धर्मेंद्रपाल सिंह
जरा राडिया टेप कांड को याद कीजिए, जिससे कई सनसनीखेज खुलासे हुए थे। जनता को भनक मिली थी कि बड़े-बड़े औद्योगिक घराने किस प्रकार सरकारी फैसलों को प्रभावित करते हैं, मंत्रियों और आला अफसरों की नियुक्ति में कैसे दखल देते हैं। इन टेपों में एक जगह देश के एक नामी उद्योगपति ने कांग्रेस की तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार को अपनी दुकान बताया था। पेट्रोलियम मंत्रालय और वित्त मंत्रालय से अति महत्त्वपूर्ण गोपनीय दस्तावेजों की चोरी का ताजा मामला प्रकाश में आने के बाद लगता है कि कांग्रेस नहीं, हर सरकार उद्योगपतियों की दुकान है। इन मामले में अब तक दर्जनों गिरफ्तारियां हो चुकी हैं और कई और लोग पुलिस के निशाने पर हैं।
यह भी पता चला है कि कागजात-चोरी दो मंत्रालयों तक सीमित नहीं है। कोयला, संचार, रक्षा, वित्त, वाणिज्य और ऊर्जा जैसे मंत्रालयों के गलियारों में कॉरपोरेट घरानों के दलालों की गहरी पकड़ है। दलालों की मार्फत चुनिंदा औद्योगिक घरानों को मंत्रालयों के हर फैसले की पक्की जानकारी पहले ही लग जाती थी। प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंचने से पहले संबंधित मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों की फाइल नोटिंग तक उनके पास होती थी। रायसीना हिल में अगर पत्ता भी खड़कता था तो उनके पास खबर पहुंच जाती थी। घोषणा से पहले जानकारी जुटा कर कंपनियां करोड़ों रुपए कमाती हैं।
इन मामलों में छनकर बाहर आ रहे तथ्यों से पता चलता है कि हमारे देश में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं। पुलिस के अनुसार, पेट्रोलियम मंत्रालय से हुई चोरी के मामले में गिरफ्तार आरोपियों से बरामद कागजात में प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव नृपेन मिश्र का पत्र और वित्तमंत्री अरुण जेटली के प्रस्तावित बजट भाषण का अंश भी शामिल है। साथ ही हाइड्रोकार्बन पर कैग रिपोर्ट, तेल मंत्रालय के खोज-प्रकोष्ठ के दस्तावेज और पेट्रोलियम योजना एवं विश्लेषण-प्रकोष्ठ की रिपोर्ट भी आरोपियों के पास से मिली हैं। सारे कागजात अति महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों से जुड़े हैं।
दिल्ली पुलिस ने पेट्रोलियम मंत्रालय से दस्तावेज-चोरी का भंडाफोड़ किया। कई लोग गिरफ्तार हुए जिनमें रिलायंस इंडस्ट्रीज, एस्सार ग्रुप, केयर्न्स इंडिया, अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप और जुबिलेंट एनर्जी जैसे मशहूर कॉरपोरेट घरानों के बड़े अफसर भी हैं। इन सभी कंपनियों का तेल, गैस और ऊर्जा क्षेत्र से गहरा हित जुड़ा है। दूसरे मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) ने दिल्ली और मुंबई में कई जगह छापे मार कर कॉरपोरेट समूहों को बेचे जाने वाले गोपनीय सरकारी दस्तावेज बरामद किए। वित्त और वाणिज्य मंत्रालयों के विदेशी निवेश के नीतिगत निर्णयों से जुड़े ये कागजात अति महत्त्वपूर्ण हैं। चार्टर्ड अकाउंटेंट (सीए) की मार्फत चल रहे इस रैकेट में कई नामी बैंकिंग, फार्मा और रियल्टी समूहों के नाम सामने आए हैं। इन समूहों ने विदेशी निवेश के लिए अर्जी दे रखी है। अभी तक एचडीएफसी, इंडस बैंक, ग्लेन मार्क फार्मा, डीएलएफ, प्राइम लिविंग के नाम का खुलासा हो चुका है और कई अन्य के शामिल होने के संकेत मिले हैं।
बात इतनी भर नहीं है। आज कुछ औद्योगिक घराने और कॉरपोरेट इतने ताकतवर हो चुके हैं कि अपने लाभ के लिए वे सरकारी नीतियां बदलवाने और गढ़वाने की हैसियत रखते हैं। भारत सरकार में उच्चपदों पर काम कर चुके कुछ नौकरशाह तो यह बात बेझिझक स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि कुछ मंत्रालयों के नीतिगत निर्णय नौकरशाहों के कमरों में नहीं, कॉरपोरेट घरानों के कॉन्फें्रस हॉल में तय होते हैं। ऊपर से मिले इशारे के चलते उन्हें ऐसे निर्णय ज्यों के त्यों स्वीकार करने पड़ते हैं। इससे कॉरपोरेट घरानों को अरबों रुपए का मुनाफा होता है। इस मुनाफे में शीर्ष सरकारी पदों पर बैठे शक्तिशाली लोगों का हिस्सा भी होता है जो उनके विदेशी बैंक-खातों में जमा हो जाता है। यह कुचक्र काले धन का महत्त्वपूर्ण स्रोत बन चुका है।
एक उदाहरण से इस बात को बेहतर समझा जा सकता है। डीजल के मूल्य में एक रुपए के अंतर से निजी पेट्रोलियम कंपनी को पांच से छह हजार करोड़ रुपए का घाटा या मुनाफा हो जाता है। प्राकृतिक गैस की कीमत अगर एक डॉलर बढ़ जाए तो उनकी कमाई में आठ से दस हजार करोड़ रुपए का छप्परफाड़ इजाफा हो जाता है। मूल्य निर्धारण का निर्णय सरकार करती है और ऐसे फैसलों को प्रभावित करने या घोषणा से पहले उनकी जानकारी जुटा लेने से प्राइवेट कंपनियों की बैलेंस शीट की सूरत बदल जाती है। कुछ उद्योग आसमान पर पहुंच जाते हैं और कुछ जमीन चाटने लगते हैं। सरकारी फैसलों से कंपनियों के शेयर भी ऊपर-नीचे होते हैं। पेट्रोलियम मंत्रालय से कागजात-चोरी के आरोप में जिस दिन रिलायंस इंडस्ट्रीज का अधिकारी गिरफ्तार हुआ उस दिन बाजार में कंपनी का शेयर तीन प्रतिशत गोता खा गया। मतलब यह कि इस एक गिरफ्तारी से रिलायंस को करोड़ों रुपए की चपत लगी।
प्राकृतिक गैस मूल्यवृद्धि का मुद्दा पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के दौरान खूब उछला था। आरोप लगा था कि रिलायंस समूह को पांच खरब रुपए का फायदा पहुंचाने के लिए ही सरकार ने गैस की कीमत दो गुना करने का निर्णय किया है। इस मुद््दे पर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल दोफाड़ हो गया था। भाकपा के सांसद गुरुदास दासगुप्त ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को कई पत्र लिख कर मूल्यवृद्धि का भारी विरोध किया था। जवाब न मिलने पर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने भी कांग्रेस और भाजपा को चिट्ठी लिख तीखे सवाल पूछे थे, जिनका जवाब आज तक नहीं मिला है।
एक और बात गौर करने लायक है। दिल्ली पुलिस और सीबीआइ ने अब तक छोटे सरकारी कर्मचारियों और दोयम दर्जे के कॉरपोरेट अफसरों को ही गिरफ्तार किया है। किसी कॉरपोरेट प्रमुख को पकड़ना क्या, उससे पूछताछ तक की जरूरत नहीं समझी गई है। यह बात तो सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी जानता है कि निजी कंपनी का कोई कर्मचारी गोपनीय सरकारी दस्तावेजों की चोरी अपने लिए नहीं करवाएगा।
जिस काम से कंपनी को करोड़ों का फायदा होता हो वह काम कर्मचारी मालिक के इशारे पर ही कर सकता है। फिर क्या कारण है कि पुलिस ने अब तक किसी बड़े कॉरपोरेट के खिलाफ मामला दर्ज करने या उसके प्रमुख को गिरफ्तार करने की जहमत नहीं उठाई है। उलटे सरकार के मंत्री कॉरपोरेट के बचाव में बयानबाजी कर रहे हैं। कह रहे हैं कि ऐसा कोई कदम न उठाया जाए जिससे निवेश पर विपरीत प्रभाव पड़े।
इस संदर्भ में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का गुजरात इंस्टीट्यूट आॅफ रूरल मैनेजमेंट (आणंद) में दिए भाषण का जिक्र जरूरी है। राजन के अनुसार भारतीय कॉरपोरेट जोखिम-मुक्त पूंजीवाद का पैरोकार है। वह मुनाफा तो कमाना चाहता है, लेकिन जोखिम का बोझ सरकार के सिर डालने की इच्छा रखता है। सरकार भी इस सोच को सहारा दे रही है, इसीलिए नया पीपीपी मॉडल बनाया गया है जिसमें रिस्क (जोखिम) का अधिकांश हिस्सा सरकार के माथे पड़ेगा। नए निजाम ने निवेश आकर्षित करने का जो मार्ग खोजा है उसकी कीमत आम जनता को चुकानी पड़ेगी।
दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों में ‘फिजिकल कैपिटल’ (जमीन, मशीन, पूंजी, पानी, बिजली आदि) बनाम ‘ह्यूमन कैपिटल’ (मानव श्रम, कुशलता, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) के मुद्दे पर लंबे समय से बहस चल रही है। इसी से ग्रोथ (विकास दर) बनाम डवलपमेंट (उन्नति) का विवाद भी जुड़ा है। कोरी ग्रोथ में विश्वास करने वाले लोग केवल निवेश और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को खुशहाली का पैमाना मानते हैं। इन पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया जाता है और इंसान की खुशहाली से जुड़े मुद्दे गौण हो जाते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, शुद्ध पेयजल जैसी मूलभूत इंसानी जरूरतों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया जाता है।
भले ही संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास सूचकांक को किसी देश की खुशहाली का पैमाना मंजूर किया हो, लेकिन जीडीपी का ढिंढोरा पीटने वाली जमात इस पर ध्यान देने को राजी नहीं है। उनके दर्शन में पूंजी सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है और पूंजी पर जिनका अधिकार है वे उसमें इजाफे के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं। सरकारी दफ्तरों से कागजात-चोरी के पीछे भी मुनाफा बढ़ना एकमात्र उद्देश्य है।
अमेरिका और यूरोपीय देशों में कॉरपोरेट गवर्नेन्स के कड़े मापदंड हैं। भ्रष्टाचार या गलत तरीके से लाभ उठाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए वहां कठोर दंड का प्रावधान भी है। हमने पश्चिम की बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का मॉडल तो अपना लिया लेकिन इससे उत्पन्न खतरों पर काबू पाने के लिए जरूरी कानून नहीं बनाए। भारत का भ्रष्टाचार निरोधक कानून तो मानो मजाक बन चुका है। इस कानून में पकड़े जाने वाले अधिकतर आरोपी बेदाग छूट जाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2013 में भ्रष्टाचार निरोधक कानून के अंतर्गत 34,241 मुकदमे दर्ज थे, जिनमें से महज 3,146 पर फैसला आया।
मतलब यह कि अदालतों ने मात्र 9.2 प्रतिशत मुकदमों पर निर्णय सुनाया। इनमें से मात्र तीस मामलों में दोषियों को दंड दिया गया। निष्कर्ष यही निकलता है कि अगर कोई प्रभावशाली व्यक्ति भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार हो जाए तो लंबी कानूनी लड़ाई में नामी वकीलों के भरोसे उसके छूट जाने की संभावना प्रबल होती है। डर है कि मंत्रालयों से दस्तावेज चोरी कांड के ताजा आरोपी भी सजा पाने से कहीं बच न जाएं?
पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़े मामले की जांच कर रही दिल्ली पुलिस के अनुसार चोरों के पास से बरामद सरकारी दस्तावेज वाणिज्यक हित ही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा से भी संबंधित हैं। अगर यह बात सच है तो इस मामले की जांच उच्चतम न्यायालय की निगरानी में कराई जानी चाहिए। जो लोग राष्ट्रीय सुरक्षा और सरकारी नीतियों से जुड़ी अति गोपनीय फाइल उड़ा सकते हैं, निश्चय ही उनके हाथ बहुत लंबे हैं। इतने लंबे कि वे मंत्री तक बदलवा सकते हैं। मनमोहन सरकार में मणिशंकर अय्यर और जयपाल रेड््डी को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटवाने में इन्हीं लोगों का हाथ था।
ऐसे प्रभावशाली लोगों को सजा दिलाने के लिए जांच का निष्पक्ष होना जरूरी है। यह काम अकेले दिल्ली पुलिस या सीबीआइ पर नहीं छोड़ा जा सकता। देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआइ की साख पर आए दिन अंगुली उठती है। घोटालों में लिप्त अनेक आरोपियों की सीबीआइ के पूर्व प्रमुख रंजीत सिन्हा के आवास पर आवाजाही का खुलासा होने के बाद इस एजेंसी की रही-सही इज्जत मिट््टी में मिल चुकी है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ही एकमात्र विकल्प बचता है। उसकी निगरानी में जांच होने पर ही सच्चाई की तह तक पहुंच कर अपराधियों को सजा दिलाना संभव है। साथ ही औद्योगिक घरानों की गैर-कानूनी हरकतों पर अंकुश लगाने के लिए संसद को तुरंत एक कड़ा कानून बनाना चाहिए।
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