हाल में चीन में कुछ कंपनियों ने अपनी महिला कर्मचारियों को आम छुट्टियों से अलग आठ दिन के अवकाश की व्यवस्था की। यह छुट्टी विशेष रूप से उन महिलाओं को दी गई जो अकेली हों और जिनकी उम्र तीस के आसपास हो। ‘डेटिंग लीव’ या ‘लव लीव’ कहे जा रहे इस अवकाश के पीछे तर्क दिया गया कि वे महिलाएं इन छुट्टियों का उपयोग अपने प्यार की तलाश के लिए कर सकें और शादी करके परिवार बसा सकें। चीन में अकेली महिलाओं को दी गई इन छुट्टियों के पीछे एक और बड़ी वजह है। असल में वहां उम्र के इस पड़ाव यानी तीस साल के आसपास पहुंच गई अविवाहित अकेली महिलाओं को वहां का समाज अच्छी नजर से नहीं देखता। ऐसी महिलाओं को वहां एक अपमानजनक शब्द ‘शेंग नु’ से संबोधित किया जाता है, जिसका अर्थ है विवाह होने से ‘छूट गई महिलाएं’।
हालांकि ऐसी अकेली महिलाओं के विवाह में कोई बड़ी बाधा इसलिए नहीं आती कि वे किसी मामले में कमतर हैं। लेकिन दुनिया के अन्य समाजों की तरह चीन में भी एकल या ‘सिंगल’ रहने का चलन तेजी से बढ़ रहा है। खासतौर पर महिलाएं शादी को अपने कॅरियर और तरक्की की राह में बाधा मानती हैं। ऐसे में एक उम्र तक वे विवाह से दूरी बना कर रखती हैं। लेकिन जब तक वे किसी मुकाम तक पहुंचती हैं, तब तक उनके विवाह की उम्र निकल जाती है और ऐसी महिलाओं के सामने अकेले रह जाने का खतरा पैदा हो जाता है। इधर कुछ समय से चीन में जनसंख्या दर में गिरावट भी दर्ज की जा रही है। इसलिए वहां की सरकार चाहती है कि महिलाएं एकल जीवन को तरजीह देने की बजाय शादी करें और परिवार बसाएं।
दरअसल, मामला अकेले चीन का नहीं है। अब पूरी दुनिया में ही एकल जीवन यानी ‘सोलो लाइफ’ किसी व्याधि की तरह नहीं देखा जाता। इसके उलट स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर कई स्त्रियों को अकेलापन युवावस्था में रोमांच का अहसास तक कराता है। नौकरी करके अच्छा वेतन पा रही या किसी क्षेत्र में कामयाब कई कुंवारी लड़कियां अकेलेपन को एक उपलब्धि के तौर पर लेती हैं। चीन में यह चलन एक दशक से ज्यादा समय से है। वहां पढ़ी-लिखी और स्वतंत्र सोच वाली युवा महिलाएं खुद को अकेला रखते हुए खुश बताती हैं।
हमारे देश में भी कॅरियर में एक मुकाम बना लेने वाली लड़कियां अब यह फिक्र छोड़ने लगी हैं कि जिंदगी काटने के लिए उन्हें किसी स्थायी सहारे की जरूरत हो सकती है। पर कोई तो बात है जो पिछले वर्ष 2018 में ब्रिटेन जैसे खुले मुल्क को अकेलापन मंत्रालय (लोनलीनेस मिनिस्ट्री) बनाना पड़ गया। यह मंत्रालय अकेलेपन से जूझ रहे लोगों की दिक्कतों का आकलन कर उनकी मदद करेगा। पिछले साल ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने इस मंत्रालय का ऐलान करते हुए कहा था कि अकेलापन हमारे आधुनिक जीवन की दुखद वास्तविकता है। जो लोग अपनों को खो चुके हैं और वे जिनके पास बात करने को कोई नहीं हैं, ऐसे लोगों को अपने मन की बात कहने-सुनने के मौके मिलेंगे तो शायद वे कई मानसिक दिक्कतों से बचते हुए लंबा जीवन जीएं।
गौर करने वाली बात यह है कि अकेलेपन को जिन संदर्भों में किसी समस्या से जोड़ा जाता है, वहां यह बात पुरुषों की बजाय स्त्रियों के संबंध में ज्यादा संबोधित की जाती है। नेशनल सैंपल सर्वे के 2004 के आंकड़ों के मुताबिक देश में 12.3 लाख पुरुष और 36.8 लाख महिलाएं अकेलेपन की समस्याओं से पीड़ित हैं। हालांकि एकल महिलाओं की संख्या काफी ज्यादा है। इनमें विधवा, अविवाहित, तलाकशुदा और पति से अलग रहने वाली महिलाएं भी शामिल हैं। इसके अलावा, 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल महिला आबादी का बारह फीसद (करीब 7.3 करोड़) एकल महिलाएं हैं। बदलते सामाजिक, आर्थिक हालात में इस तबके का आकार काफी तेजी से बढ़ा है। विकसित देशों में यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है। अमेरिका में ऐसी महिलाओं की संख्या 2009 में ही विवाहित महिलाओं से आगे निकल गई। सवाल है कि क्या ऐसी सभी एकल महिलाएं आराम की जिंदगी जी पाएंगी?
यह सवाल ब्रिटेन के साथ भारत को भी परेशान करने वाला है। खासतौर पर महिलाओं के संदर्भ में, क्योंकि परिवार से बाहर अकेले रह रही महिलाओं को आर्थिक समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है और उन्हें हर वक्त असुरक्षा का बोध भी सताता है। ऐसे में अकेलापन उपलब्धि से ज्यादा अभी तो समस्या ही लग रहा है। हमारे देश में बीस साल से ऊपर की 5.3 करोड़ महिलाओं (2011 की जनगणना के मुताबिक) में से अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा और परित्यक्त महिलाओं की इक्कीस प्रतिशत आबादी का एक बड़ा सच यह है कि 2001 से 2011 के बीच महिलाओं में अकेलेपन की समस्या ज्यादा तेजी से बढ़ी है।
इन आंकड़ों में निहित एक सच यह है कि उच्च शिक्षा और कॅरियर के अलावा अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने और आर्थिक आजादी सुनिश्चित करने का बढ़ता प्रचलन हमारे देश में स्त्रियों को विवाह में देरी करने और शादी से अलग हो जाने को प्रेरित कर रहा है, पर समाजशास्त्रियों की नजर में यह एक बड़ी चिंता की बात है।
भारत में अभी पढ़ी-लिखी, बुद्धिमान, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र सोच वाली अकेली युवा महिलाओं को लेकर अहम चिंता यह है कि उनके प्रति हमारा समाज एक खास मानसिकता दिखा रहा है। सबसे ज्यादा समस्या उन महिलाओं को लेकर है जो कॅरियर में तो सफल हो गई हैं पर उन्हें उपयुक्त जीवनसाथी मिलने में उनकी सफलता ही अहम बाधा बनती है। इसके पीछे यह सामाजिक मनोग्रंथि काम कर रही है कि स्त्री अगर सुंदर है तो कॅरियर और अच्छी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन नौकरी कर रही पढ़ी-लिखी स्त्री को लेकर यह मानदंड तो हमारे समाज में बना ही हुआ है कि उसका ओहदा पति से कम होना चाहिए। वजह- ऐसी स्त्री पुरुष से थोड़ा दबकर रहेगी।
अभी ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जब शिक्षा और कॅरियर में एकदम समान जोड़े विवाह करते हों। यों हमारे समाज में आई जागरूकता का एक परिणाम यह हुआ है कि महिलाएं अच्छी डिग्री हासिल करके अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन के बल पर नौकरियों में ऊंचे ओहदे पाने लगी हैं। उनकी सफलता गौरव का विषय है, लेकिन यह बात उनके विवाह में अड़चन भी डालती है। एक उम्र में जाकर ऐसी महिलाओं लगता है कि न तो कोई शख्स उनके सुख-दुख में साझी होता है और न ही उनकी उपलब्धियों की ईमानदार सराहना या आलोचना करता है। जीवन में आई एकरसता और नीरवता से परेशान होना स्वाभाविक है।
2013 में स्वीडन में किए गए एक अध्ययन में यह सामने आया था कि अकेली महिलाओं में मानसिक तनाव पैदा हो रहा है और उनमें भूलने की बीमारी के लक्षण पैदा हो रहे हैं। अवसाद और तनाव से जुड़े हारमोन मनुष्य के शरीर पर सीधा असर डालते हैं। अच्छी नौकरी या अच्छे पद और वेतन की तलाश में पारिवारिक जीवन देर से शुरू करने की उनकी कोशिश कई बार अकेले रह जाने की विडंबना में भी बदल जाती है। ऐसे में हालात ये भी बन जाते हैं कि उन महिलाओं का खुद का परिवार साथ नहीं देता, क्योंकि माता-पिता को लगता है कि उनकी बेटी ने कॅरियर बनाने के लिए उनके लाए विवाह संबंधी प्रस्तावों की अनदेखी करके गलती की है।
एक सामाजिक परिपाटी के रूप में अकेलापन तभी स्वीकार्य हो सकता है जब महिलाओं के पास जीवन व्यतीत करने लायक पर्याप्त धन हो, उन्हें हर स्तर पर सामाजिक सुरक्षा हासिल हो, उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला माहौल हो और उनके अकेलेपन को सामाजिक स्वीकार्यता भी हासिल हो। पर समस्या यह है कि आधुनिकता और तरक्की के बावजूद भारतीय समाज में ये चीजें एक साथ उपलब्ध नहीं हैं।