और चुनौतियों के अनुरूप माकूल सुरक्षा और अन्य इंतजामात भी सुनिश्चित किए जा सकेंगे।