अरविंद मोहन

नए भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून पर पूरे विपक्ष के एकजुट विरोध और सरकार के घिरने से किसानों को भले ही यह लगता है कि देश और राजनेताओं को उनकी भी चिंता है, पर यह किसान प्रेम कब तक बना रहेगा यह देखने की चीज होगी। किसानों को यह भी लगता होगा कि पिछली सरकार और कानून ने उन्हें नए आकाश में ताक-झांक करने की खिड़की उपलब्ध करा दी थी, पर इस सरकार ने सब कुछ छीन लिया है और सवा सौ साल पहले वाली स्थिति में भेज दिया है। ऐसे काफी सारे गांव समर्थक और गरीब समर्थक लोग भी हैं जिन्हें लगता है कि सरकार अध्यादेश वाला कानून बनाने के चक्कर में पहली बार संसद में उलझी है और यह आगे के लिए ज्यादा शुभ बात है। अभी तक कभी भी हमारी संसद खेती-किसानी और ग्रामीण-आदिवासी सवाल पर कभी इस तरह की उलझन में नहीं फंसी थी।

आजाद भारत की सरकारों ने आजादी की लड़ाई के एक बुनियादी मूल्य जमींदारी समाप्ति को भी आज तक पूरी तरह लागू नहीं किया और बाकी सवालों पर तो वह लगातार गांव और खेती-किसानी विरोधी नीतियां चलाती रही है। कुल अर्थव्यवस्था में कृषि उत्पादन का हिस्सा किस तरह कम हुआ है और औद्योगिक उत्पादों या सेवा क्षेत्र के काम की तुलना में उसकी कमाई कैसे कम हुई है यह बताने के लिए अब आंकड़ों का सहारा लेने की जरूरत नहीं है। जीडीपी में कृषि का योगदान छठे हिस्से से भी कम हो गया है। दूसरी ओर यह भी कहना अनुचित नहीं है कि खेती निरंतर कमजोर हालत में धकेले जाने के बावजूद आज भी सारे मुल्क का पेट भरने, निर्यात में हिस्सा लेने और देशी जानवरों-पोल्ट्री उत्पादों का आहार उपलब्ध कराने के साथ दो तिहाई आबादी का बोझ उठा रही है।

आंकड़ों और आर्थिक हिसाब से उतर कर देखें तो किसान और गांव हमारे नेताओं के लिए एक चुनावी हथियार जरूर रहे हैं। किसान को फुसलाए बगैर और उसका वोट पाए बगैर कोई भी चुनाव जीतने की कल्पना नहीं कर सकता था। बैलों का जोड़ा और हंसिया-बाली सिर्फ चुनावी निशान नहीं थे। शहरी पार्टी मानी जाने वाली स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ की दाल ज्यादा नहीं गल पाती थी। अस्सी के दशक के पहले के दौर तक हर नेता या चुनाव पर नजर रखने वाला जानकार यह जानता था कि किसान के बगैर काम नहीं बनने वाला है। इतिहास बताता है कि जिस नेता के राज में किसान मरने लगे वह वापस सत्ता में नहीं आया। सड़सठ की विपक्षी जीत के पीछे भी नेहरूजी की मौत के बाद पडेÞ अकाल का बड़ा योगदान था।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पहली साबित हुई जो किसानों की बदहाली और भुखमरी-आत्महत्या के शोर के बीच भी मजे से चुनाव जीत कर आ गई। माना जाता है कि 2004 के चुनाव तक, अर्थात नई आर्थिक नीतिय का प्रभाव शुरूहोने के एक दशक बाद तक लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की थी। फिर भी जब राजग चुनाव में उतरा तो उसने इंडिया शाइनिंग का नारा ही रखा। तब तक विपक्ष की नेता की हैसियत से काफी घूम चुकीं सोनिया गांधी ने कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ, का नारा दिया। सबकी उम्मीद के विपरीत चुनाव जीत लिया तब सबको किसानों की ताकत का एहसास हुआ। उम्मीद बंधी कि अब नीतियों की समीक्षा होगी और बदलाव शुरूहोगा। सोनियाजी की पहल पर अधिकार आधारित कई कानून बने, कार्यक्रम शुरू हुए- जिनमें ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम भी शामिल है- पर आर्थिक नीतियां वही चलती रहीं।
सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों का बजट काफी बढ़ा और कई बार लगा कि सरकार आर्थिक नीतियों को लेकर दुविधा में है। पर तुरंत उदारीकरण के पक्षधरों ने इसे नीतिगत पक्षाघात (पॉलिसी पैरालिसिस) करार दिया और सरकार की उलझन बढ़ी।

अब कोई नादान ही कह सकता है कि ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, एकीकृत महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम, सर्वशिक्षा अभियान, जवाहर ग्रामीण विकास कार्यक्रम, इंदिरा ग्रामीण आवास कार्यक्रम, भोजन अधिकार कार्यक्रम, नए भूमि अधिग्रहण कानून वगैरह से कांग्रेस को फायदा नहीं हुआ। असल में सरकार के कामकाज और भ्रष्टाचार का रिकार्ड ऐसा बन गया था कि भाजपा को जीत के लिए नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा उससे मदद मिली। और चुनाव जीतते ही भाजपा की एक मुश्किल यह हो गई कि वह उदारीकरण की गाड़ी को अपनी योजना के अनुसार तेज रफ्तार से दौड़ाए या फिर इन योजनाओं को चालू रखे।

इनका श्रेय उसे मिलना न था और बजट का एक अच्छा-खासा हिस्सा इन पर खर्च हो रहा था। राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने तो बाजाप्ता मनरेगा के खिलाफ मुहिम शुरूकर दी थी। और केंद्रीय नेता भी जो कुछ इन योजनाओं के बारे में बोल रहे थे वह बहुत अच्छे की तरफ इशारा नहीं कर रहा था।

राहुल की मुहिम और सोनिया गांधी के सोच के अनुसार जो आखिरी काम पिछली सरकार ने किया वह था भूमि अधिग्रहण कानून, जिसमें जमीन लेने वाली किसी परियोजना की सामाजिक समीक्षा और अस्सी फीसद किसानों की सहमति का मुश्किल प्रावधान डाल दिया गया। भाजपा ने तब तो खुद को किसान-विरोधी न साबित होने देने के लिए इस विधेयक को समर्थन दे दिया, लेकिन सत्ता में आते ही उसे जल्दी समझ आ गया कि इसके रहते उसका मेक इन इंडिया मुहिम का और तेज करखनिया उत्पादन का सपना नहीं पूरा हो सकेगा। सो उसने नए भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून के लिए अध्यादेश जारी कर दिया।

इस सवाल पर भाजपा सरकार घिर गई है। घिरने की एक वजह राज्यसभा में उसके पास विधेयक पास कराने लायक समर्थन न होना भी है। शुरूमें तो पार्टी के छुटभैये नेता यह शान बताते थे कि हम संसद का संयुक्त सत्र बुला कर इस कानून को स्वीकृति दिला देंगे। पर एक तो यह आसान नहीं है, और दूसरे, देश भर में किसानों में जो प्रतिक्रिया दिखी वह डराने वाली थी। संसद में सारा विपक्ष- जिसमें ममता और वाम दल तथा मुलायम और मायावती जैसे परस्पर विरोधी भी शामिल हैं- तो एकजुट हुआ ही, शिव सेना, अकाली दल और लोक जनशक्ति पार्टी जैसे सहयोगी दल भी आंख दिखाने लगे। फिर भाजपा ने नरम पड़ने का संकेत तो दिया, लेकिन अब भी उसने किसानों या अधिग्रहीत भूमि से गुजारा करने वाले भूमिहीन मजदूरों के हक में कुछ बदलाव नहीं किया है। उलटे उसने मनरेगा समेत ज्यादातर सामजिक सुरक्षा योजनाओं के बजट में भारी कटौती कर दी।

यह तब हुआ है जब सरकार ने अमीरों का संपदा कर माफ किया, कंपनी कर आधा किया और अकेले जवाहरात उद्योग को पचहत्तर हजार करोड़ का कर माफ किया। दूसरी ओर ग्रामीण विकास और गरीबों के लाभ वाली योजनाओं की हालत मनरेगा से भी बुरी है और हैरानी की बात यह है कि जब सभी दलों में खुद को किसान और ग्रामीण लोगों, दलितों और आदिवासियों का हितैषी साबित करने की होड़ लगी है तब भी कोई इस मसले को नहीं उठा रहा है। अनुसूचित जातियों की विकास योजनाओं पर खर्च का प्रावधान 2014-15 के 50548 करोड़ की तुलना में वर्ष 2015-16 में 30851 करोड़ कर दिया गया है।

आदिवासी विकास की योजनाओं पर खर्च का प्रावधान भी 32386 करोड़ से घटा कर 19980 करोड़ कर दिया गया है। कृषि का बजट भी 8449 करोड़ से घट कर 4500 करोड़ हो गया है। स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट में तो बीस-बीस फीसद तक की कमी हुई है और स्कूलों में मिड-डे मील का काफी कुछ जिम्मा राज्यों के ऊपर छोड़ दिया गया है।

ये सब मसले संसद में तब भी नहीं उठ रहे हैं जब खेती-किसानी का सवाल प्रमुख बन कर सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर रहा है। पर उससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस लोकसभा में 198 किसानी करने वाले और 145 समाज सेवा करने वाले सांसद हैं। खुद को किसान बताने और गांव का पता देने वाले सांसद तो लोकसभा के हर कार्यकाल में सबसे ज्यादा संख्या में होते आए हैं। पर पहले वकालत जैसे पेशे के ज्यादा लोग संसद पहुंचते थे। दूसरी ओर राज्यसभा तो घोषित रूप से शहरी लोगों की होती है।

पर जिस तरह मोदीजी के आने से अगड़ों की सत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ा है, वैसे ही मंडल आने से भी देश की आर्थिक नीतियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। बल्कि हुआ यह कि हमारी राजनीति में मंडल, मंदिर और भूमंडलीकरण नामक तीन धाराएं एक साथ आर्इं। इनमें से मंदिर और भूमंडलीकरण को तो हाथ मिलाने में देरी नहीं हुई। सो कैसा भी भगवा राज हो, पर वह आया।

कैसी भी सरकारें रही हों, सबने भूमंडलीकरण को माना- आर्थिक नीतियां एक ही चली हैं। और इस क्रम में सबसे पहले सत्ता पर काबिज हुई और सबसे ताकतवर मंडल लहर की दुर्गति ही सबसे चिंताजनक रही। उसके नेताओं ने अपनी ओर से उदारीकरण वाली ताकतों को गलबंहिया करने में देरी नहीं लगाई, पर दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया उपेक्षा वाली ही थी। यह भी हुआ कि मंडलवादी आंधी से जिन नेताओं को लाभ हुआ उनमें से लालू, मुलायम, मायावती, चौटाला, देवगौड़ा, नवीन पटनायक और रामविलास पासवान ने सारा लाभ अपने और अपने परिवार तक सिमटाने में देर नहीं की और इस चक्कर में जनता दल के पचास टुकड़े हो गए तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा।

यह सच है कि मंडल जैसी मुहिम ने और गरीबों के हक में बढ़ते जनांदोलनों और इन सबसे बढ़ कर हमारे संसदीय लोकतंत्र ने राजनीति में आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और कमजोरों की आवाज मिटने नहीं दी है। पर यह उससे भी बड़ा सच है कि दुनिया के ज्यादातर विकसित लोकतंत्रों में कमजोर लोगों का वोट की ताकत पर भरोसा कम हुआ है। हमारे यहां अगर भरोसा बढ़ा है तो यह अच्छी बात है, लेकिन इतने से काम चलने वाला नहीं है। सिर्फ इसी बात की तारीफ करते चलने से चीजें नहीं सुधरने वाली हैं। एक तो इस प्रवृत्ति को मजबूत होना होगा। फिर कमजोर जमातों के नेताओं को अपनी हीन भावना से मुक्ति पानी होगी और द्विज नेतृत्व की भोंडी नकल से बचना होगा। उन्हें यह भी देखना-समझना होगा कि उनकी लड़ाई कितनी मुश्किल है।

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