वेंकटेश दत्ता
पृथ्वी हमें बार-बार यह चेतावनी दे रही है कि पर्यावरण से अब और खिलवाड़ बंद हो। वरना धरती पर रहना मुश्किल होता चला जाएगा। यह सही भी है। पिछले कुछ दशकों में तो हमने इसे कुछ ज्यादा ही महसूस किया है। कस्बों, शहरों, महानगरों से लेकर समुद्र, पहाड़, जंगल और धरती के पारिस्थितकीय तंत्र प्रदूषण की मार से त्रस्त हैं। वायुमंडल लगातार जहरीला होता जा रहा है। धरती के लिए यह बड़ा खतरा है। ऐसे में सवाल है कि धरती कैसे बचेगी और जब धरती ही नहीं रहेगी तो हमारा क्या होगा?

पर्यावरण आज पूरी दुनिया के लिए गंभीर मुद्दा बना हुआ है। यह जीवन और अर्थव्यवस्था के हर पहलू से जुड़ा है। इसलिए इसे नजरअंदाज करना मानव की सबसे बड़ी भूल होगी। हमारी अर्थव्यवस्था का एक पहलू यह भी है कि इसमें नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों को नहीं गिना जाता, जबकि उनकी भरपाई या उन्हें कम करने के लिए खर्च किए गए धन को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिना जाता है। इस सच्चाई से तो मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि आर्थिक समृद्धि हमारे पर्यावरण की कीमत पर ही आई है। कोई भी देश जबर्दस्त पर्यावरणीय क्षति के बिना एक प्रमुख औद्योगिक शक्ति के रूप में नहीं उभरा है। जबकि आर्थिक समृद्धि और आजीविका सीधे उसी जीवन-समर्थन प्रणाली की सुरक्षा पर निर्भर करती है जिस पर हमारा अस्तित्व निर्भर है। इसलिए हमें विकास को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है, जो पारिस्थितिक संपन्नता के संदर्भ में मापा जा सके, न कि बढ़ती आय के स्तर के रूप में।

उन्नीसवीं सदी के अंत में जापान में एशियो की तांबे की खदान से निकलने वाली गैस सल्फर डाइऑक्साइड और भारी धातुओं ने न केवल फसलों को, बल्कि मानव स्वास्थ्य को भी भारी नुकसान पहुंचाया। पंजाब में कीटनाशकों और हानिकारक रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण हाल के वर्षों में कैंसर से होने वाली मौतों में वृद्धि देखी गई है। राज्य के बठिंडा जिले में यह जानलेवा बीमारी कितनी व्यापक है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लगभग हर दूसरे घर में एक कैंसर का मरीज है। लोग कीटनाशकों के उपयोग और बढ़ते प्रदूषण को इसका जिम्मेदार मानते हैं।

बहुत से किसान इस समय अपनी दयनीय स्थिति के लिए 1970 की हरित क्रांति की सफलता को दोष देते हैं। यह तब था जब किसानों ने पारंपरिक खेती के तरीकों को छोड़ ज्यादा पैदावार वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशक और पानी की मिलीजुली विधि की ओर रुख किया था। पंजाब के किसान प्रति हेक्टेयर नौ सौ तेईस ग्राम कीटनाशकों का उपयोग करते हैं, जो राष्ट्रीय औसत पांच सौ सत्तर ग्राम प्रति हेक्टेयर से बहुत अधिक है।

वायु प्रदूषण को ही लें। वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों से दिल्ली और कोलकाता जैसे महानगरों में हर साल हजारों लोग मर जाते हैं। अतिरिक्त उपभोग और उत्पादन हम पर उल्टा असर कर रहा है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले से हर साल खनन से लगभग 27,198 करोड़ रुपए का राजस्व मिलता है। लेकिन इसके पीछे एक डरावना सच भी है। सोनभद्र में कोयला खदानों से निकलने वाली राख लोगों में कैंसर जैसी घातक बीमारी का कारण बन रही है। इस राख में मौजूद आर्सेनिक, सिलिका, एल्युमिनियम और आयरन जैसी भारी धातुएं दमा, फेफड़ों के विकार, टीबी और कैंसर का कारण बन रही हैं।

पूर्वी राज्य झारखंड खनिज संपदा के मामले में भारत के सबसे अमीर राज्यों में से है। लेकिन यहां हवा-पानी जहरीली है। राज्य के झरिया में कोयले की धूल सर्वव्यापी है और कपड़े बाहर खुले में रखने के कुछ ही मिनटों में कालिख के साथ गहरे काले पड़ जाते हैं। मनुष्य प्रकृति से मिलने वाली पर्यावरणीय सेवाओं पर निर्भर है। आर्थिक विकास से पर्यावरण में सुधार होता है, लेकिन यह भविष्य में अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान में भी वृद्धि का कारण बनता है। लागत और क्षति आबादी के समूहों और देशों में असमान रूप से वितरित की जाती है। वास्तविक अर्थव्यवस्था बाजार क्षेत्र की तुलना में बहुत व्यापक है। इसका एक उदाहरण बोतलबंद पानी खरीदने और घरों में हवा साफ करने के लिए लगाए जाने वाले महंगे वायु शोधक (एअर प्यूरीफायर) के लिए खर्च किया गया पैसा है, क्योंकि प्रदूषण से स्वच्छ पानी की स्थानीय उपलब्धता नष्ट हो गई है।

संयुक्त राष्ट्र का मानव विकास सूचकांक कई सामाजिक मुद्दों पर विचार करने का एक अनूठा प्रयास है, लेकिन यह प्रत्यक्ष पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में नहीं रखता। पर्यावरणीय संघर्ष अक्सर बाजार अर्थव्यवस्था के बाहर होते हैं। सच्चाई यह है कि बाजार अर्थव्यवस्था पर्यावरण शोषण के खिलाफ लोगों के संघर्षों और आंदोलनों को मान्यता नहीं देना चाहती।

पहली नजर में, आर्थिक विकास से पर्यावरण की स्थिति में सुधार होता दिख रहा होता है। समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं के पास पर्यावरणीय नुकसान से निपटने और उनकी भरपाई के लिए वित्तीय साधन हैं। उनके पास पर्यावरण के अनुकूल नई उत्पादन प्रौद्योगिकियों को पेश करने की क्षमता भी है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है। अमीर देश अपना उत्पादन और आपूर्ति गरीब देशों से प्राप्त करते हैं, जहां श्रम की लागत कम होती है। प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन के साथ गरीब देशों को आपदाओं, प्रदूषण और जानमाल के नुकसान का सामना करना पड़ता है। नकारात्मक पर्यावरणीय प्रवृत्तियों में मोड़ तब दिखाई देते हैं जब काफी नुकसान हो चुका होता है या जब बर्दाश्त करने की क्षमता को पार कर लिया जाता है।

जलवायु परिवर्तन इस सदी का सबसे बड़ा संकट है। लेकिन विकसित देशों के रुख को देखते हुए अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या जलवायु परिवर्तन सभी को और हर जगह प्रभावित नहीं कर रहा? क्या अधिक संपन्न और अमीर राष्ट्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नहीं झेल रहे? आज पृथ्वी के सभी पारिस्थितिक तंत्रों में जबर्दस्त बदलाव आ चुका है। 1950 के बाद ज्यादा से ज्यादा भूमि कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित हो गई। पिछले दो दशकों में पैंतीस फीसद मैंग्रोव नष्ट हो गए। बीस फीसद प्रवाल भित्तियों को नष्ट कर दिया गया है। पिछले चार दशकों में वनस्पति और जैविक प्रजातियों का बावन प्रतिशत नुकसान हुआ। प्राकृतिक आवास और प्रजातियों का वर्तमान नुकसान ऐतिहासिक अतीत की तुलना में कई गुना अधिक है।

पिछले दो दशकों में सार्स, मर्स, इबोला, निपाह और अब कोरोना विषाणु ने वैश्विक अर्थव्यवस्था और समाज को हिला दिया है। पिछले एक साल में कैलिफोर्निया से लेकर साइबेरिया के जगंलों को धधकते देखा है। ये घटनाएं बता रही हैं कि प्रकृति ‘रीसेट’ बटन दबा रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं भारी गिरावट झेल रही हैं। विषाणु के प्रकोप का यह प्रकार और पैमाना हमारे जीवनकाल में अपनी तरह का पहला है। हमारा स्वास्थ्य प्रकृति के साथ हमारे व्यवहार का परिणाम है।

विषाणु हमारे रास्ते को सही करने का संकेत दे रहा है। यह हमें बता रहा है कि हमें प्रकृति का सम्मान करना होगा। हमने पूरी प्रकृति को अपने कब्जे में ले लिया है और अन्य सभी जानवरों पर हावी हो गए हैं। लेकिन हम यह भूल गए कि हमारी संपूर्ण आर्थिक समृद्धि आंख से नजर नहीं आने वाले सूक्ष्मजीव भी मिटा सकते हैं। जाहिर है, सोने और हीरे के लिए जमीन खोदी जाएगी, पेड़ भी काटे जाएंगे, इससे पर्यावरण में और गिरावट आएगी।

पारिस्थितिक सिद्धांतों में निहित स्थायी अर्थव्यवस्था पर आधारित स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र में ही मानव कल्याण संभव है। पर्यावरण और स्वास्थ्य पर रासायनिक खेती के गंभीर दुष्प्रभाव को देखते हुए धीरे-धीरे ही सही, लेकिन जैविक व प्राकृतिक खेती की तरफ लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। यह खेती अपार संभावनाओं का दरवाजा खोलती है। हालांकि भारत में यह अब भी सीमित दायरे में ही हो रही है। सरकारों को अभी काफी कुछ करना बाकी है। हमें विकास के ऐसे मॉडल की तरफ बढ़ना होगा जो पर्यावरणीय समस्याओं के चिरस्थायी समाधान और जलवायु आपातकाल की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हो।