विकेश बडोला

एक देश के रूप में हम जिन आत्मघाती और लज्जाजनक परिस्थितियों में कैद होकर खुद को दुखी व असहाय पाते हैं, उनमें किसानों की खुदकुशी की घटनाएं सर्वाधिक चिंता का विषय हैं। भारत में पिछले तीन दशक से किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इससे पहले ऐसी घटना यदा-कदा ही सामने आती थी। नब्बे के दशक में सरकार ने उदारवादी अर्थव्यवस्था के लिए द्वार खोले। अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने विभिन्न व्यवसायों के परिचालन के लिए भारत में निवेश किया। सरकार ने विकास की गति बढ़ाने के लिए विभिन्न सरकारी उपक्रम पूंजीपतियों को बेचने का सिलसिला भी इसी दौरान शुरू किया था। इसका सीधा और सबसे ज्यादा प्रभाव खेती-किसानी पर पड़ा। खेती के लिए जरूरी खाद, बीज, कीटनाशकों, कृषि कार्य करने के संयंत्रों, औजारों और संसाधनों की खरीद के लिए गरीब भारतीय किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आश्रित होना पड़ा। कृषि से संबंधित जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संसाधन और सामग्रियां बाजार में उपलब्ध हुर्इं, वे भारतीय कंपनियों के उत्पाद होकर भी उदारवाद की आड़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अर्थनीतियों से नियंत्रित थीं। इसलिए किसान उन्हें अपनी मामूली बचत की धनराशि से नहीं खरीद पाते थे। परिणामस्वरूप किसान-वर्ग उदारवाद के बाद ही अस्तित्व में आर्इं गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेने को विवश हुए।

दूसरी ओर तैयार कृषि उत्पाद को पैकेट बंद खाद्य उत्पाद बनाने के लिए किसानों से बहुत सस्ते दामों पर खरीद का तंत्र भी विकसित हुआ। यह भी उदारवाद का एक रूप था जिसकी चपेट में गरीब किसान ही आए। किसान जितने दाम देकर कृषि यंत्र, खाद, बीज, कीटनाशक और अन्य उपकरण खरीदता था, उतने दाम उसे अपने कृषि उत्पाद से नहीं मिलते थे। नब्बे के दशक से शुरू हुई खेती-किसानी की यह विसंगति धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करती गई और किसान न चाहते हुए भी उधारी के जाल में फंसते गए। पिछले तीन दशकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, भ्रष्ट सरकारों और सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों के गठजोड़ ने भारत में कृषि कर्म को किसानों के लिए आत्मदंश बना दिया है। इस स्थिति में आज भी किसान के पक्ष में विशेष सुखद परिवर्तन नहीं हो पाया है। हालांकि पिछले कुछ साल में केंद्र और राज्यों सरकारों के समन्वित प्रयासों से किसानों के कल्याण की योजनाएं शुरू की गई हैं, लेकिन इन योजनाओं का निष्ठापूर्ण और सरकारों की सुशासकीय परिकल्पना के अनुसार किसान हितैषी होना तब तक साकार नहीं हो सकता, जब तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों, गैर-बैंकिंग कंपनियों और सरकारी अफसरों के अनैतिक गठजोड़ को कठोर कार्रवाइयों के बल पर तोड़ नहीं दिया जाता।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार भारत में सन 1995 से लेकर 2018 तक दो लाख छियानवे हजार चार सौ अड़तीस किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से अकेले महाराष्ट्र में साठ हजार किसानों ने मौत को गले लगाया है। किसानों की खुदकुशी की घटनाएं सबसे ज्यादा महाराष्ट्र, ओड़िशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हुई हैं। खेती-किसानी की यह दुर्दशा देश में तब है जब यहां के सत्तर प्रतिशत लोगों की आजीविका कृषि पर आधारित है। यह विडंबना ही है कि सरकारें अन्नदाता के प्रति उदासीन रही हैं। खेती कभी लोगों के आत्म-निर्भर जीवन का सबसे बड़ा आधार हुआ करती थी। लेकिन कई कारणों से किसानों की इसमें रुचि खत्म होती गई। पहला कारण परिवार-समाज का पारंपरिक स्वरूप बिगड़ना और आधुनिक-भौतिक जीवन के प्रति अधिक लगाव होना रहा है। भारत में चालीस-पचास वर्षों से परंपरागत खेती में गिरावट आनी शुरू हुई।

परिवार के लोग साक्षरता का अर्थ यह लगाने लगे कि उन्हें गांव-घर छोड़ शहरों में नौकरी करने जाना है। समाज में परंपरागत खेती-किसानी छोड़ जीविका के लिए उद्योगों पर आश्रित होने और इस उपक्रम में बस रहे शहरों में रहने की होड़ तेज होती गई। जो लोग परंपरागत तरीकों से खेती को संभालने की स्थिति में थे, वे इस मानसिकता से घिर चुके थे कि उद्योगों पर आश्रित जीवन ज्यादा सुखद होगा। इस परिवर्तन काल में खेती से जुड़े दिहाड़ी श्रमिक सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। वे ऐसी स्थिति में थे कि न उद्योगों पर आधारित नव जीवन जी सकते थे और न पुरानी खेती-बाड़ी को स्थायी आजीविका का आधार बना सकते थे। परिणामस्वरूप जीवन में नई जीने की पद्वति, जो औद्योगीकरण की देन थी, के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक था। यह नई जीने की पद्वति भी कालांतर में कृषि क्षेत्र के साथ एक समुचित पद्धति बन सकती थी लेकिन उद्योगों के प्रति शासन, समाज और व्यक्ति के बढ़ते आकर्षण के कारण ऐसा नहीं हो सका। औद्योगिक उत्पाद ही उत्पादन से लेकर उपभोग तक शासकीय रूप में संगठित और व्यवस्थित हो पाया, जबकि मूल कृषि उत्पादन का भंडारण, विपणन, क्रय-विक्रय, मूल्य-निर्धारण और लाभार्जन का समुचित निर्धारण आज तक नहीं सुधर पाया है। इस कारण साधन-संसाधन हीन किसान परिवार खेती-किसानी छोड़ते गए।

उद्योगों में जो डिब्बा-बंद खाद्य तैयार हो रहा है, वह भी कृषि के मूल खाद्यान्न से ही तैयार होता है। जब खेती के प्रति निराशा बढ़ेगी और निरंतर किसानों द्वारा खेती छोड़ी जाएगी तो भारत ही नहीं, दुनिया के सम्मुख खाद्यान्न संकट खड़ा होगा। शिक्षा के व्यवसाय ने जिस तरह की नौकरियों को बढ़ावा दिया है, उससे हर कोई खाना, कपड़ा और अन्य पुरातन-नवीन जैविक सुविधाएं केवल मूल्य भुगतान के आधार पर प्राप्त करना चाहता है, परंतु मूल जैविक सुविधाओं के प्रत्यक्ष उत्पादन में हिस्सेदारी नहीं करना चाहता। किसान यदि अपनी आवश्यकता के अनुसार ही खाद्यान्न, फल और दुग्ध का उत्पादन करे तो भी वह अपने परिवार का समुचित भरण-पोषण कर सकता है। लेकिन बाजारीकरण के युग में कृषि उत्पादों के मूल्य का निर्धारण जिस प्रकार होता आया है उससे किसान को कृषि मूल्य में सबसे कम यानी नहीं के बराबर हिस्सा मिलता आया है। ऐसी स्थिति में किसान का खेती से मोहभंग होना स्वाभाविक है।

खेती छोड़ने पर शहरी जीवन अपनाने के अनेक दुष्परिणाम सामने आए हैं। लोग डिब्बा-बंद तैयार खाने और अन्य उपभोक्ता तथा विलासिता की वस्तुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं। इससे प्लास्टिक और अजैविक कचरा शहरों की गंभीर समस्या के रूप में सामने आया है। अकेले भारत के चार महानगरों दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता में जो कचरा शहरों के कोनों में ढेर किया जा रहा है, वह उपयोगी निस्तारण के अभाव में सड़ता रहता है और शहरी आबादी के लिए तमाम बीमारियां पैदा करता है।

देश के सम्मुख इस समय सर्वाधिक विचारणीय चिंता यही है कि छोटे-बड़े सभी किसानों को खेती-किसानी के प्रति समर्पित कैसे बनाया जाए और खेती-किसानी में कर्ज से लेकर दूसरी अनेक समस्याओं से घिरे किसानों को खुदकुशी जैसे रास्ते अपनाने से कैसे रोका जाए। पहली बात, देशभर में किसानों द्वारा लिए गए और लिए जा रहे कर्जों का प्रामाणिक आंकड़ा बैंक तैयार हो। दो, अधिक कर्ज भार से पीड़ित किसानों को सरकारों द्वारा तत्काल मौद्रिक सहायता प्रदान की जाए या कर्जदाता से संपर्क कर उसे किसान को प्रताड़ित नहीं करने के कठोर निर्देश दिए जाएं। तीन, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा किसानों को कर्ज देना बंद किया जाए और केवल सरकारी व निजी बैंकों से किसान ऋण योजनाएं परिचालित की जाएं। चार, कृषि क्षेत्र के लिए सरकार द्वारा ग्रामीण स्तर पर एक ऐसी केंद्रीय व्यवस्था बनाई जाए जहां खेती-किसानी से संबंधित समस्त समस्याओं का निदान किसानों की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को देखते हुए युद्ध स्तर पर किया जाए।