अभिषेक कुमार सिंह
सुरक्षा के संबंध में एक प्रचलित मुहावरा है कि सुरक्षा ऐसी हो कि परिंदा भी पर न मार सके। लेकिन जम्मू के वायु सेना स्टेशन पर हाल में हुए ड्रोन हमले ने इस धारणा को खारिज कर दिया है कि हमारे सैन्य प्रतिष्ठान आसमान के रास्ते की जाने वाली आतंकी हमलों की कोशिशों से पूरी तरह महफूज हैं। सुरक्षा के संबंध में एक धारणा और है। वह यह कि संसाधन जितनी उच्च तकनीक से युक्त होंगे, सुरक्षा उतनी ही पुख्ता होगी। मानवरहित बेहद हल्के और सस्ते विमानों (ड्रोन) से किए गए इस आतंकी हमले ने सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की नींद इसीलिए भी उड़ा दी है कि सुरक्षा में सेंध लगाने के लिए अब अत्यधिक उन्नत तकनीक जरूरी नहीं रह गई है। आतंकियों ने सेना की महंगी लागत वाले उपायों को बेहद कम लागत वाले हल्के ड्रोनों से विस्फोटक गिरा कर साबित कर दिया कि सुरक्षा में सेंध लगाने के लिए ऊंची लागत के इंतजामों की जरूरत नहीं है। देश में पहली बार ड्रोन को हथियार बना कर किए गए इस आतंकी हमले से सरकार और सेना का चौकन्ना हो जाना स्वाभाविक है। पर अहम सवाल यह है कि क्या हमारे पास इस किस्म की आतंकी घुसपैठ का कोई तोड़ है?
अगर आतंकी ड्रोन का इस्तेमाल कर पाने में कामयाब हो रहे हैं तो यह उनके हाथों में परमाणु बम पड़ जाने से कम नहीं है। दशकों से पूरी दुनिया डर्टी बम नामक जुमले का इस्तेमाल करती आई है। कहा जाता रहा है कि अगर आतंकी संगठन जोड़-तोड़ करके कहीं से खराब किस्म का यूरेनियम और तकनीक चुरा कर कम ताकत वाला बम बना लेते हैं, तो इससे पूरी दुनिया की सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है। हालांकि डर्टी बम बनाना भी आसान नहीं है और शायद यही वजह है कि कोई आतंकी संगठन अभी तक ऐसा दावा नहीं कर पाया है कि उसने कम क्षमता वाला परमाणु बम बना लिया है। लेकिन ड्रोन के मामले में हालात बदल चुके हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बाजी हाथ से निकल चुकी है। ड्रोन का इस्तेमाल कर सुरक्षा में सेंध लगाई जा सकती है। यह अब हमारे देश में भी साबित हो चुका है।
यह सही है कि कोई भी जंग सबसे पहले मनोवैज्ञानिक और कूटनीतिक स्तर पर लड़ी जाती है। जब किसी युद्ध से पूर्व आजमाए जाने वाली रणनीतियां कारगर नहीं होती हैं और किसी मसले पर वास्तविक जंग की नौबत आ जाती है तो उसमें जंगी जहाजों, युद्धपोतों, तोप, बम, मिसाइलों आदि का इस्तेमाल होता है। लेकिन इधर कुछ समय से हथियारों की इस सूची में ड्रोन एक अनिवार्यता बन गए हैं। जरूरी नहीं कि युद्ध दुश्मन देशों की सेनाओं के बीच हों, आतंकवाद से लोहा लेने के लिए भी ऐसी ही युद्धक तैयारियों की जरूरत पड़ती है। लेकिन यहां अहम सवाल यह है कि क्या ड्रोन वास्तव में किसी जंग में इतने मददगार साबित हो सकते हैं कि वे युद्ध का स्वरूप ही बदल डालें। और क्या इनकी मदद से सैनिकों की क्षति कम की जा सकती है और जीत का वह उद्देश्य हासिल किया जा सकता है, जिसके लिए युद्ध लड़ा जाता है। अभी यह तो कहा जा सकता है कि जम्मू वायु सेना स्टेशन पर ड्रोन से किया गया आतंकी हमला नुकसान भले ज्यादा न कर पाया हो, लेकिन यह बेहद गंभीर घटना है। इसे सिर्फ एक और आतंकी वारदात के रूप में नहीं लिया जा सकता। इसे आतंकी हमलों के तरीकों में महत्त्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत माना जाना चाहिए। ध्यान रखना होगा कि भारत-पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय सीमा से जम्मू वायु सेना स्टेशन की दूरी करीब पंद्रह किलोमीटर है। इससे पहले भी दर्जनों बार ड्रोन सरहद पार कर हमारे देश में आते रहे हैं।
यह विचार करना होगा कि अस्थिरता पैदा करने के लिए आतंकी ड्रोन का इस्तेमाल करने को क्यों प्रेरित हुए। यह निश्चय ही सेना की ओर बरती जा रही सावधानी और आतंकवाद के सफाए के ठोस प्रयासों का नतीजा है कि आतंकवादी अब किसी जगह पर कोई वारदात खुद सामने आकर करने से पहले सौ बार सोचते हैं। आतंकियों के लिए किसी सार्वजनिक स्थान या राष्ट्रीय महत्त्व के सरकारी अथवा सैन्य प्रतिष्ठान की सुरक्षा में सेंध लगाना आसान नहीं रह गया है। ऐसा करने में उन्हें भारी जोखिम उठाना पड़ता है और आतंकवादियों के मारे जाने की संभावना भी रहती है। लेकिन ड्रोन ने उन्हें वे हाथ-पांव दे दिए हैं, जिनके सहारे वे ज्यादा कोई जोखिम लिए बिना देश की सुरक्षा में सेंध लगा सकते हैं। नई स्थितियों के मुताबिक अब किसी स्थान को आतंकियों के दायरे से बाहर नहीं माना जा सकता। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि ड्रोन भारतीय सीमा के अंदर से ही संचालित किए जा रहे हों। आतंकी संगठनों के लिए ड्रोन का इस्तेमाल कई मायनों में सुविधाजनक हो गया है। ड्रोन के जरिए देश के अंदर छोटे-छोटे आतंकी समूहों के जरिए भी हमले करवाए जा सकते हैं। इसमें वारदात को अंजाम देने वाले आतंकियों के मारे या पकड़े जाने का डर नहीं होता है।
आतंकी संगठन अब से करीब ढाई दशक पहले से मानवरहित विमानों से दहशत फैलाने के बारे में सोचते रहे हैं। एक तथ्य के मुताबिक एक जापानी आतंकी समूह ने पच्चीस साल पहले ड्रोन के जरिए सरीन गैस फैलाने की योजना बनाई थी। मध्यपूर्व देशों में मौजूद आतंकी समूह भी ड्रोन के जरिए हमलों को अंजाम दे चुके हैं। दावा है कि ड्रोन से ऐसा पहला सफल आतंकी हमला 2013 में किया गया था। तब शिया आतंकी समूह- हिजबुल्लो ने ईरान के दिए ड्रोन का इस्तेकमाल करते हुए सीरिया के ठिकानों पर विस्फो टक गिराए थे। वर्ष 2018 में सीरिया के कहामिम वायु सेना अड्डे पर ड्रोन हमले किए गए थे। उसी वर्ष अगस्त् में वेनेजुएला के राष्ट्रजपति को ड्रोन से निशाना बनाया गया। दो ड्रोन की मदद से उस जगह पर विस्फोेटक गिराए गए जहां राष्ट्ररपति भाषण दे रहे थे। बीते दस वर्षों में सीरिया में ड्रोन से कई हमले किए गए। आतंकी संगठन इस्लांमिक स्टेरट ने इराक और सीरिया में छोटे ड्रोन का जम कर इस्तेनमाल किया। मोसुल की लड़ाई के दौरान कई ड्रोन के जरिए इराकी सैनिकों पर इस्लामिक स्टेट ने हथगोलों की वर्षा की थी। सऊदी अरब पर हूती विद्रोहियों ने ड्रोन से अनगिनत हमले कर उसकी नाक में दम कर रखा है।
जहां तक आतंकियों के भेजे ड्रोन से मुकाबले का सवाल है तो इस मामले में भारतीय सेना छोटे आकार के कुछ इजरायली ड्रोन (स्मैश-200 प्लस) का आयात कर रही है। इन्हों बंदूकों या राइफलों पर लगाया जा सकता है। इनसे हमलावर छोटे ड्रोन को दिन या रात में निशाना बनाया जा सकता है। मगर फिलहाल भारत ऐसे खतरों से निपटने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। कहने को तो हमारी सेना के पास बेहद आधुनिक राडार और मिसाइलों वाली रक्षा प्रणालियां हैं, लेकिन इन प्रबंधों से सिर्फ बड़े ड्रोन का ही मुकाबला किया जा सकता है। फिलहाल जो कुछ किया जाएगा, वह इस मामले में मिली हार की हताशा से बाहर आने का उपक्रम होगा। लेकिन इस घटना से सबक लेकर यदि बेहद कड़े प्रबंध किए जाते हैं और आतंकी मनसूबों को धराशायी किया जाता है, तो भी यह राहत की बात होगी। यह कैसे होगा, इसे लेकर अभी खुद सेना और सरकार में चिंतन हो रहा है। लेकिन इतना तय है कि ऐसी आतंकी कोशिशों की रोकथाम के लिए जितने उपाय हो सकें, वे करने होंगे और इस बारे में विशेषज्ञों की राय को महत्त्व देना होगा।