वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और मृदा प्रदूषण से पैदा होने वाली समस्याओं से लोग वाकिफ हैं। इनके चलते होने वाली बीमारियां पहले ही चुनौती बनी हुई हैं। इनका असर खेती-किसानी से लेकर सामान्य जन-जीवन पर पड़ रहा है। इसलिए इन प्रदूषणों को कम करने की कवायदें भी विश्व स्तर पर जारी हंै। मगर प्रकाश प्रदूषण से होने वाली समस्याओं के बारे में लोग नहीं जानते या इस तरफ अभी अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। शायद इसलिए कि दूसरे प्रदूषणों की तरह इस प्रदूषण के प्रभाव भयावह रूप नहीं ले पाए हैं। इसलिए इस खतरे के प्रति लोग आंख मूंदे हुए हैं।
दक्षिण कोरिया स्थित सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर क्यॉग-बोक मिन के मुताबिक रात में बाहरी यानी आउटडोर और कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता का नींद की दवाओं से गहरा रिश्ता है। अध्ययन के मुताबिक रात में घर के बाहर के तेज प्रकाश का असर नींद पर पड़ता है। इससे अनिद्रा की समस्या बढ़ रही है। इसलिए लोग नींद के लिए दवाओं का सेवन करते हैं। इससे लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में जबर्दस्त कमी देखी जा रही है और लोगों की औसत आयु में कमी आ रही है।
प्रकाश प्रदूषण एक ऐसी नई समस्या है, जिसका समाधान निकट भविष्य में संभव नहीं दिखाई देता, बल्कि इस समस्या के दिनोंदिन और बढ़ने के आसार हैं। इसकी वजह यह है कि लगातार नए-नए शहर बसाए जा रहे हैं। शहरों में सुरक्षा-व्यवस्था ठीक रहे, इसलिए सड़कों, पार्कों, व्यावसायिक परिसरों में ऊंचे खंभों पर तेज रोशनी वाली बत्तियां उपयोग की जाने लगी हैं। इसके अलावा जगह-जगह तेज चमक बिखेरने वाले होर्डिंगों और साइनबोर्डों का चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। चकाचौंध कर देने वाली ये लाइटें सेहत पर किस तरह और कितना असर डाल रही हैं, इस पर नगरपालिका या सरकार को सोचने का वक्त नहीं है।
आमतौर पर आम लोग इस बाबत सोचते ही नहीं हैं। बल्कि सड़कों और घरों के बाहर गलियों में अगर बत्तियां न हों, तो उसके लिए आंदोलन तक पर उतर आते हैं। लोगों को यह भी नहीं मालूम कि आंखों को चौंधिया देने वाली ये बत्तियां उनकी उम्र को कम करने की वजह बन रही हैं। लोगों के लिए तो पार्कों, गलियों और सड़कों पर बत्तियों का होना विकास का पैमाना है। मगर इस तथाकथित विकास के पैमाने में उनकी जिंदगी का पैमाना गड़बड़ा रहा है, यह किसी को नहीं मालूम। यहां तक कि पढ़े-लिखे लोग भी तेज रोशनी को ही तरक्की का पर्याय मानते हैं।
अनेक अध्ययनों से यह तथ्य बहुत पहले सामने आ चुका था कि शहरों, पर्यटन स्थलों, जंगल सफारी आदि में रात को जलने वाली तेज बत्तियों की वजह से वहां रहने वाले पक्षियों और दूसरे वन्य जीवों के स्वाभाविक जीवन चक्र पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उनकी नींद में बाधा उत्पन्न होती है, इससे उनकी प्रजनन क्षमता घट रही है। इस वजह से अनेक पक्षियों और वन्य जीवों की प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। मगर उन अध्ययनों के निष्कर्षों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। फिर यह सोचने की जरूरत नहीं समझी गई कि अगर वन्य जीवों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है, तो मनुष्य पर भी जरूर कुछ प्रभाव पड़ता होगा। मगर चकाचौंध को विकास का पर्याय मानने वाली व्यवस्थाओं ने इसे कोई गंभीर समस्या नहीं माना।
यूनिवर्सिटी आॅफ शिकागो के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक और अर्थशास्त्री प्रो माइकल ग्रीनस्टोन के मुताबिक वैश्विक आबादी का पचास फीसद या 5.5 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां प्रदूषण की समस्या डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित सीमा को पार कर गई है। गौरतलब है कि भारत और चीन में दुनिया की छत्तीस प्रतिशत आबादी रहती है। दोनों देशों में वायु, ध्वनि, जल, मृदा और प्रकाश प्रदूषण की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक इन दोनों देशों में रहने वाले लोगों की औसत उम्र में तिहत्तर फीसद की कमी आई है। उड़ती धूल से जहां सिर दर्द, बुखार, नेत्ररोग, चर्मरोग, श्वासरोग और एलर्जी जैसी समस्याएं विकट होती जा रही हैं, वहीं पर प्रकाश प्रदूषण के कारण अनिद्रा, नेत्ररोग, हृदयरोग और मानसिक रोग लगातार बढ़ते जा रहे हैं। जिस प्राकृतिक प्रकाश को जिंदगी का कभी सहचर माना जाता था, वह जब कृत्रिम रूप से हमारी जिंदगी का हिस्सा बनता है, तो हमारे लिए समस्या पैदा करने वाला बन जाता है, नए शोध और सर्वेक्षण तो यही कह रहे हैं।
इसी तरह मृदा प्रदूषण से, जिसमें उड़ती धूल की समस्या सबसे ज्यादा है, सब्जियों, फलों, खाद्यान्न और दूसरी खेत में पैदा होने वाली वस्तुएं प्रदूषित हो रही हैं। ऐसी वस्तुआेंं के सेवन से पेट, मस्तिष्क, त्वचा, आंख, किडनी, लीवर पर अत्यंत घातक असर पड़ रहा है। असमय में समाज के हर आयु वर्ग का व्यक्ति बीमारी से ग्रस्त होने लगा है। कुछ साल पहले यह अध्ययन भी सामने आया था कि गंगा और यमुना जैसी नदियों के प्रदूषित होते जाने की वजह से उनके किनारे के गांवों में मृदा प्रदूषण तेजी से बढ़ा है और उसके चलते वहां कई तरह की बीमारियां खतरनाक स्तर तक बढ़ गई हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक हवा में प्रदूषण और आर्द्रता बढ़ने से वातावरण में 2.5 पीएम के सूक्ष्म कण, ओजोन, नाइट्रेट, सल्फेट और कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा ज्यादा है। प्रदूषण और आर्द्रता से ग्राउंड लेबल पर ओजोन का स्तर बढ़ रहा है। इससे नाक और सांस की नलिकाओं में सूजन और संक्रमण की शिकायत बढ़ रही है जिससे लोग खांसते-खांसते परेशान हैं। प्रदूषण और आर्द्रता बढ़ने से फोटो केमिकल स्मॉग भी बन रहा है।
प्रो जेवी सिंह के मुताबिक फोटो केमिकल स्मॉग में निचली स्तह पर ओजोन की मात्रा लगातार बढ़ रही है। यह ओजोन नाक और सांस की नलिकाओं के म्यूकस (द्रव्य पदार्थ) को नुकसान पहुंचा रही है। इससे आम लोगों में सांस की नलिकाओं में सूजन और संक्रमण हो रहा है। प्रदूषण से अस्थमा और क्रानिक आॅब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से पीड़ित मरीजों की सांस उखड़ने लगी है।
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या जिस तरह विकराल रूप धारण कर रही है, उससे लगता है कि कुछ ही सालों में विकासशील देशों में रहने वाले लोगों की औसत उम्र में और भी कमी आएगी। आमतौर पर शहरों में रहने वालों को प्रदूषण की समस्या से दो-चार होना पड़ता है, लेकिन अब गांवों और छोटे कस्बों में भी प्रदूषण की समस्या से लोगों को तरह-तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। भारत के अनेक प्रदेशों के किसानों द्वारा पराली जलाने से वायु प्रदूषण, डीजे के शोर से ध्वनि प्रदूषण और उड़ती धूल के कणों से पर्यावरण पर प्रतिकूल असर देखने को मिल रहा है। यही वजह है कि गांवों में रहने वाले लोग उन बीमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं, जो आमतौर पर शहरों की मानी जाती थीं।
पराली जलाने से हवा और सेहत तो चौपट हो ही रही है, जमीन की उर्वरा-शक्ति में जबर्दस्त कमी देखी जा रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक भूमि में अस्सी फीसद तक सल्फर, नाइट्रोजन और बीस फीसद अन्य पोषक तत्त्वों की कमी आई है। इसके अलावा जमीन में मौजूद ‘मित्रकीट’ नष्ट हो रहे हैं। कीटों का प्रकोप गांवों में बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा है और भूमि की जल धारण क्षमता में कमी आ रही है। इस पर गौर करने की जरूरत है। शहरों में घरों और कारखानों का कचरा और गांवों में पराली दोनों पर्यावरण की बर्बाद कर रहे हैं। प्रकाश प्रदूषण की बढ़ती समस्या पर काबू पाने के उपाय जरूरी हो गए हैं।
अखिलेश आर्येंदु