रमणिका गुप्ता गजब हैं। उम्र सतासी वर्ष। लेकिन जिजिविषा वैसी ही जैसी कभी सोलह वर्ष की उम्र में थी। जब अपने ही घर के नौकरों को उनके अधिकार दिलाने के लिए अपने मां-बाप के सामने कमर कस ली। उनकी अत्मकथा ‘हादसे’ का अंग्रेजी संस्करण ‘एनकाउंटर्स’ वरिष्ठ पत्रकार प्रंजय गुहा ठाकुरता ने प्रकाशित किया है। इसके लोकार्पण में मंच पर बोलते हुए रमणिका ने बुंलद आवाज में कहा: ‘मैं उनमें से नहीं, जिनको अपने महिला होने पर असमंजस है, और जो यह गीत गाती हैं कि ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’। मैं भगवान को नहीं मानती और न ही मानती हूं अगले जनम को। लेकिन अगर ऐसा कुछ है तो मेरा गीत यही है कि ‘अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो।’
रमणिका की यह चाहत अप्रतिम है। खुद के महिला होने पर ऐसा गर्व दुर्लभ है। मैं महिला अधिकार संगठन चलाने वाली अपनी एक ऐसी दोस्त को जानता हूं, जो पति के सामने आने पर फोन बंद कर देती हैं। एक बार यह बात मुझे दस्तावेजी फिल्मों के निर्माता मोहम्मद गनी ने कही थी। दिल्ली में मैंने खुद महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली महिलाओं को अपने महिला होने की मजबूरी को बयान करते हुए सुना है। मगर रमणिका गुप्ता तो सुभद्रा कुमारी चौहान से भी खासी नाराज हैं, क्योंकि उनको लगता है कि महिला मर्दानी होकर क्यों लड़े! लड़ाई के लिए मर्द या मर्द जैसा होना ही क्यों जरूरी है? यह सवाल वे हथौड़े की तरह मारती हैं।
पंजाब के पटियाला में पैदा हुर्इं रमणिका ने सतासी वर्ष की उम्र में उन्यासी किताबें लिख दी हैं। अभी और किताबों पर काम चल रहा है। उनकी एक दोस्त ने याद किया कि एक बार जब वे उनसे मिलने पहुंचीं तो रमणिका ने कहा कि वे अगले सप्ताह थोड़ा व्यस्त हैं, क्योंकि एक वाल्व चेंज करवाना है। ‘मैंने सोचा वे किसी कार या घर के किसी यंत्र का वाल्व बदलने की बात कर रही हैं। मुझे तो झटका ही लग गया जब पता चला कि वे अपने दिल के एक वाल्व के बदलने की बात कर रही थीं।’ उनकी दोस्त ने कहा।
पटियाला के अपने संपन्न घर से निकल कर वे पूर्ववर्ती बिहार, जो अब झारखंड है, की कोयला खदानों के मजदूरों के हक में आवाज बुलंद करने निकल पड़ीं। परंपरावादी पंजाब में आजादी के संघर्ष का दौर रहा हो या अब का हो, लड़कियों के अपनी मर्जी से शादी करने पर भौंहे चढ़ जाती हैं। रमणिका ने शादी अपनी मर्जी से की। वे सहज भाव से कहती हैं: ‘मैंने अपनी शादी का कार्ड अपने पिताजी को भेज दिया। लिखा कि वे शादी में शामिल होने के लिए स्वतंत्र हैं।’ यह कोई आसान काम नहीं। हालांकि अपने पति के साथ भी उन्होंने रास्ता अलग कर लिया। ‘मैंने समझौता करना नहीं सीखा। न ही कभी जरूरत महसूस की। जो मन में आया किया। किसी को पसंद हो या न हो।’ ऐसा ही कुछ कहना है रमणिका का।
वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रिय सदस्य हैं। दूसरी पार्टियों में भी रहीं। कांग्रेस में रहते हुए ही रमणिका ने कोयला खदानों के मजदूरों की लड़ाई लड़ी। खदानों के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर वे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केसी पंत से मिलीं। पंत ने उनकी बात सुनने के बाद मशविरा दिया कि ‘आप संजय से बात क्यों नहीं करतीं।’ रमणिका में इतनी हिम्मत थी कि इस सलाह को यह जानते हुए भी दरकिनार कर दें कि उस समय कांग्रेस के बाकी फैसले संजय गांधी करते थे। उन्होंने तब पंत से कहा: ‘संजय से क्यों?’ पंत ने जवाब में मुस्करा भर दिया।
रमणिका का साहस ऐसा है कि अगले ही दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने पहुंच गर्इं। पूरी बात सुनने के बाद इंदिरा गांधी, जिन्हें रमणिका ‘दीदी’ कहती थीं, ने भी उन्हें यही सलाह दी कि वे संजय से मिल लें। रमणिका में इतनी हिम्मत थी कि मुड़ कर इंदिरा गांधी से पूछ सकें: ‘संजय से क्यों? उनका इससे क्या ताल्लुक?’ गांधी ने तब उनसे कहा कि वे पंत से ही मिल लें। मजदूरों के हितों के लिए वे अखिर संजय गांधी से मिलीं, लेकिन उससे पहले अपना एतराज दर्ज कराने के बाद।
जाहिर है कि ऐसे तेवर के साथ किसी और पार्टी में तो रहा जा सकता है, पर कांग्रेस में नहीं। यही हुआ भी। ऐसी स्वतंत्रता उनको वामपंथ में ही हासिल हुई। महिलाओं की बराबरी के लिए महिलाओं की लड़ाई अनवरत है। रमणिका ने उस आजादी को एक नया आयाम दिया और वह था अभिव्यक्ति की समानता का। आखिर किसी भी बात को जितनी आसानी से कोई आदमी अभिव्यक्त कर सकता है, उसी तरह कोई औरत क्यों न करे। और अपने लेखन में उन्होंने यह किया भी। अपनी बात कहते हुए लफ्जों पर वैसा गौर नहीं किया जैसा पितृसत्तात्मक समाज में महिला होने के नाते किया जाता है। बात समाज की हो, महिलाओं की हो, आजादी की हो, मर्दानगी की हो, बराबरी की हो या फिर सेक्स की, रमणिका हर पहलू पर अपने बेलौस अंदाज में बात करती हैं।
‘अभी तो बहुत काम बाकी है’, उम्र के इस पड़ाव पर उनसे यह वाक्य सुन कर आप सहज ही उनके कायल हो जाते हैं। ‘मेरी लड़ाई आखरी दम तक है। किसी वंचित को उसका अधिकार दिला कर जैसी खुशी होती है, वैसी मुझे और किसी बात से नहीं।’ रमणिका किसी एक व्यक्ति विशेष का नाम नहीं। एक संस्था का नाम है, जो अपने बाल्यकाल से ही संघर्षरत है। इन दिनों वे आदिवासियों के हक के लिए संघर्षरत हैं। एक पत्रिका निकालती हैं- ‘युद्धरत आम आदमी’। उनके तेवर और हौसले को बस सलाम है।
रमणिका की खूबी यही है कि सोलह वर्ष की उम्र में उन्होंने जो संघर्ष शुरू किया, उसे अभी तक जिंदा रखा है। कैसी भी कामयाबी ने कभी उनको संपूर्णता का आभास नहीं होने दिया। यही वजह है कि एक सफलता के साथ ही वे अगले सफर पर, एक नई मंजिल के लिए निकल पड़ती हैं। जिंदगी जीने की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं हो। जिंदगी को जिया तो सदा अपनी शर्तों पर। और फिर खुद के इस एतराजजनक रवैए को गर्व से ही अपनाया। दूसरों के कहने से पहले ही खुद का नामकरण कर दिया। आपहुदरी!