योगेश कुमार गोयल
तीन दिन पहले सीमांचल एक्सप्रेस हादसे में सात से ज्यादा यात्रियों की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए। हादसे के समय ट्रेन पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी। प्रारंभिक जांच में इस रेल हादसे का प्रमुख कारण पटरी टूटी होना बताया गया। इस हादसे के ठीक दो दिन पहले यानी एक फरवरी को जयपुर के पास जबलपुर से अजमेर जा रही ट्रेन भी पटरी से उतर गई थी। लेकिन तब ट्रेन की रफ्तार काफी कम थी, इसलिए बड़ा हादसा टल गया। पटरी से ट्रेनों का उतरना अब कोई नई बात रह गई है। शायद ही कोई महीना गुजरता हो जब ऐसे हादसे न होते हों। जब भी कोई रेल हादसा होता है तो भविष्य में ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का रटा-रटाया जवाब सुनाई देने लगता है। लेकिन चंद दिनों बाद जब फिर कोई बड़ा रेल हादसा सामने आता है तो रेलवे के पिछले दावों की कलई खुल जाती है। ऐसे रेल हादसों के बाद प्राय: जांच के नाम पर कुछ रेल कर्मचारियों और अधिकारियों पर गाज गिरती है, लेकिन समूचा रेल तंत्र उसी पुराने ढर्रे पर रेंगता रहता है और इसीलिए हादसे थमने का नाम नहीं लेते।
हर रेल हादसे के बाद उसके कारणों को लेकर तरह-तरह की बातें कही-सुनी जाती हैं। कभी रेलकर्मियों की लापरवाही की बात सामने आती है तो कभी कहा जाता है कि बाहरी ताकतों ने इसे अंजाम दिया। हर दुर्घटना के बाद जांच के आदेश दिए जाते हैं और जांच के लिए उच्च स्तरीय समिति बनाई जाती है। लेकिन समिति की रिपोर्ट फाइलों में दब कर रह जाती है। यही कारण है कि किसी भी हादसे में कभी पता तक नहीं चलता कि दोषी कौन था? ऐसे में चंद अफसरों या कर्मियों पर कार्रवाई करने से हालात बदलने वाले नहीं हैं, बल्कि रेल मंत्रालय को उन मूल कारणों का उपचार करना होगा, जिनकी वजह से इस तरह के हादसे सामने आते रहते हैं। रेल दुर्घटनाओं के मामले में भारतीय रेलों की क्या दशा है, इसका अनुमान रेल मंत्रालय के ही इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में साढ़े तीन सौ से भी अधिक छोटे-बड़े हादसे हो चुके हैं। 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2014-15 में जहां एक सौ पैंतीस रेल हादसे हुए, वहीं 2015-16 में एक सौ सात और 2016-17 में एक सौ चार रेल हादसे सामने आए।
तत्कालीन रेलमंत्री ने संसद में बताया था कि 2012 से 2017 के बीच पांच वर्षों में देश में पांच सौ छियासी रेल हादसे हुए, जिनमें तीन सौ आठ बार ट्रेनें पटरी से उतरीं और उन हादसों में एक हजार ग्यारह लोग मारे गए। इनमें पटरी से उतरने वाली ट्रेनों ने ही साढ़े तीन सौ जानें ले लीं। रेलवे सुरक्षा और यात्री सुरक्षा से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया गया था कि रेल हादसों की बड़ी वजह रेलवे स्टाफ की नाकामी, सड़क पर चलने वाली गाड़ियां, मशीनों की खराबी और तोड़-फोड़ रही। 2014-15 के एक सौ पैंतीस रेल हादसों में साठ, 2015-16 में हुए एक सौ सात हादसों में पचपन और 2016-17 में पिच्यासी में से छप्पन दुर्घटनाएं रेलवे कर्मचारियों की नाकामी या लापरवाही के चलते हुईं।
हालांकि 2016-17 के रेल बजट में रेल दुर्घटनाएं रोकने के लिए ‘मिशन जीरो एक्सीडेंट’ नामक एक विशेष अभियान शुरू करने की घोषणा की गई थी। इसके बाद रेल दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए त्वरित पटरी नवीनीकरण, अल्ट्रासोनिक रेल पहचान प्रणाली और प्राथमिकता के आधार पर मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग खत्म किए जाने जैसे विभिन्न सुरक्षा उपायों पर काम भी चल रहा है, लेकिन अभी तीव्र गति से बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 2016-17 के दौरान एक हजार पांच सौ तीन मानव रहित क्रॉसिंग खत्म की गर्ईं जबकि चार सौ चौरासी मानव युक्त फाटकों को पुल या भूमिगत रास्ता बना कर खत्म किया गया। अगर इन सब उपायों के बावजूद रेल हादसों पर लगाम नहीं लग रही है तो इसके कारणों पर चर्चा करना बेहद जरूरी है।
सवाल है कि रेल मंत्रालय वाकई रेलों की दशा सुधारने के लिए कृतसंकल्प है और इस दिशा में गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं तो रेल दुर्घटनाएं क्यों नहीं रुक रही हैं? रेल दुर्घटनाओं पर लगाम न लग पाने का एक बहुत बड़ा कारण है रेल पटरियों की जर्जर हालत, जिन पर सरपट दौड़ती रेलें कब किस जगह बड़े हादसे का शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है। एक तरफ जहां पुरानी पड़ चुकी जर्जर पटरियों पर आधुनिक ट्रेनें सरपट दौड़ रही हैं, वहीं देशभर में लगभग सभी स्थानों पर पटरियां अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ ढो रही हैं। भारतीय रेलवे के कुल एक हजार दो सौ उन्नीस रेलखंडों में से करीब चालीस फीसद पर ट्रेनों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। एक रिपोर्ट के मुताबकि दो सौ सैंतालीस रेल खंडों में से करीब पैंसठ फीसद तो अपनी क्षमता से सौ फीसद से भी अधिक बोझ ढोने को मजबूर हैं। कुछ रेल खंडों में पटरियों की कुल क्षमता से दो सौ बीस फीसद तक ज्यादा ट्रेनों को चलाया जा रहा है। इस वजह से भी अनेक हादसे हो रहे हैं और रेल तंत्र इस आंखें मूंदे है।
भारतीय रेल तंत्र दुनिया का सबसे बड़े रेलवे तंत्र है। भारतीय रेलों में प्रतिदिन सवा करोड़ से ज्यादा लोग यात्रा करते हैं। लेकिन यात्रियों के बढ़ते बोझ के बावजूद पटरियों को उतना नहीं बढ़ाया गया, जितनी आवश्यकता थी। रेलवे की स्थायी समिति ने अपनी सुरक्षा रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि वर्ष 1950 से 2016 के बीच दैनिक रेल यात्रियों में जहां एक हजार तीन सौ चवालीस फीसद की वृद्धि हुई है, वहीं माल ढुलाई एक हजार छह सौ बयालीस फीसद तक बढ़ गई है। लेकिन इसके विपरीत रेल पटरियों का विस्तार महज तेईस फीसद हो सका है। वर्ष 2000 से 2016 के बीच दैनिक यात्री ट्रेनों की संख्या में भी करीब तेईस फीसद की बढ़ोतरी हुई है।
स्पष्ट है कि रेल पटरियों पर बीते दशकों में कई गुना बोझ बढ़ा है। मालगाड़ियों की बात करें तो अधिकांश मालगाड़ियां भी पटरियों पर क्षमता से कहीं अधिक भार लिए दौड़ रही हैं। रेल नियमावली के अनुसार मौजूदा ट्रैक पर चार हजार आठ सौ से पांच हजार टन भार की मालगाड़ियां ही चलाई जा सकती हैं। लेकिन पिछले कई वर्षों से सभी पटरियों पर इससे ज्यादा भार लेकर मालगाड़ियां दौड़ रही हैं। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की एक रिपोर्ट में निर्धारित भार से कई गुना ज्यादा लेकर चलने वाली मालगाड़ियों के परिचालन पर आपत्ति जताते हुए उन पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था। लेकिन कमाई के फेर में रेलवे ने कैग के इस महत्त्वपूर्ण सुझाव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया।
भारत में जितने ज्यादा रेल हादसे होते हैं वे रेलवे की हालत को बताने के लिए काफी हैं। रेलों की लेटलतीफी कोई नहीं बात नहीं है। कुछ ट्रेनें तो चौबीस-छत्तीस घंटे तक की देरी से रेंगती रहती हैं और पिछले साल के आंकड़ें देखें तो उसमें औसतन पच्चीस ट्रेनें प्रतिदिन रद्द हुर्इं। रेलों में डकैती, लूटपाट और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं से रेल यात्रियों की सुरक्षा पर भी गंभीर सवाल उठते रहे हैं। यह विडंबना ही है कि इक्कीसवीं सदी में तमाम अत्याधुनिक तकनीकों के बावजूद हम रेल हादसों को रोकने में सफल नहीं हो पा रहे हैं और हर साल सैकड़ों लोग इन हादसों में मारे जाते हैं। बेहतर होगा, रेलवे तंत्र यात्रा को सुरक्षित बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए।