ज्योति सिडाना

कहते हैं कि जिसे जीना आता है, वह बिना किसी सुविधा के भी खुश मिलेगा। जिसे जीना नहीं आता, वह सभी सुविधाओं के होते हुए भी दुखी मिलेगा। यानी खुश रहने के लिए सामान की नहीं, सम्मान की जरूरत होती है। आज विश्व के लगभग हर देश और समाज में अवसाद, तनाव, क्रोध, हिंसा, उदासी, निराशा का स्तर बढ़ता देखा जा सकता है। सवाल है कि क्यों हो रहा है ऐसा? यह सच है कि सुख-दुख, आशा-निराशा, हंसी-क्रोध जैसे भाव एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन में दोनों विपरीत भाव साथ-साथ चलते हैं और हर किसी को इनका सामना कभी न कभी करना पड़ता है, लेकिन जो विपरीत स्थिति में भी संतुलित व्यवहार करे, धैर्य से सामना करे उसे मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति माना जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसी स्थिति है, जिसमें किसी व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का एहसास रहता है, वह जीवन के सामान्य तनावों का सामना कर सकता है, लाभकारी और उपयोगी रूप से काम कर सकता है और अपने समाज के प्रति योगदान करने में सक्षम होता है।

हाल ही में बच्चों-किशोरों पर किए गए एक सर्वेक्षण में सामने आया कि सभी विद्यार्थी मानसिक रूप से स्वस्थ होने का अर्थ जानते हैं और इसके लक्षण भी, लेकिन उसके बावजूद पिछले कुछ समय से अनेक युवा मानसिक रूप से अस्थिर बने हुए हैं। परीक्षाओं का समय पर न होना, अनिश्चितता की स्थिति, अगली कक्षा में प्रोन्नत होने के बाद भी कक्षाओं का नियमित रूप से न लग पाना आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जिनकी वजह से वे अपने भविष्य को लेकर असुरक्षित अनुभव करते हैं। पहले से ही बेरोजगारी का आंकड़ा काफी व्यापक है, अगर यही हाल रहा तो उन्हें डर है कि उनका जीवन अंधकारमय होगा।

इसी डर से वे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो रहे हैं और अनेक मानसिक विकारों- क्रोध, निराशा, कुंठा, अवसाद, आक्रामकता, हिंसा जैसे लक्षणों से घिरे दिखाई दे रहे हैं। जब उन्हें कोई रास्ता सुझाई नहीं देता, तो आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने से भी नहीं हिचकते।

यह भी एक तथ्य है कि आज के दौर में भी लोग मनोचिकित्सक के पास जाने में झिझक महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि वही लोग मनोचिकित्सक के पास जाते हैं, जो मानसिक रोगी होते हैं। या फिर वे इस बात से डरते हैं कि दूसरों को पता लगेगा कि वह मनोचिकित्सक के पास गया था, तो वे उनके बारे में क्या सोचेंगे।

भारत जैसे देश में शायद पहले के समाज में मनोचिकित्सक की इतनी आवश्यकता नहीं होती थी, क्योंकि संयुक्त परिवार हुआ करते थे। लोगों में घनिष्ठ और अनौपचारिक संबंध होने के कारण वे एक-दूसरे से अपनी सारी बातें साझा कर लेते थे। किसी भी समस्या का सामना सामूहिक आधार पर हो जाता था, किसी भी समस्या के आने पर यह सुनना कि घबराओ मत, हम हैं न, सब ठीक हो जाएगा- हर प्रकार के तनाव को समाप्त कर देता था।

पर आज व्यक्तिवादिता इतनी हावी हो चुकी है कि अपने सामने कोई और दिखाई ही नहीं देता। परिवारों में भी ‘हम’ का स्थान ‘मैं’ ने ले लिया है। यही कारण है कि किसी भी समस्या का सामना अब अकेले ही करना पड़ता है, जो व्यक्ति को, विशेष रूप से किशोरों और युवाओं को मानसिक रूप से कमजोर कर देता है। अनुभवों की कमी के कारण वे संघर्ष से घबरा जाते हैं और नकारात्मकता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन जाती है। आज के समय में अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के साथ यह भी एक गंभीर चुनौती है, जिसका सामना करने के लिए न केवल चिंतन, बल्कि समय रहते तीव्र और उचित समाधान करने की जरूरत है।

डब्ल्यूएचओ की मानें, तो वैसे ही सामान्य अवस्था में हर पांचवां भारतीय किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रहा होता है। ऐसे में कोरोना के कारण हर उम्र और वर्ग के लोगों में विभिन्न मानसिक समस्याओं ने दोगुना प्रभाव डाला है। एक रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में 2019 की तुलना में 2020 में पारिवारिक कारणों से आत्महत्या के मामले दोगुने हुए हैं।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 2020 में देश भर में अठारह साल से कम आयु के 11,396 बच्चों ने आत्महत्या की। ऐसे में यह और भी चिंताजनक स्थिति है कि भारत अपने स्वास्थ्य बजट का मात्र 1.3 प्रतिशत भाग मानसिक स्वास्थ्य पर व्यय करता है, जोकि पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। सरकार को मानसिक स्वास्थ्य के बजट, में वृद्धि करनी होगी अन्यथा इस समस्या से निपटना सहज नहीं है।

इस दिशा में समाज, परिवार, सरकार और शिक्षण संस्थानों को मिल कर गंभीर प्रयास करने होंगे। स्कूलों-कालेजों में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य विषय पर भी काम करने की जरूरत है। उनमें समय-समय पर मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिकों की सहायता से कार्यशाला/ सेमिनार आयोजित कराने की आवश्यकता है। हर स्कूल-कालेज में एक परामर्श केंद्र अवश्य होना चाहिए, ताकि विद्यार्थी बिना झिझक वहां जाकर अपनी समस्या साझा कर उचित सलाह प्राप्त कर सकें। समाज के अन्य नागरिकों को भी समय-समय पर विभिन्न सामुदायिक केंद्रों, गैर-सरकारी संगठनों, सामाजिक क्लबों द्वारा इस तरह के परामर्श निशुल्क उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

जिस तरह विभिन्न शारीरिक बीमारियों के प्रति जागरूकता और उपचार के लिए समय-समय पर शिविर लगाए जाते हैं उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाने और मानसिक विकारों के उपचार/ समाधान पर भी चर्चा हेतु सार्वजानिक शिविर लगाए जाने चाहिए। जागरूकता की कमी की वजह से आज भी समाज के अधिकांश हिस्सों में लोग मानसिक विकारों को ऊपरी हवा या किसी बुरी आत्मा का साया या जादू-टोना मान कर इसका इलाज ढ़ूंढ़ते हैं और सारी जिंदगी इस समस्या से बाहर नहीं आ पाते।

देखा जाए तो मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों एक-दूसरे के कारण और परिणाम हैं, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है या फिर स्वस्थ मन वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा होता है। क्योंकि खुशी की शुरुआत सकारात्मक सोच से होती है। नकारात्मक दृष्टिकोण केवल निराशा और दुख का कारण होता है।

अनेक चिकित्सा अनुसंधान भी यह सिद्ध कर चुके हैं कि अधिकांश शारीरिक बीमारियां भी मानसिक कारणों से ही होती हैं। यानी मानसिक शांति उत्तम स्वास्थ्य की पहली शर्त है। आज के समय में हम लोगों से बातचीत करने से बचते हैं और ज्यादातर समय आनलाइन व्यस्त रहते हैं या फिर संदेशों द्वारा बातचीत करते हैं। दोनों ही स्थितियों में भावनात्मक लगाव की कमी होती है, जिसके कारण वे अपने मन का बोझ या परेशानी साझा नहीं कर पाते, केवल औपचारिकता निभाते हैं।

आज लोग खुल कर हंसना ही भूल गए हैं, जिसके कारण भी शरीर अनेक रोगों और तनावों से घिरा रहता है। इसलिए डाक्टर सलाह देते हैं कि सुबह-सुबह पार्क में जाकर लाफिंग क्लब में शामिल होइए, ताकि शरीर का हर अंग सही ढंग से सांस ले सके और शारीरिक और मानसिक तनाव दूर हो सके।

कहते हैं, हंसी न केवल एक बेहतरीन दवा, बल्कि एक अच्छा व्यायाम भी है। हंसना, सकारात्मक सोच रखना, सुबह घूमना, योग और व्यायाम करना, संतुलित भोजन करना, परिवार, मित्रों और सहकर्मियों के साथ बातचीत करना, समस्याओं को साझा करना, अपने शौक के लिए समय निकालना आदि मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। किसी ने कहा भी है कि जब कुछ सेकेंड की मुस्कान से फोटो अच्छी आ सकती है, तो हमेशा मुस्कराने से जिंदगी कितनी खूबसूरत हो सकती है। इसलिए खुश रहना, मुस्कराना और सकारात्मक सोचना ही जिंदादिली है।