धर्मेंद्रपाल सिंह
बिहार विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी के भविष्य से जुड़ा है। नवंबर 2013 से लगातार चुनावी जीत की लहर पर सवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस वर्ष दिल्ली विधानसभा में अरविंद केजरीवाल ने करारा झटका दिया था। अब बिहार भी भाजपा के लिए कड़ी चुनौती बन गया है। लंबी जद्दोजहद के बाद आखिर लालू प्रसाद यादव ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मंजूर कर लिया। इसके साथ ही बरसों से बिखरे जनता परिवार को एकजुट करने की कवायद सिरे चढ़ गई। बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल (एकी) और राष्ट्रीय जनता दल की साझी ताकत का सामना करना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।
लगभग एक चौथाई सदी से जनता दल परिवार बिखरा पड़ा था। उसे एक करना मेंढक तौलने से ज्यादा कठिन है। समाजवादी आंदोलन की कोख से जनमी इन पार्टियों की खासियत यह है कि जब-जब उनके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराते हैं वे एकजुट हो जाती हैं और सत्ता मिलने के बाद अपने नेताओं के अहं के चलते बिखर जाती हैं। 1979 में जनता पार्टी के टूटने और 1990 में जनता दल तार-तार हो जाने का कारण कोई बड़ा सैद्धांतिक मतभेद नहीं था, दोनों बार कुछ नेताओं के सत्ता-मोह और अहंकार के कारण पार्टी टूटी थी। इस बार एक बात अलग है।
इससे पहले हमेशा कांग्रेस के विरोध में ये दल और नेता एकजुट होते थे। उन्हें भाजपा का साथ और समर्थन मिलता था। पहली बार जनता परिवार के घटक दलों ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोला है। लेकिन केवल औपचारिक घोषणा और सीटों के बंटवारे से विलय का काम पूरा नहीं हो सकता। आंदोलन के जरिए जनता को साथ जोड़ना और कार्यकर्ताओं का मेल-मिलाप भी जरूरी है और यह काम केवल जन-संघर्ष से हो सकता है।
बात आगे बढ़ाने से पहले कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। जब से लालू और नीतीश बिहार की राजनीति के क्षितिज पर उभरे हैं तब से सत्ता समीकरण लगातार उनके इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं। राज्य में पिछले पच्चीस बरस में से पंद्रह साल लालू-राबड़ी ने और दस साल नीतीश ने राज किया है। वर्ष 1988 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों के दलों ने चौवन में से सत्ताईस सीटें जीती थीं जबकि वर्ष 1999 में पच्चीस। सन 2000 में विभाजन के बाद झारखंड अलग हो गया, लेकिन जेपी आंदोलन की कोख से जनमे लालू और नीतीश का प्रभाव जस का तस बना रहा। 2004 के आम चुनाव में दोनों ने चालीस में से अट््ठाईस और 2009 में चौबीस सीटों पर विजय दर्ज की। हां, पिछले आम चुनाव में पहली बार दोनों पार्टियों को करारा धक्का लगा। दोनों के कुल छह प्रत्याशी ही जीत पाए।
जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, तब नाराज नीतीश ने भाजपा के साथ सत्रह बरस से चल रहा गठबंधन तोड़ कर अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। जनता दल (एकी) को इस निर्णय की भारी कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन आम चुनाव में पराजय से नीतीश ही नहीं, सभी क्षेत्रीय दलों ने बड़ा सबक सीखा। उन्हें पता चल गया कि अकेले दम पर भाजपा को रोकने की ताकत किसी एक पार्टी में नहीं है। भगवा दल के पैरों में बेड़ियां मिल-जुल कर ही डाली जा सकती हैं। परिणामस्वरूप पिछले साल समाजवादी आंदोलन से निकले छह दलों ने विलय की घोषणा की, जिसका फल अब सामने आया है। सांप्रदायिक ताकतों को पराजित करने के लिए लालू और नीतीश ने हाथ मिलाने की घोषणा कर दी है, फलस्वरूप बिहार में आसान जीत का सपना देख रही भाजपा बिलबिलाई हुई है।
लालू के परंपरागत मतदाता बिहार के सोलह प्रतिशत यादव और चौदह फीसद मुसलमान हैं। खराब वक्त में भी राजद को करीब बीस प्रतिशत मत मिले हैं। इसी प्रकार नीतीश को करीब सोलह फीसद मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है। मत विभाजन रोकने के लिए लालू और नीतीश कांग्रेस को भी साथ जोड़ कर एक महागठबंधन बनाना चाहते हैं। अगर इस उद्देश्य में सफलता मिल गई और सीटों का बंटवारा बराबर हो गया तब भाजपा के लिए बिहार का गढ़ जीतना लगभग दुष्कर हो जाएगा। कुछ माह पूर्व दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भाजपा का घमंड चकनाचूर किया था और बिहार उपचुनावों में लालू और नीतीश ने साझा प्रत्याशी खड़े कर भाजपा को धूल चटाई थी। इन परिणामों से विरोधी दलों को पता चल गया कि मोदी लहर को रोकना कठिन नहीं है। जरूरत सही रणनीति और संकल्प की है।
इसी दबाव ने नीतीश और लालू को साथ आने पर मजबूर किया है। पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बिहार विधानसभा की 77.5 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस हिसाब से आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अगर तीन चौथाई से कम सीटें (कुल सीट 243) जीतीं तो यही माना जाएगा कि मोदी का जादू उतर गया है। मौजूदा हालात में भाजपा के लिए यह लक्ष्य भेदना असंभव है।
कांग्रेस की कमजोरी और क्षेत्रीय दलों की छितरी ताकत के कारण ही पिछले वर्ष हुए आम चुनाव में भाजपा महज इकतीस फीसद वोट के बल पर स्पष्ट बहुमत पाने में कामयाब हो गई थी। मोदी के नेतृत्व में राजग को करीब कुल जमा अड़तीस प्रतिशत मत और 337 सीटें मिलीं। इतने कम जन-समर्थन के बावजूद किसी दल और गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल गया। इससे पहले न्यूनतम वोट पर स्पष्ट बहुमत पाने का आंकड़ा 41.3 प्रतिशत है, जो 1977 में जनता पार्टी को मिला था।
भारतीय जनता पार्टी का जन्म जनसंघ की कोख से हुआ है, जिसे शुरू में ब्राह्मण-बनियों की पार्टी माना जाता था। भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार का हिस्सा है और संघ पर सदैव उच्च जातियों और व्यापारियों का एकाधिकार रहा है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि 1989 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के विरोध में छिड़े देशव्यापी आंदोलन के पीछे भाजपा का हाथ था। मंडल से ध्यान भटकाने के लिए ही लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर का मुद््दा उठा कर रथयात्रा निकाली थी।
संघ नेतृत्व अब महसूस करने लगा है कि आरक्षण का खुला विरोध करने से दलित और पिछड़े वर्ग उससे कट जाएंगे। मंडल आयोग के अनुसार देश में 3743 पिछड़ी जातियां हैं जिनकी संख्या हिंदू धर्म के अनुयायियों का लगभग पचास फीसद है। उन्हें नाराज कर भाजपा के लिए कोई भी चुनाव जीतना असंभव है। इस सच को स्वीकार करने के बाद 1994 से 2000 के बीच पिछड़े वर्ग के लोगों को भाजपा और संघ में महत्त्वपूर्ण पद दिए गए। दलित बंगारू लक्ष्मण को भाजपा अध्यक्ष बनाया गया। रज्जू भैया सरसंघचालक बने। पिछड़ी जातियों से कल्याण सिंह, उमा भारती को पार्टी की प्रथम पंक्ति में लाया गया।
मोदी को प्रधानमंत्री बनाया गया। लेकिन संघ का असली नियंत्रण अब भी उच्च जातियों के हाथ में है। बिहार की सारी अगड़ी जातियां भाजपा के साथ हैं। वहां पार्टी पर वर्चस्व के लिए अगड़ों का भारी दबाव है। चुनाव निकट आने के साथ-साथ भाजपा में अंतर्कलह तेज होने के आसार हैं। इसका दुष्प्रभाव भाजपा के सहयोगी दलों और उनके वोट बैंक पर पड़ना लाजमी है।
अब पूरे पश्चिम और मध्य भारत पर भाजपा का झंडा लहरा रहा है। गुजरात, गोवा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, झारखंड में पार्टी का एकछत्र राज है। पंजाब, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में उसकी साझा सरकार है। आंध्र प्रदेश में मित्र सरकार है। लेकिन बिहार के बिना इस विजय को मुकम्मल नहीं माना जा सकता।
वैसे दिल्ली की गद्दी पर बैठने के एक साल के भीतर ही मोदी की वादाखिलाफी की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त तैयार हो चुकी है। कुछ देर के लिए विपक्षी दलों को छोड़ सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बातें सुनी जाएं, तब भी शुभ संकेत नहीं मिलते। हाल ही में भाजपा के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने प्रधानमंत्री के गंगा सफाई अभियान का सार्वजनिक मखौल उड़ाया है। एक अन्य नेता और पूर्व मंत्री अरुण शौरी का कहना है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मोदी सरकार पूरी तरह विफल रही है। विकास दर दस फीसद पर पहुंचाने का सरकारी दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है। यह बात सुर्खियां बटोरने के लिए की जा रही हैं।
बकौल शौरी पार्टी और संघ के संगठनों के नेताओं के ‘लव जिहाद’ और ‘घर वापसी’ जैसे नारों से अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा भाव बढ़ता जा रहा है। छोटी-छोटी बात पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री की इस मामले पर खामोशी बेहद खटकती है। शौरी ने दस लाख रुपए का सूट पहनने के लिए मोदी पर हमला करते हुए कहा कि महात्मा गांधी का नाम लेकर ऐसा नहीं किया जा सकता। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और वित्तमंत्री अरुण जेटली- ये तीन लोग ही सरकार और पार्टी चला रहे हैं। इनके अलावा किसी चौथे व्यक्ति को पता नहीं होता कि क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। निश्चय ही भाजपा के लाखों साधारण कार्यकर्ता और करोड़ों आम लोग भी शौरी की बातों से सहमत होंगे। ऐसे हालात में बिहार चुनाव कैसे जीता जा सकता है?
दिल्ली का चुनाव हारने के बावजूद केंद्र सरकार जिस तरह केजरीवाल को तंग कर रही है, उससे विरोधी दल और सतर्क हो गए हैं। उन्हें लगता है कि बिहार चुनाव भगवा दल की नाक में नकेल डालने का नायाब मौका है। देश की भावी राजनीति के नजरिए से अगले दो साल का समय बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस दौरान बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होंगे। लगभग एक तिहाई लोकसभा सीटों पर इन तीन सूबों का अधिकार है। वहां सत्ता पाए बिना भाजपा का राष्ट्र पर एकछत्र राज करने का सपना साकार नहीं हो सकता। अगर बिहार में जनता परिवार का परीक्षण सफल रहा तब देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग और दिलचस्प हो जाएगी।
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