अब देश में जीन कुंडली बनना संभव हो गई है। अभी तक ज्योतिष विद्या से बनाई जाने वाली कुंडली से व्यक्ति के भविष्य और बीमारियों की जानकारी ली जाती थी, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। पर अब यह काम जीन कुंडली करेगी, जो पूरी तरह आधुनिक विज्ञान की देन है। इससे पता चल सकेगा कि भविष्य में आपकी संतान को एक हजार सात सौ से भी ज्यादा किस्म की आनुवंशिक बीमारियों में से कौनसी बीमारी हो सकती है। जीन कुंडली से यह भी जान सकेंगे कि एक ही बीमारी से पीड़ित दो अलग-अलग रोगियों में से किसके लिए कौनसी दवा ज्यादा असरकारी होगी।
जीन कुंडली बनाना, दरअसल किसी व्यक्ति के जीन समूह यानी जीनोम अनुक्रम (सीक्वेंस) को पढ़ लेना है। फिलहाल जीन कुंडली बनवाने के लिए करीब सत्तर लाख रुपए का खर्च बैठता है, लेकिन अब भारत में यह जांच महज एक लाख रुपए में संभव हो सकेगी। भविष्य में जब इसकी मांग बढ़ेगी तो जीन कुंडली बनवाने का खर्च और कम हो जाएगा। वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) की हैदराबाद और दिल्ली स्थित प्रयोगशालाओं ने एक हजार आठ नमूनों की जीनोम परीक्षण जांच पूरी करने में सफलता हासिल की है। सात अन्य प्रयोगशालाएं भी इस जांच में रुचि दिखा रही हैं।
डीएनए प्रोफाइलिंग बिल यानी मानव डीएनए संरचना विधेयक कानून बन जाने के बाद जीन कुंडली बनाने का रास्ता साफ हुआ है। इस कानून को लाने का मकसद संदिग्ध अपराधी, विचाराधीन कैदी, पीड़ित व्यक्ति और गुमशुदा लोगों की मूल पहचान करना है। इसके जरिए देश के हर नागरिक का जीन आधारित कंप्यूटरीकृत डाटाबेस तैयार होगा और एक क्लिक पर उसकी आंतरिक जैविक जानकारियां कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाएंगी।
लिहाजा, इस विधेयक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में आम नागरिक के मूल अधिकारों में शामिल गोपनीयता के अधिकार का खुला उल्लंघन मानते हुए विरोध भी हुआ था। दरअसल, यह आशंका बनी हुई है कि तकनीक आधारित इस डाटाबेस का दुरुपयोग स्वास्थ्य एवं उपचार, बीमा और तकनीकी उत्पादों से जुड़ी कंपनियां कहीं लीक तो नहीं करने लग जाएंगी? इन सच्चाइयों के परिप्रेक्ष्य में यदि जीनोम अनुक्रम के परिणाम लीक कर दिए जाते हैं तो यह व्यक्ति की जिंदगी के साथ आत्मघाती कदम होगा। वैसे भी सवा अरब की आबादी और भिन्न-भिन्न नस्ल व जाति वाले देश में कोई निर्विवाद डाटाबेस तैयार हो जाए, यह अपने में बड़ी चुनौती है, क्योंकि अब तक हम न तो विवादों से परे मतदाता पहचान पत्र बना पाए, न ही नागरिक को विशिष्ट पहचान देने का दावा करने वाला आधार कार्ड। ऐसे में देश के सभी लोगों की जीन आधाारित कुंडली बना लेना भी एक दुष्कर और असंभव-सा कार्य है।
मानव-शरीर में मौजूद जीनोम कुंडली यानी डीएनए (डी आॅक्सीरिबो न्यूक्लिक एसिड) की आंतरिक सरंचना जानना जरूरी है। डीएनए नामोक सर्पिल सरंचना अणु कोशिकाओं और गुणसूत्रों का निर्माण करती है। जब गुणसूत्र परस्पर समायोजन करते हैं तो एक पूरी संख्या छियालीस बनती है, जो एक संपूर्ण कोशिका का निर्माण करती है। इनमें बाईस गुणसूत्र एक जैसे होते हैं, किंतु एक भिन्न होता है। गुणसूत्र की यही विषमता स्त्री अथवा पुरुष के लिंग का निर्धारण करती है। डीएनए नामक यह जो मौलिक महारसायन है, इसी के माध्यम से बच्चे में माता-पिता के आनुवंशिक गुण-अवगुण स्थानांतरित होते हैं। वंशानुक्रम की यही वह बुनियादी भौतिक, रासायनिक, जैविक और क्रियात्मक इकाई है, जो एक जीन बनाती है। पच्चीस हजार से पैंतीस हजार जीन मिल कर एक मानव जीनोम बनाते हैं, जिसे इस विषय के विषेषज्ञ पढ़ कर व्यक्ति के आनुवांशिकी रहस्यों को किसी पहचान-पत्र की तरह पढ़ सकते हैं।
मानव-जीनोम तीन अरब रासायनिक रेखाओं का तंतु है,जो यह परिभाषित करता है कि वास्तव में मनुष्य है क्या? इसे पढ़ने के लिए 1980 में ‘मानव-जीनोम परियोजना’ लाई गई थी। इस पर तेरह हजार आठ सौ करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इसमें अंतरराष्ट्रीय जीव और रसायन विज्ञानियों की बड़ी संख्या में भागीदारी थी। भिन्न मोर्चों पर दायित्व संभालते हुए इन विज्ञानियों ने इस योजना को 2001 में अंजाम तक पहुंचाया। इस मुकाम पर पहुंचने के बाद आधुनिक जीव वैज्ञानिक आज कोशिकीय रसायन शास्त्र की जटिलता का विश्लेषण करने में पारदर्शी दक्षता का दावा करने लगे हैं। इस सफलता ने यह तो तय कर दिया है कि जीव विज्ञान में रासायनिक विश्लेषण से सभी समस्याओं का तकनीकी समाधान संभव है।
जीन कुंडली के पक्ष में अपराध व बीमारियां नियंत्रित कर लेने का मजबूत तर्क है। इससे खोए, चुराए और अवैध संबंधों से पैदा हुई संतान के माता-पिता का भी पता चल जाएगा। लावारिस लाशों की पहचान संभव हो सकेगी। जीन संबंधी परिणामों को सबसे अहम चिकित्सा के क्षेत्र में माना जा रहा है, क्योंकि अभी तक यह शत-प्रतिशत तय नहीं हो सका है कि दवाएं किस तरह बीमारी का प्रतिरोध कर उपचार करती हैं। जाहिर है, अभी ज्यादातर दवाएं अनुमान के आधार पर रोगी को दी जाती हैं। जीन के सूक्ष्म परीक्षण से बीमारी की सार्थक दवा देने की उम्मीद बढ़ गई है। लिहाजा इससे चिकित्सा और जीव-विज्ञान के अनेक राज तो खुलेंगे ही, दवा उद्योग भी नए स्वरूप में फले-फूलेगा। इसीलिए मानव जीनोम से मिल रही सूचनाओं का दोहन करने के लिए दुनिया भर की दवा, बीमा और जीन-बैंक उपकरण निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियां अरबों का न केवल निवेश कर रही हैं, बल्कि राज्य सत्ताओं पर जीन-बैंक बनाने का दबाव भी बना रही हैं।
प्रत्येक व्यक्ति की आंख, त्वचा, बालों के रंग, नाक व कान के आकार, आवाज, लंबाई जैसे सभी लक्षणों से लेकर बीमारियों का होना या न होना जीन से तय होता है। जीन हरेक प्राणी की कोशिका में होते हैं। कोशिका में मौजूद तीन अरब जीन की शृंखला को जीनों का समूह जीनोम कहा जाता है। इन्हीं जीनों को क्रमवार लगाना जीन कुंडली कहलाता है। जीन की किस्मों का पता लगा कर मलेरिया, कैंसर, रक्तचाप, मधुमेह और दिल की बीमारियों से कहीं ज्यादा कारगर ढंग से इलाज किया जा सकेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।
बावजूद इसके केवल बीमार व्यक्ति अपना डाटाबेस तैयार कराए, हरेक व्यक्ति का जीन डाटा इकट्ठा करने का क्या औचित्य है, क्योंकि इसके नकारात्मक परिणाम भी देखने में आ सकते हैं। यदि व्यक्ति की जीन-कुडंली से यह पता चल जाए कि व्यक्ति को भविष्य में फलां बीमारी हो सकती है, तो उसके विवाह में मुश्किल आएगी, बीमा कंपनियां बीमा नहीं करेंगी और यदि व्यक्ति एड्स जैसी बीमारी से ग्रस्त है तो रोग के उभरने से पहले ही उसका समाज से बहिष्कार होना तय है। गंभीर बीमारी की शंका वाले व्यक्ति को खासकर निजी कंपनियां नौकरी देने से भी वंचित कर देंगी। जाहिर है, निजता का यह उल्लंघन भविष्य में मानवाधिकारों के हनन का प्रमुख सबब बन सकता है।
इसके डेटा संग्रह के लिए देश भर में प्रयोगशालाएं बनानी होंगी। प्रयोगशाालाओं से तैयार डेटा आंकड़ों को राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सुरक्षित रखने के लिए डीएनए डाटा-बैंक बनाने होंगे। जीनोम-कुंडली बनाने के लिए ऐसे सुपर कंप्यूटरों की जरूरत होगी, जो आज के सबसे तेज चलने वाले कंप्यूटर से भी हजार गुना अधिक गति से चल सकें। बावजूद महारसायन डीएनए में चलायमान वंशाणुओं की तुलनात्मक गणना मुश्किल है। इस ढांचागत व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए विधेयक के मसौदे में डीएनए प्राधिकरण के गठन का भी प्रावधान है।
हमारे यहां कंप्यूटरीकरण होने के पश्चात भी राजस्व-अभिलेख, बिसरा व रक्त संबंधी जांच-रिपोर्टों और आंकड़ों का रख-रखाव कतई विश्वसनीय और सुरक्षित नहीं है। भ्रष्टाचार के चलते जांच प्रतिवेदन व डेटा बदल दिए जाते हैं। ऐसी अवस्था में आनुवंशिक रहस्यों की गलत जानकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समरसता से खिलवाड़ कर सकती हैं। बावजूद निजी जेनेटिक परीक्षण को कानून के जरिए अनिवार्य बना देने में कंपनियां इसलिए लगी हैं, जिससे उपकरण और आनुवंशिक सूचनाएं बेच कर मोटा मुनाफा कमाया जा सके।
प्रमोद भार्गव