हर खिलाड़ी की ओलंपिक खेलों में भाग लेने और उनमें पदक जीतने की तमन्ना होती है। इन खेलों में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों का देश में हीरो वाला दर्जा रहता है। पहलवान सुशील और टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस दोनों ही ओलंपिक में पदक जीतने वाले रहे हैं और देशवासियों ने उन्हें हमेशा सिर आंखों पर बिठाया है। दोनों के कई बार ओलंपिक में भाग लेने के बाद भी ओलंपिक की दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है और वे हर हाल में रियो ओलंपिक में भाग लेना चाहते हैं। ओलंपिक में भाग लेना सम्मान की बात भी है। पर इसके लिए दोनों खिलाड़ियों द्वारा पिछले दिनों किए गए प्रयासों से उनकी हीरो वाली छवि को थोड़ा धक्का लगा है। सुशील पहलवान ने जिस तरह से रियो का टिकट कटाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया और सही आधार पर नहीं खड़े होने की वजह से उनकी छवि को थोड़ा धक्का लगा है, उसी तरह लिएंडर पेस के नाम की एक समय देश में धूम रही है और इसकी वजह शायद उनका राष्ट्रीय जज्बा है।

लिएंडर एक समय दुनिया के नंबर एक पुरुष युगल खिलाड़ी रहे हैं। मगर मौजूदा स्थिति है कि उन्हें पुरुष युगल में भाग लेने के लिए रोहन बोपन्ना की मेहरबानी पर निर्भर होना पड़ रहा है। वहीं मिक्सड डबल्स में सानिया उनके या बोपन्ना के साथ खेलेंगी यह सानिया को ही फैसला करना है। अगर इन दोनों खिलाड़ियों ने अपनी ओलंपिक में भाग लेने की चाहत पर लगाम लगाई होती तो उन्हें इन हालात से दो-चार नहीं होना पड़ता।
देश में हॉकी, फुटबाल आदि खेलों में खिलाड़ियों का आना-जाना लगा रहता है और इसका लोगों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि उनकी इन खेलों में दिलचस्पी नहीं रही है। लेकिन क्रिकेट को देशवासी दीवानगी की हद तक प्यार करते हैं। इसलिए कोई कप्तान या क्रिकेटर बिना अच्छा प्रदर्शन किए टीम से चिपका रहता है या फिर संन्यास लेने का समय आ जाने पर भी क्रिकेटर संन्यास नहीं लेता तो उसकी जम कर आलोचना होती है। देश को पहला विश्व कप जिताने वाले कपिल देव तक ऐसी आलोचना से नहीं बच सके हैं। इसी तरह ओलंपिक में अगर आप सैर-सपाटे के उद्देश्य से जाते हैं तो वह भी आलोचना से बच नहीं पाता है।
इस मामले में पेस और सुशील भले एक पाले में खड़े नजर आ रहे हैं, पर उनकी स्थितियां भिन्न हैं। पेस 1996 में कांस्य पदक जीतने के बाद से लगातार भाग लेते रहे हैं और कभी पदक के करीब पहुंचते नजर नहीं आए हैं, इसलिए उनके भाग लेने का क्या तुक है, आप खुद समझ सकते हैं। वहीं सुशील पहलवान ने पिछले दोनों ओलंपिकों में पदक जीते हैं। लेकिन उन्होंने रियो जाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है और वह पकी-पकाई रोटी खाना चाहते हैं। इसलिए आलोचना हो रही है।
सुशील पहलवान ने 2008 के बेजिंग और 2012 के लंदन ओलंपिक में कुश्ती के फ्रीस्टाइल के 66 किलोग्राम वर्ग में क्रमश: कांस्य और रजत पदक जीते हैं। लेकिन 2014 में ओलंपिक में 66 किग्रावर्ग को खत्म किए जाने के बाद सुशील ने 74 किग्रावर्ग में भाग लेने का फैसला किया। लेकिन यहां नरसिंह यादव पहले से थे। 2014 के ग्लास्गो ओलंपिक में नरसिंह की अनुपस्थिति में सुशील ने भाग लेकर स्वर्ण पदक जीत लिया। इसके अलावा सुशील हमेशा बड़ी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के समय या तो अनफिट रहे या फिर भाग लेने से कतराते रहे। आखिर में अपने और नरसिंह के बीच ट्रायल कराने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट पहुंच गए। लेकिन इससे वह अपने इरादों में तो कामयाब नहीं हो सके और इससे उनकी प्रतिष्ठा को भी धक्का लग गया। सुशील ने अगर कुश्ती लीग से हटने का फैसला नहीं किया होता और नरसिंह से मुकाबला किया होता तो उनका दावा भी मजबूत होता और लोगों का समर्थन भी मिलता। लेकिन वे सिर्फ एक ट्रायल की कुश्ती जीत कर विश्व कप में कांस्य पदक जीत कर कोटा स्थान लाने वाले पहलवान का हक छीनना चाहते हैं। इससे उनकी इज्जत में बट्टा लगना ही था।

सुशील ने लगातार दो ओलंपिक में पदक जीत कर देशवासियों के दिलों में जगह बना ली थी और उन्हें देश के सम्मानित पहलवान का दर्जा मिल गया था। लेकिन हर हाल में रियो ओलंपिक की राह बनाने की उनकी चाहत प्रतिष्ठा को धक्का लगाने वाली रही है। बेहतर होता कि सुशील ने अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक लाकर कुश्ती फेडरेशन पर ट्रायल के लिए दवाब बनाया होता। मगर वे तो बिना प्रयास के रियो जाने की राह तलाशते नजर आए। सच यह है कि सुशील इस तरह की सोच वाले नहीं हैं। लेकिन उनके समर्थकों ने उन्हें गलत दिशा में चलने की सलाह देकर उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया है।

लिएंडर पेस की बात करें तो उनके बारे में माना जाता है कि वे जब देश के लिए खेलते हैं तो उनका जज्बा देखने वाला होता है। इसी जज्बे की वजह से वे 1996 के अटलांटा ओलंपिक में पुरुष एकल में कांस्य पदक जीतने में सफल हो गए थे। पेस ने 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक से भाग लेना शुरू किया था और वे 2012 के लंदन ओलंपिक तक छह ओलंपिक खेलों में भाग ले चुके हैं। लेकिन पिछले ओलंपिक में महेश भूपति से सानिया मिर्जा के साथ जोड़ी बनाने को लेकर हुए टकराव की वजह से इस बार लिएंडर के रियो ओलंपिक के पुरुष युगल में भाग लेना बोपन्ना की मर्जी पर निर्भर हो गया है। लिएंडर पेस ने ओलंपिक में सीधे प्रवेश पाने के लिए अपनी रैंकिंग को सुधारने के लिए सोलह साल बाद लियोन के रूप में चैलेंजर्स टूर्नामेंट में भाग लिया, लेकिन वे सैम ग्रोथ के साथ जोड़ी बना कर खिताब तो नहीं जीत सके, पर फाइनल तक चुनौती पेश करने में जरूर सफल रहे। फें्रच ओपन में अगर वे पुरुष युगल खिताब जीतते तो शायद उनकी रैंकिग सीधे प्रवेश दिलाने वाली हो सकती थी। पर वे क्वार्टर फाइनल तक ही चुनौती पेश कर सके और छह जून को जारी रैंकिंग में छियालीसवें स्थान तक ही पहुंच सके। इस स्थिति में भी अगर रोहन बोपन्ना टॉप दस में नहीं पहुंचते तो लिएंडर पेस की बात बन सकती थी। लेकिन इवान डोडिग के फ्रेंच ओपन के सेमीफाइनल में हारने से बोपन्ना को टॉप दस में स्थान मिलने से पेस की मुश्किलें बढ़ गई हैं।

ओलंपिक टेनिस के नियमों के मुताबिक युगल में टॉप दस में रहने वाले खिलाड़ी को अपना जोड़ीदार चुनने की छूट मिलती है। अब इस स्थिति में रोहन बोपन्ना लिएंडर के अलावा 103 रैंकिंग वाले पूरव राजा, 114वीं रैंकिंग के दिविज शरण और 125वीं रैंकिंग के साकेत मायनेनी में से किसी के साथ जोड़ी बना सकते हैं। इसी तरह सानिया मिर्जा भी मिक्सड डबल्स की टॉप रैंकिंग की खिलाड़ी हैं, इसलिए उन्हें भी अपना जोड़ीदार चुनने का अधिकार मिला हुआ है। लंदन ओलंपिक में सानिया महेश भूपति के साथ जोड़ी बना कर खेलना चाहती थीं। लेकिन अखिल भारतीय टेनिस एसोसिएशन ने दवाब डाल कर उन्हें पेस के साथ खेलने को मजबूर कर दिया था। लेकिन इस बार सानिया को अपना जोड़ीदार चुनने का अधिकार मिला हुआ है। सानिया रियो में किस जोड़दार के साथ खेलेंगी, यह सवाल पूछा जाता रहा है, लेकिन उन्होंने इस बारे में कभी जवाब नहीं दिया। पर यह सभी अच्छी तरह जानते हैं कि वे लिएंडर पेस के बजाय रोहन बोपन्ना के साथ खेलने में ज्यादा सहज महसूस करती हैं।
उधर लिएंडर पेस ने फ्रेंच ओपन में मार्टिना हिंगिस के साथ जोड़ी बना कर मिक्सड डबल्स खिताब जीता है और यह उनके कॅरियर का दसवां मिक्सड डबल्स और अठारहवां ग्रैंड स्लैम खिताब है। इस लिहाज से पेस का सानिया के साथ जोड़ी बना कर खेलने का दावा बनता है। लेकिन यहां स्थितियां भिन्न नजर आती हैं। अब ऐसा लगता है कि अखिल भारतीय टेनिस एसोसिएशन अगर बोपन्ना को पेस के साथ जोड़ी बना कर खेलने के लिए मनाती है तो बोपन्ना इसकी कीमत मिक्सड डबल्स में सानिया मिर्जा के साथ खेलने के रूप में मांग सकते हैं।

सुशील और लिएंडर पेस की ओलंपिक में भाग लेने की इस चाहत ने ही आज उन्हें इस मुकाम पर पहुंचाया है। अगर इन दोनों महान खिलाड़ियों ने ओलंपिक में भाग लेने की चाहत को विराम दिया होता तो उनकी हीरो वाली छवि को और चार चांद लग जाते। सुशील के बारे में तो बेहतर होता कि जब वे पिछले दो साल से किसी महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिता में भाग नहीं ले पाने के बाद भारतीय कुश्ती फेडरेशन को यह प्रस्ताव देते कि वे शिविर में शामिल होकर नरसिंह यादव को ओलंपिक की तैयारियां कराएंगे तो इससे उनकी देशवासियों के दिमाग में छवि और बेहतर हो जाती। लेकिन गलत तरह से रियो जाने की राह बनाने का प्रयास करने से उनकी छवि को झटका लगा है।

इसी तरह लिएंडर पेस 1996 में पदक जीतने के बाद जब अपने युगल कॅरियर में महेश भूपति के साथ चरम पर थे, तब भी युगल में पदक जीतने का प्रयास कर चुके हैं और वे यह प्रयास 2004 में एथेंस, 2008 में बेजिंग और 2012 में लंदन ओलंपिक में भी कर चुके हैं। कॅरियर जब पीक पर था, तब वे युगल में ओलंपिक पदक नहीं जीत सके तो अब पदक की उम्मीद पालना दमदार नजर नहीं आता है। इसलिए उन्हें युवा खिलाड़ियों के लिए जगह छोड़नी चाहिए थी, इससे उनकी प्रतिष्ठा में इजाफा ही होता।