कोरोना महामारी ने दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को झकझोर डाला है। भारत जैसे देश पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा है, इसमें भी खासतौर से उत्तर भारत पर। पिछले साल इतने कष्ट सहने के बावजूद प्रवासी कामगार बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल के अपने गांव तो पहुंच तो गए थे, लेकिन महीने-दो महीने में ही रोजगार का संकट गहराने लगा क्योंकि वहां करने को कुछ रह ही नहीं गया था। फिर से यह उन्हीं महानगरों और विशेषकर दक्षिण भारत की तरफ लौटने लगे। थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी राज्य और केंद्र सरकार ने दी, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर ही रही। ऐसी योजनाओं का खाका अभी भी दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता जो इन लोगों को रोजगार दे सके।

महामारी से निपटने के लिए भारत सहित पूरे विश्व में टीकाकरण की जरूरत है। टीके के लिए दुनिया के कम से कम सौ राष्ट्र भारत से आस लगाए हैं। ज्यादातर देशों ने तो भारतीय टीका निर्माता कंपनियों को पैसा भी पहले दे दिया और इसी वजह से व्यापार की सामान्य मयार्दाओं के तहत उनको टीका पहले दे दिया गया। लेकिन प्रश्न है टीका बनाने वाली ये कंपनियां हैं कहां? ज्यादातर महाराष्ट्र में और कुछ दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों में। महामारी से निपटने के लिए जरूरी दवाइयां, ऑक्सीमीटर, ऑक्सीजन सांद्रक और सिलेंडर सहित अन्य जरूरी चीजें तैयार करने की ज्यादातर फैक्ट्रियां विंध्याचल के उस पार ही हैं। ऑक्सीजन, दवाई आदि की कुव्यवस्था के लिए केंद्र पर उंगली ठीक ही उठाई गई। लेकिन उतना ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि उत्तर के राज्यों में यह उद्योग क्यों नहीं सांस ले पाते और अंतत: आम जनता रोजी-रोटी की तलाश में हजारों मील दूर जाकर काम करने को क्यों विवश है?

यहां तक कि जो स्वास्थ्य सुविधाएं कानपुर, मेरठ, उन्नाव जौनपुर, भागलपुर, समस्तीपुर में दी जा सकती हैं, उनके लिए भी दिल्ली और मुंबई की तरफ दौड़ मची है। यदि उद्योग, स्कूल, अस्पताल इन राज्यों में ढंग से काम करना शुरू कर दें तो भविष्य में बेरोजगारी के संकट से कुछ तो बचा जा सकता है।

पिछले कई दशक इस बात के गवाह हैं कि सरकारी नौकरियों पर जितना आश्रित उत्तर भारत है, उतना दक्षिण भारत नहीं। उदारीकरण के बाद सरकार की घोषित नीति सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम करने की रही है। वर्ष 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री ने हर साल दस फीसद कर्मचारी कम करने के आदेश भी निकाले थे। उसके बाद लगातार सरकारी कर्मचारियों की संख्या घटती गई। कम से कम जिस अनुपात में देश की आबादी बढ़ी है, साक्षरता बड़ी है, सरकारी नौकरियां उस रफ्तार से नहीं बढ़ीं और मौजूदा वैश्विक परिदृश्य और आर्थिक स्थितियों के चलते यह अब संभव भी नहीं है। छठे और सांतवें वेतन आयोग द्वारा सरकारी कर्मचारियों की बेहताशा वेतन वृद्धि ने भी सरकार को यह सोचने पर मजबूर किया कि वेतन, पेंशन पर खर्चे इसी रफ्तार से बढ़ते रहे तो सरकार कंगाल हो जाएगी। इसीलिए सरकारी नौकरियां कम करने की कवायद जारी है।

संघ लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा की भर्तियों में ही पिछले पांच वर्ष में लगभग चालीस फीसद कटौती कर दी गई है। एक तरफ दस लाख से ज्यादा परीक्षा देने वाले उम्मीदवार और उनकी नौकरियों की संख्या मात्र सात-आठ सौ। यही हाल रेलवे, बैंक आदि की नौकरियों का है। आर्थिक मजबूरियों के चलते इन क्षेत्रों में भी नौकरियां लगभग गायब हो चुकी हैं। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने एक घोषणा के तहत कर्मचारी चयन आयोग, रेलवे भर्ती बोर्ड और बैंकिंग भर्ती बोर्ड को मिला कर एक केंद्रीय भर्ती बोर्ड की घोषणा तो कर दी थी, लेकिन सवाल है कि जब नौकरियां ही नहीं होंगी तो भर्तियां होंगी कहां से।

इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि आखिर कब तक उत्तर भारत नौकरियों, रोजगार, बेहतर जीवन शासन-प्रशासन के लिए दक्षिण की तरफ देखता रहेगा? पंजाब के खेतों में लाखों बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूर लगे हैं तो दक्षिण में राजमिस्त्री, पेंटर आदि कार्यों में भी इन्हीं राज्यों के लोगों की भरमार हैं। बंगलुरु शहर में बड़ी-बड़ी आवासीय कॉलोनी की सुरक्षा व्यवस्था में असम की लड़कियां हैं, तो घरों में काम करने वाली ज्यादातर बंगाल और ओड़िशा की। दक्षिण भारत की कुछ तो तारीफ की ही जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी जनसंख्या वृद्धि पर कमाल का नियंत्रण हासिल किया और वह भी बिना किसी दबाव के। सरकारी नौकरियों की मारामारी में वे उस तरह शामिल नहीं हैं जैसे उत्तर भारत के लोग। बल्कि निजी कारोबार और उद्योगों से वे भारत की जीडीपी में बेहतर योगदान दे रहे हैं। तमिलनाडु देश की जीडीपी में सबसे ज्यादा योगदान करता है।

बीते वर्ष विदेशी निवेश में भी तमिलनाडु महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर पर रहा था। बंगलुरु के आइटी उद्योग ने दुनिया में झंडा गाड़ा हुआ है। इसलिए यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में छोटे निजी कारोबारों (स्टार्टअप) की संस्कृति क्यों नहीं विकसित हो पाई? सबसे तेजी से बढ़ती जनसंख्या के बूते उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य संसद से लेकर वित्त आयोग तक से मांग बढ़ाते रहते हैं, पर अपने यहां किसी धंधे को नहीं पनपने देते।

हाल में एक खबर थी कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश में अस्पतालों में काम करने वाली नर्सों और दूसरे कर्मचारियों की बेहद कमी है। महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक की हजारों लड़कियों को अस्पतालों, स्वास्थ्य सेवाओं में रोजगार मिल गया है। कम से कम पिछले तीन-चार दशकों से पूरा देश यह जानता है कि दुनिया भर में भारतीय नर्सों की मांग है। लेकिन क्या उत्तर भारत में नर्सिंग कॉलेज उसी अनुपात में सामने आए, जैसे केरल, कर्नाटक और अन्य राज्यों में हैं। पूरे देश में लगभग अस्सी फीसद नर्सें केरल से आती हैं। यह सामाजिक बराबरी के पैमाने का भी इशारा है, जहां लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया जाता है और नर्सिंग जैसे काम के प्रति निष्ठा भी जिसमें सेवा का भाव सबसे ऊपर है।

कुछ वर्ष पहले कोलकाता के एक अस्पताल में आग लग गई थी और तब केरल की कई नर्सों के त्याग की कहानियां हमने सुनी थी कि कैसे उन्होंने अपनी जान पर खेल कर मरीजों को बचाया। उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई अस्पताल होगा जहां अपने वतन केरल से हजार मील दूर अपनी सादगी निष्ठा से काम नहीं करती हों। इन्हीं की वजह से हिंदी दक्षिण तक भी पहुंची है।

कलक्टर और पुलिस अफसर बनने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन पूरी व्यवस्था चलाने के लिए तो हर काम की महत्ता है। आप अपने हाथ से खेती नहीं करेंगे, उद्योग आपके लिए रंगदारी और अपहरण का नाम है, तो करोना से तो बच भी जाएंगे पर बेरोजगारी से नहीं बच पाएंगे। आत्मनिर्भरता का नारा देना तो आसान है, लेकिन क्या उसका कोई खाका सरकार के पास है? इक्कीसवीं सदी में दुनिया विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बूते आगे बढ़ रही है। हम सस्ती मजदूरी के बूते भले ही दुनिया में टीका बनाने में अब्बल हों, उसके मूल शोध में हम कहीं नहीं ठहरते। और यह मूल शोध तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक विज्ञान की सही समझ नहीं रखते। दुनिया से उधार ली हुई तकनीक से सिर्फ काम चला सकते हैं।

चीन आज जहां खड़ा है, वह विज्ञान और तकनीक में शोध के बूते ही संभव हो पाया है और इसीलिए अमेरिका भी उसे बड़ी चुनौती के रूप में देख रहा है। इसलिए बेहतर हो, भारत के राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी और पूरी शासन व्यवस्था रोजगार के इन पहलुओं पर ध्यान दें।