मणींद्र नाथ ठाकुर

जिस जनतंत्र में इंसान की गिनती ही महत्त्वपूर्ण है वहां ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, संस्कृति सबकुछ चुनावी गणित का हिस्सा हो जाता है। गणित की खास बात है कि उसमें संख्या ही महत्त्वपूर्ण है, भावनाएं नहीं। योग के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। सरकार ने जिस तरह योग का प्रचार-प्रसार शुरू किया है उससे समझ नहीं आ रहा है कि योग दर्शन है या राजनीति का एक माध्यम?

एक स्तर पर तो यह माना जा सकता है कि भारत को अपनी इस महत्त्वपूर्ण ज्ञान परंपरा से दुनिया भर के लोगों को अवगत करना चाहिए ताकि इससे सभी लाभान्वित हो सकें। इस बात से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए कि संसार के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले मनुष्यों ने अपने शरीर, प्रकृति और समाज के बारे में महत्त्वपूर्ण ज्ञान अर्जित किया है। इससे कई ज्ञान परंपराएं बनी हैं। ज्ञान परंपरा कहने का मतलब है कि उनकी तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और तर्क प्रणालियां अपनी हैं और इन परंपराओं में बहुलता भी हो सकती है, रही है।

इस बात को भी मानने में कोई उज्र नहीं होना चाहिए कि धर्म केवल आस्था नहीं है बल्कि इन ज्ञान परंपराओं का भी आश्रय स्थल है। अब सवाल है, अलग-अलग धर्मों का, उनकी ज्ञान परंपराओं का आपसी संबंध क्या हो, या फिर आज का मनुष्य, जिसके पास सूचना प्राप्त करने की अपार क्षमता है, उनका उपयोग कैसे करे। इसका सीधा उत्तर तो यही हो सकता है कि अपनी समस्या के समाधान के लिए उन्हें जहां से भी हो सके, पारंपरिक ज्ञान का भी उपयोग करना चाहिए। दर्द की दवा जहां से भी मिले, असल बात दर्द से निजात या राहत पाना है और यह ध्यान रखना है कि दवा किसी और मर्ज को न बढ़ा दे।

इस दृष्टिकोण से तो यही लगता है कि योग एक दर्शन है जिसका महत्त्व तभी है जब उसे सांख्य दर्शन के साथ मिला कर अध्ययन या अभ्यास किया जाए। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन दर्शनों का ध्येय किसी देवता को नमस्कार करना है ही नहीं। अपने उद्देश्य को इन दर्शनों ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया है कि इनके अभ्यास से मनुष्य को दैहिक, भौतिक और दैविक ताप से मुक्ति मिलेगी। दैविक का मतलब यहां देवता से नहीं, केवल अदृश्य कारणों से है, जिसका ज्ञान मनुष्य को किसी खास समय में नहीं भी हो सकता है।

सांख्य दर्शन का मानना है कि मनुष्य अगर अपनी चेतना के बारे में सचेत हो जाए और उसके विभिन्न स्तरों पर जा सके तो अपने शरीर, मन और संसार की गतियों को बेहतर समझ सकता है। और यह समझ अगर गहरी हो जाए तो उसे अपने दुख के कारणों को समझने में सहायता मिलती है और उन कारणों को ठीक से समझ ले तो उन्हें दूर करना आसान हो जाता है। योग का महत्त्व यह है कि मन और चेतना की इस साधना के लिए शरीर को साधना जरूरी है अन्यथा चेतना हमेशा शरीर के स्तर पर ही रह जाएगी। यम, नियम आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि; योग के ये आठ अंग हैं। आसन उसका एक छोटा-सा हिस्सा है। यह पारंपरिक अर्थों में एक तरह का विज्ञान है।

विज्ञान और तकनीकी की जो अगली क्रांति होने वाली है उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ओबामा ने घोषणा की है कि आने वाले समय में अमेरिकी पूंजी को ‘ब्रेन इनिशिएटिव’ पर खर्च करना चाहिए ताकि चीन और भारत से पहले हम इस क्षेत्र में आगे जा सकें। कई प्रयासों में एक यह भी है कि न्यूरो साइंटिस्ट, योगी, बौद्ध भिक्षु और दार्शनिकों के कई शोध-दल बनाए गए हैं; मन और बुद्धि के क्षेत्र में शोध पर काफी पैसा लगाया जा रहा है।
आज की दुनिया में जो जीवन शैली से जुड़ी बीमारियां और मनोरोग हैं उनके इलाज के लिए इस तरह के प्रयासों की अहमियत काफी आंका जा रही है। ऐसे में अगर आम लोगों को योग की शिक्षा दी जाए, तो इसमें किसे एतराज होना चाहिए!

यह बात भी मानी जा सकती है कि योग-ज्ञान का उदय भारत में हुआ है। इस बात की मान्यता दुनिया भर में होनी चाहिए। बौद्धिक संपदा पर कब्जे के इस युग में इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह के प्रयासों का आर्थिक लाभ भी हो सकता है। कुछ अमेरिकी छात्रों से, जो योग के विषय में पढ़ रहे थे, मुझे ज्ञात हुआ कि वहां जो लोग योग से अपना अर्थोपार्जन करते हैं उन्हें यह भी नहीं पता कि इसका संबंध किसी दर्शन से है या फिर भारत से है। एक छात्र की मां वर्षों से अपने परिवार की जीविका इसी से चलाती रही है, बिना यह सबकुछ जाने। अगर उन्हें दर्शन का भी ज्ञान होता तो शायद अभ्यासियों के लिए भी बेहतर होता।

यह मानना भी अनुचित नहीं होगा कि आज ‘सॉफ्ट पॉवर’ का जमाना है। दुनिया भर के देश इस क्षेत्र में प्रयासरत हैं। कहते हैं कि जिस देश में मेक्डोनाल्ड का सुनहरे रंग में लिखा एम दिख जाए वहां अमेरिका का वर्चस्व होता है। यह बात मुझे कुछ अमेरिकी छात्रों ने बताई। इस सॉफ्ट पॉवर के जमाने में भारत के पास क्या स्रोत हैं जिनका उपयोग कर दुनिया भर में भारत की छवि बदली जा सकती है। और इस बात से कोई भी सहमत होगा कि सॉफ्ट पॉवर का सीधा संबंध आर्थिक संबंधों से भी है।

इससे कौन इनकार कर सकता है कि भारत के पास कई अन्य बौद्धिक और सांस्कृतिक संपदाओं के सॉफ्ट पॉवर के रूप में उपयोग में लाए जाने के लिए योग सर्वथा उपयोगी है। भारत के पास न केवल इसका विकसित दर्शन है बल्कि बड़े पैमाने पर मानव संसाधन भी है और दुनिया भर में योग सिखाने के लिए इसका उपयोग हो सकता है। जहां भी योग के लिए आश्रम हैं, विदेशी अभ्यासियों की संख्या देख कर लगता है कि कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के बाद योग एक बड़ा माध्यम हो सकता है अर्थोपार्जन के लिए।

इतना सबकुछ मान लेने के बाद भी एक सवाल रहता है कि क्या योग को प्रचारित करने के लिए राज्य या सरकार को कोई सर्कुलर जारी करना चाहिए। इस बात पर सहमति बनना मुश्किल है। भारत की राजनीतिक संस्कृति में ऐसे क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप सराहनीय नहीं रहा है। अगर सरकार लोगों के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है तो स्वास्थ्य व्यवस्था को ठीक करने का प्रयास करे। जब से भूमंडलीकरण और उदारीकरण का भूत राज्य पर सवार हुआ है, सार्वजनिक स्वास्थ्य-व्यवस्था चरमरा गई है। जिस तरह दवाएं और महंगी हो रही हैं, निजी अस्पतालों का बोलबाला हो रहा है उससे यह तो नहीं लगता कि सरकार जनता के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है। लिहाजा, ऐसा लगता कि योग का इतना हंगामा एक तरह की राजनीतिक चाल है।

इस राजनीतिक चाल का मकसद क्या हो सकता है? एक तो यह हो सकता है कि जो लोग समझते हैं कि भारतीय संस्कृति को पिछले हजार वर्षों से कभी मुसलिम शासन ने, कभी आधुनिकता का आड़ में ईसाई सत्ता ने दबाया, उसे हाशिये पर खड़ा कर दिया, भाजपा उस सम्मान को वापस लाने का प्रयास कर रही है, यह जान कर उनके मन को सुकून मिले। क्योंकि वे पारंपरिक तौर पर भाजपा के समर्थक रहे हैं उनके लिए ऐसा किया जाना जरूरी है। इनमें से बहुत-से लोगों को मुसलिम या ईसाई समुदाय से कोई रंजिश नहीं भी हो सकती है। ऐसे लोगों से ज्यादा समस्या नहीं है। लेकिन भाजपा के समर्थकों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जिनके मन में मुसलमानों के प्रति रंजिश है और उनकी मानसिकता मुसलमानों को सबक सिखाने की है।

खतरा यह है कहीं योग का दुरुपयोग भाजपा अपने ऐसे समर्थकों की तसल्ली के लिए तो नहीं कर रही है। अगर ऐसा है तो समस्या गंभीर है। ज्यादातर हिंदू देश में अमन ही चाहते हैं। भाजपा की यह चाल उन अमनपसंद हिंदुओं को यह समझाने की भी हो सकती है कि मुसलमान तो होते ही ऐसे हैं। यह करना संभव है जब किसी ऐसे मुद्दे को सामने रखा जाए जिस पर हिंदुओं में आम सहमति है कि उसका हिंदू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। और फिर मुसलमान उसका विरोध करते हैं तो इस बात को प्रमाणित करना आसान होगा कि मुसलमानों का किसी और संस्कृति के साथ मिल कर रहना मुश्किल है; भारत में फिर से एक पाकिस्तान पल रहा है। जिस तरह हिंदुओं में एक छोटा-सा तबका है जो हिंदू राष्ट्र की कल्पना करता है, मुसलमानों में भी एक छोटा-सा तबका एक और पाकिस्तान की कल्पना कर भी सकता है।

इस तरह के विवादों से ऐसे दोनों फिरकापरस्त लोग खुश होंगे और इसका चुनावी लाभ लेने के चक्कर में लगे होंगे। इसलिए उन मुसलमानों और हिंदुओं को जो अमनपसंद हैं, साथ मिल कर इनका मुकाबला करना होगा। गौर करने की बात है कि भारतीय ज्ञान परंपराओं से अरब संसार का हमेशा से गहरा ताल्लुक रहा है। किसी समाज की ज्ञान संबंधी उपलब्धि को धर्म से जोड़ कर देखने की परंपरा अरब जगत में कभी नहीं रही है। भारत से पंचतंत्र के किस्सों के अरब में पहुंचने की कहानी तो सबको मालूम है, शायद यह भी मालूम हो कि सदियों से वहां इस पुस्तक को राजनीति की शिक्षा देने के लिए उपयोग में लाया गया है और मजे की बात यह है कि उसे उसी रूप में रखा गया है। उसका स्वरूप बदल कर उसके अपने होने का दावा नहीं किया गया। यह तो एक उदाहरण है।

ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। ज्ञान परंपराएं बनी हैं मानव कल्याण के लिए, उन्हें धर्म से बांध कर देखना आधुनिकता की समस्या है। आधुनिक राज्य इसका उपयोग समुदायों को बांटने के लिए करता है और अभी योग का भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। इससे योग-विज्ञान का अहित ही होगा। मुंगेर के योग संस्थान और रामदेव के पतंजलि योग संस्थान का अंतर यह है कि पहले में योग विज्ञान है और दूसरे में यह राजनीति है। मुंगेर का यह संस्थान दुनिया भर में लोकप्रिय है, उससे किसी संप्रदाय को कोई समस्या भी नहीं है। अगर सरकार उन्हें योग-शिक्षा के लिए आगे लाती तो शायद वैसी नाराजगी नहीं होती जैसी रामदेव के आने से होती है, क्योंकि रामदेव का योग विज्ञान कम और राजनीति ज्यादा है। इसलिए सरकार की मंशा भी शक के दायरे में है।

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