अभिषेक कुमार सिंह
देश के ज्यादातर राज्यों में अब जिंदगी फिर से पटरी पर लौटने लगी है। अब तकरीबन सभी राज्यों ने दफ्तरों, फैक्ट्रियों, दुकानों आदि को खोल दिया है। सरकारी और कई निजी कंपनियों के दफ्तरों में सामान्य उपस्थिति का दावा भी किया जाने लगा है। हाल तक जिन जगहों पर विषाणु के प्रकोप के कारण घर से काम की व्यवस्था लागू की गई थी, महामारी की मार में थोड़ी-सी कमी आने पर इस तरह लोगों को कार्यस्थलों पर बुलाने की नीति सवालों के घेरे में आ गई है। पूछा जा रहा है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कामकाज की ऐसी मिली-जुली व्यवस्था अपनाई जाए, जिसमें बेहद जरूरी कार्यो को छोड़ कर बाकी काम घर से ही संपन्न कराए जा सकें।
उल्लेखनीय है कि पिछले करीब डेढ़ साल से लोगों के घरों में बंद रहने की विवशता ने काम-धंधे पर बुरा असर डाला है। करोड़ों नौकरियां चली गई हैं। छोटे-मोटे कामकाज ठप पड़ गए हैं। ऐसे में जरूरी हो गया है कि देश की अर्थव्यवस्था और लोगों की रोजी-रोटी को पटरी पर लाया जाए। इसके सबसे सटीक उपाय के रूप में लोगों की काम पर वापसी को तरजीह दी जा रही है। सूचना-तकनीक से जुड़ी नौकरियों के मामले में भी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को फिलहाल घर से काम करने की छूट दी है। लेकिन यह छूट अन्य पेशों में अब प्राय: नहीं दी जा रही है। आवासीय निर्माण क्षेत्र, सड़क व रेल परिवहन, वाहन उद्योग और प्राय: सभी प्रकार की फैक्ट्रियों और कारखानों में कामकाज पूर्व की भांति शुरू हो गया है। वहां कर्मचारियों और मजदूरों को वापस बुला लिया गया है। इससे यह तो तय है कि पटरी से उतर चुकी अर्थव्यवस्था को संभाला जा सकेगा।
नौकरियों में कटौती का सिलसिला भी रुकेगा। लेकिन संकट यह है कि अगर तीसरी लहर आ गई और उस दौरान संक्रमण दर व मौतों की संख्या बढ़ने लगी तो क्या होगा। बहुत मुमकिन है कि तब फिर ज्यादातर कर्मचारियों को घर से ही काम करने के लिए कहा जाए। कोरोना काल से पहले सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) क्षेत्र के किसी अन्य क्षेत्र में घर से काम को एक वास्तविक समाधान की तरह नहीं देखा जा रहा था। लेकिन अब इसे लेकर नजरिये में अंतर आया है। अब आइटी के अलावा वित्तीय सेवाओं, दूरसंचार, ई-कॉमर्स और उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद-बिक्री से संबंधित कामकाज का ज्यादातर हिस्सा घर बैठे कर्मचारी निपटा रहे हैं।
घर से काम के कुछ उजले पहलू इस कोरोना काल में और उजागर हुए हैं। हाल में एक सर्वे से यह पता लगाने की कोशिश की गई कि घर से काम की नीति को लेकर कर्मचारियों में कितनी संतुष्टि है और इससे उनकी उत्पादकता में क्या अंतर आया है। सर्वे से पता चला कि इंटरनेट की गति, घर में स्थान की कमी और बहुत अधिक वीडियो कॉल किए जाने जैसी चुनौतियों के बावजूद ज्यादातर कर्मचारियों ने घर से काम करने को ज्यादा सुविधाजनक माना और वे इससे संतुष्ट रहे।
सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह सामने आया है कि सत्तर फीसद कर्मचारियों की उत्पादकता इस दौरान या तो पहले जैसी रही या फिर उसमें सुधार हुआ। हालांकि कुछ फीसद कर्मचारी असंतुष्ट भी पाए गए। लेकिन ऐसे कर्मचारियों की संख्या महानगरों में चार फीसद और छोटे शहरों में छह फीसद से ज्यादा नहीं रही। सबसे उल्लेखनीय पहलू यह रहा कि घर से काम की नीति को अपनाने से लोगों को घर के कार्यों के लिए भी समय मिल गया, जबकि पहले इसके लिए अलग से छुट्टी लेने की जरूरत होती थी। विशेषत: महिला कर्मचारियों इससे काफी सहूलियतें रहीं। ऐसे निष्कर्षों को देखते हुए अब सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में घर से काम या फिर कामकाज की ऐसी मिली-जुली शैली अपनाने की वकालत होने लगी है, जिसमें बहुत जरूरी होने पर ही कार्यालय में उपस्थिति को अनिवार्य बनाया जाता है।
दरअसल, कामकाज की मिली-जुली शैली कोरोना काल की ज्यादा बड़ी उपज मानी जा सकती है। इसमें कर्मचारियों को चुनिंदा दिनों में कार्यालय में उपस्थित होना पड़ता है, अन्यथा नहीं। कार्यालय में उपस्थित होने का बड़ा कारण किसी महत्त्वपूर्ण बैठक में हिस्सा लेना या फिर कोई जरूरी दस्तावेज अपने अधिकारियों या मातहतों तक पहुंचाना होता है। मोटे तौर पर माना जा रहा है कि इस तरह की कार्यशैली के तहत कर्मचारी पचास फीसद काम घर बैठे ही संपन्न कर सकते हैं और शेष पचास फीसदी के लिए ही उन्हें दफ्तर आने की जरूरत होगी। मिली-जुली शैली वाले कामकाज का यह मॉडल आइटी और वित्तीय सेवाओं से अलग किस्म की नौकरियों पर लागू होता है, क्योंकि आइटी जैसे क्षेत्रों में तो तकरीबन सौ फीसद काम घर बैठ संपन्न हो रहे हैं।
इसमें हैरानी नहीं कि सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले बावन फीसद लोगों ने इस मिली-जुली शैली वाली व्यवस्था को अपनी प्राथमिकता के विकल्प में चुना। यह विकल्प चुनने वाले लोगों में से इकतालीस फीसद ने हफ्ते में तीन दिन दफ्तर आकर काम करना जरूरी माना, जबकि पच्चीस फीसद ने सप्ताह में दो ही दिन कार्यालय में उपस्थिति को अनिवार्य बताया।
घर से कामकाज की संस्कृति कर्मचारियों के लिए ही फायदेमंद नहीं है, बल्कि इससे कई बड़ी कंपनियों को अपने खर्च में भारी-भरकम कटौती करने का मौका भी मिल गया है। जैसे इंटरनेट कंपनी गूगल से संबंधित कंपनी- अल्फाबेट ने वर्ष 2019 के मुकाबले पिछले एक साल की अवधि में कंपनी के प्रचार-प्रसार, यात्रा और कर्मचारियों के मनोरंजन आदि पर होने वाले खर्च में करीब दो हजार करोड़ रुपए की बचत कर ली। यही नहीं, इसी अवधि में कंपनी की आय में चौंतीस फीसद तक की बढ़ोत्तरी हुई, क्योंकि कर्मचारियों ने घर से काम करने की वजह से बहुत ही कम छुट्टियां लीं। इस तरह कंपनी को दोहरा फायदा हुआ।
असल में गूगल अपने कर्मचारियों को यात्रा, मनोरंजन आदि तमाम मदों में ढेरों भत्ते देने के लिए मशहूर है। चूंकि इस कंपनी के कर्मचारियों ने मार्च, 2020 से इन भत्तों को नहीं लिया, इससे कंपनी की काफी बचत हुई। इससे प्रेरित होकर गूगल कंपनी कामकाज की एक नई संस्कृति विकसित कर रही है, जिसमें दफ्तर में कर्मचारियों के लिए बहुत कम जगह होगी। गूगल की तरह ही भारत में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) जैसी आइटी कंपनी ने तो पिछले ही साल यह घोषणा कर दी थी कि उसकी योजना वर्ष 2025 तक अपने पचहत्तर फीसद कर्मचारियों को घर से काम करने देने की है। टीसीएस ने इस नए मॉडल को कथित तौर पर 25/25 कहा है, जिसमें सौ फीसद उत्पादकता के लिए पच्चीस फीसद से ज्यादा कर्मचारियों के लिए दफ्तर आने की जरूरत नहीं है।
दुनिया चलाने के ऑनलाइन प्रबंधों का कितना ज्यादा फायदा हमारी पृथ्वी और प्रकृति को हो सकता है, यह बात बीते डेढ़ साल में स्वच्छ हुए पर्यावरण और जीवों को मिली आजादी के रूप में दिखने लगी है। घर को दफ्तर में बदलने की जरूरत असल में अब इसलिए भी ज्यादा है कि ज्यादातर शहरों में घरों से दफ्तर की दूरियां बढ़ रही हैं। व्यावसायिक इलाकों में जमीन और दफ्तरों का किराया काफी महंगा है, जिसे चुकाना कंपनियों को भारी पड़ता है। इस पर दफ्तरों को रोशनी से जगमगाए रखने और वातानुकून के प्रबंध करने में बिजली का बेइंतहा खर्च भी दबाव पैदा करता है। कामकाजी आबादी के दफ्तर पहुंचने में बढ़ती दूरियों के अलावा यातायात जाम, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल, ग्रीनहाउस प्रभाव और परिवहन के बढ़ते खर्च जैसी भी कई अन्य बाधाएं हैं, जिनका समाधान घर से काम की संस्कृति में नीहित है।