सुविज्ञा जैन
पूरी दुनिया महामारी की मार से कराह रही है। धनवान देश भी इस आपदा से निपटने में ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। भारत एक साल की तबाही के बावजूद अभी भी गंभीर संकट में है। नई बात यह कि स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से गरीब और अमीर दोनों ही परेशान हैं। अमीरों की धन-संपत्ति भी धरी की धरी रही जा रही है। ये हालात हमें अपनी बुनियादी जरूरतों के बारे में फिर से सोचने पर मजबूर कर रहे हैं। यानी हम अपनी प्राथमिकताओं को फिर से तय करें। महामारी से पहले वाले युग में आर्थिक और सामाजिक उपलब्धियां प्राथमिकता की सूची में सबसे ऊपर हुआ करती थीं। लेकिन अब पहला लक्ष्य जिंदा बचे रहना ही बनता जा रहा है।

दुनिया में कहीं की भी हो और कैसी भी सरकार हो, उसका घोषित लक्ष्य अपने नागरिकों के लिए न्यूनतम जरूरतों का प्रबंध करना ही होता है। लेकिन इस महामारी में तो सबकी जान पर बन आई। दुनियाभर की सरकारें अपने नागरिकों की जिंदगी बचाने में जूझती रहीं। महामारी ने जिस कदर डराया और अभी भी डरा रही है, उसके बाद तो पूरी दुनिया को समझ आ चुका होगा कि जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य और सबसे बड़ी सफलता जीवन को सुरक्षित रखना ही है। यानी आगे से अब हमें जीवन को ही सफलता का पर्याय मान कर चलना पड़ेगा। व्यक्तिगत स्तर पर तो लोग समझने ही लगे हैं कि अगर वे खुद को सुरक्षित बचा पाए तो यही उनकी सबसे बड़ी सफलता है। अगर वाकई ऐसा है तो अब विद्वान और विशेषज्ञों को भी मानव की मूल आवश्यकताओं की सूची को फिर से परिभाषित करने के काम पर लग जाना चाहिए। मशहूर मनोविज्ञानी अब्राहम मैस्लो की बताई मानव की मूल आवश्यकताओं को पुनर्परिभाषित करने का समय आ गया लगता है।

मैस्लो ने मानव की पांच जरूरतों को पहचाना था। प्राथमिकता के आधार पर उनका क्रम भी बनाया था। उन्होंने इसमें भूख, प्यास जैसी कायिक या शारीरिक आवश्यकताओं को सबसे ऊपर रखा था। उसके बाद सुरक्षा को दूसरे स्थान पर रखा था। लेकिन महामारी के इस युग में लगने लगा है कि स्वास्थ्य जैसी सुरक्षा को भूख और प्यास की ही श्रेणी में ही रखना पड़ेगा। नया अनुभव यह मिला है कि जिनके पास भोजन, पानी, रक्षा उपकरण, सामाजिक शान शौकत सब कुछ था, वे भी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में अपना जीवन नहीं बचा पाए। इस आपदाकाल में साफतौर पर देखा गया कि दुनिया के अमीर देश तक अपने बीमार नागरिकों के लिए समय पर दवा और अस्पतालों का इंतजाम नहीं कर पाए।

भारत में तो महामारी अभी भी बेकाबू है। मरीजों की बढ़ती रफ्तार के सामने अस्पतालों का ढांचा बौना पड़ गया है। पता तो पहले से था कि अपनी आबादी के लिहाज से न तो हमारे पास पर्याप्त डॉक्टर हैं, न उतने अस्पताल हैं, न अस्पतालों में बिस्तर, दवा और उपकरणों का इंतजाम है। यह ऐसी हकीकत थी जिसे हम छुपाए हुए थे। लेकिन महामारी ने असलियत को उघाड़ कर रख दिया। इसलिए कोरोना हमें मजबूर कर रहा है कि अब स्वास्थ्य सुरक्षा को मूल आवश्यकताओं की सूची में सबसे ऊपर रखा जाए, बिल्कुल रोटी और पानी के साथ। यानी जिस तरह दुनिया में खाद्य सुरक्षा के लिए मुहिम चलाई जाती है और जलापूर्ति की चिंता की जाती है, उसी तरह दुनियाभर की सरकारों को अपनी नीति में स्वास्थ्य को प्राथमिकता पर लाना ही पड़ेगा और स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे के लिए पर्याप्त से ज्यादा बजट रखना पड़ेगा।

विद्वान लोग अगर पूर्वाग्रहों को छोड़ कर समीक्षा करें तो साफ तौर पर बता सकते हैं कि पिछले कुछ दशकों में भारत में जिस रफ्तार से आर्थिक वृद्धि हुई है, उस हिसाब से स्वास्थ्य सेवाओं को विस्तार नहीं मिला। जिस समय महामारी शुरू हुई, उस समय भारत में स्वास्थ्य सेवा का दायरा हद से ज्यादा सीमित था। मसलन, सन 2020 में आई मानव विकास रिपोर्ट के आंकड़ों को देखें तो भारत में प्रति दस हजार आबादी पर सिर्फ नौ डॉक्टर ही उपलब्ध थे। अस्पतालों में बिस्तरों का प्रबंध देखें तो प्रति दस हजार आबादी पर बिस्तरों की संख्या सिर्फ पांच थी। यह प्रबंध इतना नाकाफी था कि सामान्य दिनों में ही देश नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा देने में नाकाम हो रहा था। स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता का यह आंकड़ा इतना कम है कि वैश्विक महामारी तो दूर, अगर कोई छोटी-सी आपदा भी आ जाती तो झेल पाना संभव नहीं होता।

आगे के लिए कोई सबक लेना हो तो अपनी वास्तविक स्थिति को छिपाने से कोई फायदा होगा नहीं। भविष्य में इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है। इसलिए हमें कुछ बातें निसंकोच याद कर लेनी चाहिए। मसलन, पिछले साल जारी वैश्विक मानव विकास सूचकांक की रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के अस्पतालों में बिस्तरों की कुल उपलब्धता के मामले में दुनिया के एक सौ पैंसठ देशों के बीच भारत का स्थान एक सौ तिरपनवां रहा। यानी युगांडा, अफगानिस्तान, इथोपिया और बुर्किना फासो जैसे बारह देश ही हमसे बदतर हालत में थे। इससे साफ होता है कि स्वास्थ्य के आधारभूत ढांचे के मामले में हमारी स्थिति चिंताजनक हो गई थी और प्रचार के जरिए हम खुद को मुगालते में रखे हुए थे।

महामारी आने के पहले से ही जागरूक तबका और विशेषज्ञ बजट में स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने पर जोर देते रहे हैं। अलबत्ता महामारी फैलने के बाद स्वास्थ्य बजट बढ़ाया तो गया, लेकिन आग लगने पर कुंआ नहीं खोदा जा सकता था। इस बात पर भी संजीदगी से सोचना होगा कि बजट में भारी-भरकम प्रावधानों के बावजूद महामारी से निपटने में हम इस कदर नाकाम क्यों हो रहे हैं? हमें कबूल कर लेना चाहिए कि शुरू में महामारी से युद्धस्तर पर नहीं निपट पाने का एक कारण स्वास्थ्य पर कम खर्च करना भी रहा। और महामारी को काबू करने में देर के कारण लाखों-करोड़ के नुकसान और हजारों नागरिकों की जान गंवाने के बाद इस साल के आम बजट में स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाया गया। हालांकि दो लाख तेईस हजार करोड़ की कुछ बड़ी दिखने वाली इस रकम में पहले से चली आ रही कई अलग-अलग मदों को भी शामिल कर लिया गया था। इस रकम का भी एक हिस्सा कोरोना टीकाकरण और महामारी से निपटने के दूसरे कामों के लिए एकमुश्त खर्च हो जाना है। बेशक लक्ष्य के रूप में ग्यारह हजार शहरी और सत्रह हजार ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र बनाने का इरादा अच्छा है। लेकिन लगातार सोचते रहना पड़ेगा कि इस एलान का क्रियान्वयन कहीं पैसे की तंगी के कारण न अटक जाए।

सचेत रहना चाहिए कि हम अभी भी आपात स्थिति में ही हैं। अपनी आबादी के लिहाज से लाखों चिकित्सकों और अर्ध-चिकित्सा कर्मचारियों की कमी है। अगर यही स्थिति रही तो इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए मेडिकल कॉलेज और नर्सिंग ट्रेनिंग सेंटर बनाने में ही कई साल लग जाएंगे। वक्त की जरूरत के मुताबिक अगर ये काम जल्द यानी युद्धस्तर पर करना है तो उस हिसाब से खर्च भी करना पड़ेगा। देश के स्तर पर यह तभी संभव है जब स्वास्थ्य सेवाओं को जीवन की मूल आवश्यकता माना जाए। यह महामारी अब तक बने लक्ष्यों और प्राथमिकताओं की समीक्षा करने का सबक दे रही है। कोरोना से मची तबाही से दुनियाभर की सरकारों को यह सबक तो लेना ही चाहिए कि अगर कोई देश अपने नागरिकों की जान न बचा पाए तो आर्थिक वृद्धि और अर्थव्यवस्था का आकार कोई मायने नहीं रखता। जान की कीमत पर कैसी भी सफलता बेमानी है।