शिक्षा व्यवस्था उन क्षेत्रों में सम्मिलित है, जो परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए हर प्रकार का प्रतिरोध उपस्थित करते हैं। परिवर्तन की स्वीकार्यता के लिए उचित वातावरण तभी तैयार हो पाता है, जब अध्यापक-वर्ग प्रस्तावित परिवर्तनों के प्रति आश्वस्त हो और उसे आदेश से नहीं, अंतर्मन से लागू करने को तैयार हो। यह स्थिति असंभव नहीं है। इसे व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है।

स्कूल हमारी अनुभूति में स्थायी रूप से अंकित हैं। परिवार बच्चों को स्कूल भेज कर अपेक्षा करते हैं कि वहां अध्यापक उन्हें वह सब सिखाएंगे, जो उनके व्यक्तित्व के हर पक्ष को निखारेगा। जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक गुण और कौशल इसमें सम्मिलित होंगे। प्रबुद्ध परिवार चाहते हैं कि अपने जीवन को व्यवस्थित कर हर युवा सदा आगे बढ़ने, लोक कल्याण और राष्ट्रहित में संलग्न रहने के लिए भी तैयार रहे।

बच्चे और अध्यापक दोनों कितने सफल रहे, यह परीक्षा में प्राप्त अंकों से आंका जाता है। मगर यहां तक आते-आते एक ऐसी स्थिति बनती है, जिसे सभी ने सामान्य मान कर स्वीकार कर लिया है- कमियां कहीं भी हों, किसी की भी हों, विफलता का सारा दोष केवल छात्र को झेलना पड़ता है! आज तक कोई प्राचार्य, शिक्षा अधिकारी या शिक्षामंत्री विफल नहीं हुआ है, केवल लाखों विद्यार्थी प्रतिवर्ष विफल होते रहते हैं।

दिन-प्रतिदिन के कार्य-कलापों में अध्ययन-अध्यापन की सारी प्रक्रिया कुछ यों सिमट जाती है- केंद्र के इंगित पर और राज्य सरकार के स्तर पर पाठचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकें निर्मित होती हैं, अध्यापक पाठ्यक्रम (सिलेबस) पूरा करने के लिए निर्देशित होते हैं, बच्चे परीक्षा पास करने जाते हैं, इन दोनों की सीमा रेखाएं और परिधि पाठ्यचर्या (करिकुलम) से निर्धारित होती हैं। छात्र का मूल्यांकन स्कूल बोर्ड करता है और किसी भी स्कूल की मान-प्रतिष्ठा और साख का निर्धारण भी बोर्ड परीक्षा परिणाम के आधार पर माता-पिता करते हैं। ऐसा सब कुछ बिना किसी परिवर्तन के, कितनी ही पीढ़ियों से होता आ रहा है।

मगर जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है, इसे बदलने के लिए प्रयास भी प्रारंभ हो चुके हैं। आज सीखने के लिए विद्यार्थी की निर्भरता अध्यापक और पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं रह गई है। इस बदलाव से सभी परिचित हैं। अब तो हर बच्चे को यह सीखना होगा कि सूचना-संसार के उपलब्ध भंडार में से आवश्यक और उपयोगी को कैसे ढूंढ़ा जाए, नया सीखते रहने का कौशल कैसे विकसित किया जाए और जीवन पर्यंत सीखते रहने के लिए कैसे तैयार रहा जाए।

समय के साथ शिक्षा में नीतियां बदली हैं, पुस्तकें बदली हैं, पढ़ाने की विधियों में परिवर्तन हुए हैं, लेकिन शिक्षा में गुणवत्ता, उपयोगिता, मूल्यों का अधिग्रहण, अध्यापकों के प्रति सम्मान और स्वीकार्यता में अधिकतर चर्चाएं गिरावट की ओर ही इंगित करती हैं। परिवर्तन की अप्रत्याशित गति के इस समय में सजग और सतर्क शिक्षा-व्यवस्थाएं इस ओर ध्यान दे रही हैं कि मानव-शक्ति के उपयोग में किसी भी वर्ग को विफल घोषित कर उसे अपने भाग्य पर छोड़ देना न तो न्याय संगत है, न ही मानवीय स्तर पर स्वीकार्य होना चाहिए।

हर बच्चे को उसकी नैसर्गिक प्रतिभा के विकास के अवसर देना स्कूल और व्यवस्था का उत्तरदायित्व है, उसकी नैसर्गिक प्रतिभा को पहचानना और उसे दिशा देकर सुपुष्ट करना भी स्कूल और उसके अध्यापकों का उत्तरदायित्व है। इसके लिए आवश्यक संसाधन, प्रशिक्षण और उपयुक्त वातावरण की व्यवस्था करना केंद्र और राज्य सरकारों का संवैधानिक उत्तरदायित्व है। इसका निर्वाह स्वतंत्रता के बाद के दशकों में पूरी तरह नहीं हुआ है।

निजी क्षेत्र ने शिक्षा में निवेश को निर्बाध लाभांश कमाने के अवसर के रूप में देखा और सरकारों को इसमें अपने उत्तरदायित्व से बचने का विकल्प मिल गया। समाज दो भागों में बंट गया। पतिस्पर्धाएं बढीं, रोजगार के अवसर कम हुए, ट्यूशन और कोचिंग का जबर्दस्त विस्तार हुआ। व्यक्तित्व विकास, मानवीय मूल्यों का अधिग्रहण, चरित्र निर्माण जैसी सभी अपेक्षाएं अधिकाधिक अंक प्राप्त करने के अनथक प्रयासों में कहीं खो गईं। निजी स्कूल की फीस या कोचिंग के खर्चीले संस्थान अब उस मध्यवर्ग की पहुंच से बाहर हो रहे हैं, जो इनकी ओर आंख मूंद कर दौड़ लगा रहा था। इसके साथ कोरोना के कारण कितने लाख लोगों की आमदनी घटी या बंद हो गई है।

सरकारी स्कूलों की ओर लोग बड़ी आशा से देख रहे हैं। यह सरकारों के लिए एक अद्भुत अवसर है अपनी साख जमाने और सरकारी स्कूलों की साख लौटाने का। चीन ने इस दिशा में गंभीर कदम उठाए हैं। भारत में परंपरागत ढंग से कहा जाता रहा है कि शिक्षा का क्षेत्र व्यापार करने के लिए नहीं है। चीन इसे अब लागू कर रहा है। वह सफल होगा, क्योंकि वहां नियम पालन करने के लिए होते हैं- भले ही व्यवस्था की कितनी ही आलोचना क्यों न की जाए। भारत में नियम का पालन कागजों पर ही हो सकता है।

अब भी निजी स्कूल नियमानुसार लाभांश नहीं कमा सकते हैं, मगर वस्तुस्थिति से कोई भी अपरिचित नहीं है। विद्वत-वर्ग को देश को समझाना चाहिए कि ट्यूशन और कोचिंग बच्चे की वैचारिक क्षमता और संकल्पना शक्ति को कुंठित करते और इस प्रकार उनकी जिज्ञासा और सर्जनात्मकता को कुचल देते हैं। इसे रुकना ही चाहिए, भले हमें चीन से क्यों न सीखना पड़े।

प्राचीन भारत की गुरुकुल परंपरा पर गौरव-भाव से चर्चा होती है, मगर लोगों का आकर्षण अब भी अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों के इर्द-गिर्द सिमटता रहा है। तेजी से हो रहे परिवर्तन के दौर में शिक्षा में ऐसा बहुत कुछ है, जो बदल नहीं रहा है। सबसे बड़ी आवश्यकता है शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रतिभावान युवाओं को प्रवेश के लिए आकर्षित करना। दूसरा है, इन संस्थाओं की कार्य संस्कृति, पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन करना। परिवर्तन के प्रति उदासीनता का एक उदहारण है, शिक्षक प्रशिक्षण के समय छात्र-अध्यापकों द्वारा बनाई जाने वाली पाठ योजनाएं। पाठ योजना जैसे पचास साल पहले बनती थीं, वैसे ही आज भी बनाई और बनवाई जा रही हैं।

इसी प्रशिक्षु को शिक्षा का दर्शनशास्त्र पढ़ाते समय विस्तारपूर्वक प्रसिद्ध शिक्षाविदों को उद्धृत कर समझाया जाता है कि ‘कोई भी सर्जनात्मक पाठ कक्षा में ही अपना स्वरूप ग्रहण करता है।’ इस स्थिति में जिन अत्यंत आशाजनक सुधारों और परिवर्तनों की संस्तुति और अपेक्षा नीतिगत स्तर पर की जा रही है, उसके अपेक्षित क्रियान्वयन के लिए गहरे दृष्टिकोण परिवर्तन की अपेक्षा होगी। और दृष्टिकोण परिवर्तन सरलता से कहीं भी और कभी भी संभव नहीं हुए हैं। शिक्षा व्यवस्था उन क्षेत्रों में सम्मिलित है, जो परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए हर प्रकार का प्रतिरोध उपस्थित करते हैं।

परिवर्तन की स्वीकार्यता के लिए उचित वातावरण तभी तैयार हो पाता है, जब अध्यापक-वर्ग प्रस्तावित परिवर्तनों के प्रति आश्वस्त हो, और उसे आदेश से नहीं, अंतर्मन से लागू करने को तैयार हो। यह स्थिति असंभव नहीं है। इसे व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है। प्रारंभ शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों के शिक्षा विभागों से ही करना होगा। नई शिक्षा नीति में ऐसे अनेक तत्त्व उभरे हैं, जो इस प्रकार की संभावनाओं को साकार करने के लिए उपयुक्त वातावरण बना सकने की क्षमता से परिपूर्ण हैं।

यहां यह याद कर लेना उपयुक्त होगा कि भारत ने सतत विकास एजेंडा-2030 को 2015 में स्वीकार किया गया, जिसके अनुसार भारत को भी- अन्य सभी राष्ट्रों की तरह- 2030 तक ‘सभी के लिए समावेशी और सामान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवनपर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने के लक्ष्य’ को प्राप्त करना है। कोरोना के कारण बच्चों की शिक्षा में आया व्यवधान चुनौतियों को कई गुना बढ़ा चुका है। इसमें आई कमी को नए सोच, अधिक प्रयास और नवाचारों द्वारा ही पूरा किया जा सकेगा।

आशाजनक स्थिति यह है कि नई शिक्षा नीति स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करती है कि ‘हर स्तर पर शिक्षकों को समाज के सर्वाधिक सम्माननीय और अनिवार्य सदस्य के रूप में स्थान देना होगा।’ पर प्रश्न है कि इसकी पहल कहां से होनी चाहिए, और कौन करने को तैयार होगा!