पिछले दिनों हुए खुलासे ने हमें स्तब्ध ही नहीं कर दिया, हमारी सोच और समझ को थोड़ी देर के लिए जैसे ध्वस्त कर दिया है। शीना बोरा नाम की लड़की की तीन वर्ष पूर्व हुई हत्या का खुलासा जो दिल दहलाने वाली सच्चाई सामने लेकर आया है उसने हमें अपने विश्वासों पर पुनर्विचार करने के लिए अवश्य मजबूर कर दिया है। हालांकि अभी जांच चल रही है और तरह-तरह की सूचनाएं मीडिया में आ रही हैं, लेकिन इतना तो निश्चित है कि स्त्री-प्रश्न पर आज हम केवल लैंगिक पूर्वग्रह का नाम लेकर पल्ला नहीं झाड़ सकते।
औरत पर औरत द्वारा अत्याचार की बात भारतीय समाज में नई नहीं है। सास-बहू के बदनाम रिश्ते की गवाही हमारा साहित्य देता है। मलिक मोहम्मद जायसी की सुप्रसिद्ध रचना ‘पद्मावत’ में सिंघलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के सखियों के साथ मानसरोवर में स्नान का प्रसंग है, जहां सखियां पद्मावती को पिता के घर की थोड़े दिनों के लिए मिली स्नेहपूर्ण स्वतंत्रता का ध्यान दिलाते हुए कहती हैं कि दांपत्य जीवन इस तरह का नहीं है, वहां बंदिशें हैं, कष्ट हैं। कृष्ण काव्य तो नायिकाओं पर सास और ननद के पहरे और नायिका के उनसे बच कर निकलने के प्रसंगों से भरा पड़ा है।
इतना ही नहीं, लोक साहित्य में स्त्रियों के गीतों का केंद्रीय विषय इसी के इर्दगिर्द घूमता है। हमारे कवि स्त्रियों के प्रति होने वाली इस ज्यादती के प्रति जागरूक भी थे, अन्यथा अयोध्या में ब्याह कर आई हुई वधुओं को स्नेहपूर्वक आंखों की पलकों पर रखने की हिदायत तुलसीदास दशरथ के मुख से कौशल्या को क्यों दिलवाते? दूसरी ओर, जनमते ही कन्या की हत्या का इतिहास हमारे समाज में रहा है और आज तो विज्ञान के सहयोग से उसे जन्म से पहले ही मार देने की नृशंस मानसिकता से हम जूझ रहे हैं। माताओं द्वारा लड़के और लड़की में भेदभाव भी समाज का इतिहास रहा है और आज भी कहीं न कहीं मौजूद है।
मगर यह सब पितृ सत्तात्मक व्यवस्था की मानसिकता का परिणाम था। औरत पर पुरुष का अत्याचार रहा हो या स्त्री का, है वह समाज में पुरुष के वर्चस्व की देन, यह सभी जानते-महसूस करते रहे हैं। यह बात इससे सिद्ध होती है कि सभ्य-सुसंस्कृत वर्ग ने उसकी निरंतर भर्त्सना करना अपना दायित्व माना है। नवजागरण काल में तो उसके खिलाफ हर स्तर पर आवाज उठाई गई। शिक्षा प्रसार कार्यक्रम में स्त्री शिक्षा एक प्रमुख मुद्दा था, जिसका उद्देश्य महिलाओं का बौद्धिकसशक्तीकरण था। आजादी की लड़ाई के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों और दुष्प्रथाओं से मुक्ति के लिए संघर्ष घोषित लक्ष्य था। हमारा रचनाकार मध्यकाल में भी परिवार और समाज में स्त्री-सम्मान के लिए खड़ा था और आधुनिक काल में तो भारतेंदु से शुरू होकर मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, पंत, जैनेंद्र और जाने कितने नाम गिनाए जा सकते हैं।
लेकिन अब जो घटना हमें दिखाई-सुनाई दे रही है वह कल्पनातीत प्रतीत होती है। मां-बेटी के रिश्ते का यह रूप भी हो सकता है? मां बच्चे का संबंध खून का रिश्ता या बायोलॉजिकल रिश्ता है, जो समस्त प्राणिमात्र को प्रकृति से मिला है और वात्सल्य भाव सर्वत्र व्याप्त है। मन बुद्धि की मौजूदगी के कारण मनुष्य में इसकी व्यापकता और गहराई अतुलनीय है। वात्सल्य ही तो ऐसा भाव है, जो बिना कोई आदान पाए भीनिरंतर प्रवाहित रहता है। ऐसे में मां द्वारा बेटी की हत्या में शिरकत! यह असाधारणों में भी असाधारण घटना हमें अपनी मानसिक-बौद्धिक संपन्नता पर, आर्थिक-सामाजिक प्रगति पर, विकास पर, वैज्ञानिक सोच पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करती है।
परंपरागत भारतीय समाज पर निगाह डालते हैं तो संतान पर सख्ती और सुधार भी पिता के ही जिम्मे दिखाई देता है, मां तो दुलार की प्रतिमूर्ति मिलती है। पौराणिक कथा है कि शिव की भार्या सती जब अपने पिता दक्ष के घर बिना बुलाए पहुंचती हैं, तो सब उनका अपमान करते हैं। एक मां ही है, जो प्रेम से भेंटती है। सूरदास का ‘जसोदा कान्ह-कान्ह कहि बूझे’ पद संगीतज्ञों की जुबान पर चढ़ा रहा है। मानव सभ्यता के विकास के महाकाव्य ‘कामायनी’ में मनु के अहं प्रेरित पिता रूप के समकक्ष श्रद्धा का वात्सल्य भरा मातृत्व है- ‘मां फिर एक किलक दूरागत गूंज उठी कुटिया सूनी? मां उठ दौड़ी भरे हृदय से लेकर उत्कंठा दूनी’।
जीवन में हम देखते हैं कि गरीब मां अकेली होने पर भी हाड़तोड़ मेहनत कर बच्चों को पाल-पोस लेती है और उनके बड़े होने पर भी सहारा पाने से ज्यादा की उम्मीद नहीं करती। फिर हमारे संपन्न सुशिक्षित आधुनिक समाज को यह क्या हुआ? तमाम सुविधाओं के बावजूद वह अपनी संतान से इस तरह विमुख या दूर क्यों होता गया है।
औरत के औरत पर जुल्म का यह रूप हमें कई तरह से आत्मान्वेषण के लिए मजबूर करता है। शीना बोरा की मां इंद्राणी मुखर्जी आधुनिक समाज के उस वर्ग की है, जो न केवल आर्थिक-सामाजिक रूप से संपन्न और सम्मान प्राप्त है, बल्कि अपने पिछले जीवन में भी दबी-कुचली-कुंठित नहीं रही। साधारण मध्यवर्ग के पारंपरिक जीवन को अस्वीकार करते हुए तेजी से आगे बढ़ने की चाह को उसने हर कीमत पर पूरा किया है। ऐसे में स्त्री विमर्श के सामान्य मानदंडों से उसे वंचित-शोषित भी नहीं कहा जा सकता। उसके आक्रोश और हैवानियत के सामान्य कारण तो नहीं हो सकते।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इंद्राणी बचपन से ही आजाद खयालों की महत्त्वाकांक्षी लड़की रही है, जिसने अपना जीवन अपनी इच्छा से, अपने ढंग से जिया है। हर तरह की परंपरा या रूढ़ि को पीछे धकेलते हुए रास्ते में आई हर रुकावट को पार करती हुई वह सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ती रही है। ऐसे में जयशंकर प्रसाद के एक पात्र चाणक्य की उक्ति याद आती है- ‘महत्त्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में पलता है’। क्या सचमुच यही निष्ठुरता इंद्राणी में नहीं है!
अपने बच्चों की मां होने के सत्य को दसियों वर्ष तक छिपाए हुए, उन्हें उनके नाना-नानी की संतान सिद्ध किए रहना उसकी महत्त्वाकांक्षा-सिद्धि की ही एक युक्ति रही, जो लंबे समय तक कारगर रहने के बाद विफल होकर उसके अपने ही पैरों में जंजीर की तरह लिपट गई है। मातृत्व से अपने को दूर रखते हुए उसने बच्चों पर भी ज्यादती की, उन्हें दुलार की जगह केवल पैसा देकर सच को छिपाए रहने को मजबूर किया, जो वास्तव में उनके मौलिक अधिकार का हनन है।
रैडिकल व्यक्तित्व की यह गैर-रैडिकल परिणति क्या स्त्री मुक्ति के मौजूदा स्वरूप पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाती? हो सकता है, मनोविज्ञानविद इसके अवचेतन से जुड़े तथ्यों को खोजने के लिए गहन अनुसंधान करें। थ्रिलर लेखक इसमें अपनी विषय-वस्तु तलाशें या यह किसी हिट फिल्म की पटकथा बन जाए, लेकिन इतना तो निश्चित है कि इस तरह मातृत्व गौरव के अवमूल्यन के पीछे कहीं न कहीं हमारी मौजूदा होड़ की सभ्यता का पैशाचिक चेहरा मौजूद है, जो न केवल व्यक्ति को आत्मकेंद्रित बनाता है, बल्कि ‘मैं’ के साथ ‘अन्य’ की समकक्ष हैसियत को ही निगल जाता है।
पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष करने के अपने अधिकार के नाम पर, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की मांग पर यह स्त्री मनचाहे ढंग से जीवन जीती हुई, हर बाधा को पार करती हुई मीडिया कंपनी के सीइओ से वैवाहिक नाता जोड़ कर एक दिन खुद सीइओ बनने में कामयाब होती है। अपार धन-दौलत और शोहरत के पायदान पर खड़ी यह स्त्री साजिश कर एक अन्य स्त्री (वह भी अपनी बेटी) को जीने के अधिकार से ही वंचित कर देती है। यह तो पितृसत्ता पर स्त्री की विजय नहीं? बल्कि उसका औंधे मुंह गिरना है।
परिवर्तन की चाह और नए ढंग के आधुनिक समाज के निर्माण की झोंक में कहीं हमने परंपरा के मूल्यवान अंश को भी पैरों तले रौंद तो नहीं दिया है? गांव छूटे, कस्बे छूटे तो गली-मोहल्ले की संस्कृति की एक-दूसरे के जीवन में दखलंदाजी भी छूट गई।
परिणाम यह कि मान लिया कि हम कुछ भी करें हमारी प्राइवेसी में दखल देने वाले आप कौन? हमने लोकापवाद की परवाह को तो झटक कर फेंक दिया, मगर सही-गलत तय करने वाले भी हम खुद ही पूरी तरह अपनी मर्जी के मालिक बन बैठे। दूसरे लोग हमारे जीवन में तभी रह सकते हैं, जब वे हमारे लिए उपयोगी हों, नहीं तो आउट…। उपभोक्ता संस्कृति का यूज एंड थ्रो फार्मूला।
परिवार की संकल्पना व्यक्तियों के पारस्परिक जुड़ाव पर टिकी है। पर यह सजे-धजे आधुनिक सुख-सुविधा संपन्न एक घर में बदल गई है, जिसकी चारदीवारी में मनुष्यता कैद हो गई है। टूटते परिवारों, बदलते रिश्तों, नए बनते संबंधों के बीच खींचतान झेलते बच्चे, बिखरता समाज जैसे आधुनिक जीवन की पहचान बन गई है। प्रश्न है कि क्या इस संकट से उबरने का कोई रास्ता है?
भूमंडलीकरण, बाजारवाद की चकाचौंध भरी दुनिया में मनुष्य की मनुष्यता का क्षरण, जीवन मूल्यों का हनन हुआ है। रूढ़ियों से मुक्ति के नाम पर हम तीव्रगामी उपभोक्ता वस्तुओं के गुलाम हो गए हैं। उन्हें पाने और सुरक्षित रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। मगर विडंबना यह है कि एकनिष्ठ होकर किसी भी कीमत पर इस तरह की इज्जत, शोहरत और दौलत हासिल करने वालों को सामाजिक समर्थन मिलने लगा है। प्रश्न यह है कि क्या इस सभ्यता संकट से उबरने का कोई रास्ता है?
(रीतारानी पालीवाल)
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