अरविंद मोहन
किसानों से ‘मन की बात’ कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोटे तौर पर सिर्फ भूमि अधिग्रहण विधेयक की चर्चा की। पर अब बेमौसम बरसात के चलते जब किसानों की आत्महत्या और मौत की खबरें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और गुजरात के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे इलाकों से भी आने लगी हैं, तो बात राहत और पैदावार की खरीद में ढील को लेकर उठने लगी है। हेमा मालिनी भी गेहूं के दाने निकालती और न जाने किस हैसियत से राहत बांटती दिखीं। भाजपा ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बजाप्ता प्रस्ताव पारित कर और प्रधानमंत्री ने सांसदों की बैठक बुला कर भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक पर ‘दुष्प्रचार’ से निपटने और पार्टी को किसान हितैषी साबित करने का जिम्मा नेताओं-कार्यकर्ताओं को सौंप दिया।
उधर कांग्रेस में उत्साह की लहर है। राहुल की वापसी से भी ज्यादा उन्हें खेती-किसानी, भूअर्जन की यह स्थिति अपनी राजनीतिक वापसी का अचूक फार्मूला लगती है। सैकड़ों खेमों में बंटे, गिरे-पड़े-मरे किसान संगठन भी जी उठे हैं। उनके दावे या मंशा पर शक नहीं करना चाहिए। कारण चाहे जो हों, पर पहली बार मीडिया भी फसलों की बर्बादी, किसानों की मौत और भूमि अधिग्रहण को चर्चा का विषय बना रहा है।
कांग्रेस की उम्मीदें अपनी जगह गलत नहीं हैं। उसे हर कहीं से समर्थन मिलता लग रहा है। राहुल आ गए हैं तो उसमें और उत्साह आया है। जब वे अज्ञातवास के लिए निकले तो यह अफवाह थी कि वे भूमि अधिग्रहण को लेकर ही कोई मुहिम चलाना चाहते थे। जब उन्होंने सोनिया गांधी से कहा तो उनकी सलाह थी कि अहमद पटेल से चर्चा कर लो। कहते हैं कि इसी से भड़क कर राहुल चले गए। यह शुद्ध गप्प भी हो सकती है, पर 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में सामाजिक असर के मूल्यांकन और अस्सी फीसद किसानों की रजामंदी से जमीन लेने का प्रावधान उनकी वजह से ही आया, यह कहने में कोई हर्ज नहीं है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने इस विधेयक को लेकर पहले जो अध्यादेश जारी किया, फिर लोकसभा से पास होकर राज्यसभा में पेश किए जाने का इंतजार कर रहे विधेयक और दोबारा जारी हुए अध्यादेश में कई बड़े बदलाव किए, उसमें यही दो चीजें नदारद हैं, जिसके चलते आज भाजपा किसान-विरोधी और कांग्रेस किसान समर्थक मान ली जा रही है। किसानों के बारे में कांग्रेस, दूसरी सरकारों और खुद वडरा-हुडा जैसे लोगों का क्या नजरिया रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। भूमि अधिग्रहण किसान के मत्थे शहरी और चालाक लोगों को अमीर बनाने का सबसे प्रभावी हथियार रहा है। राबर्ट वडरा की तो सारी समृद्धि उसी दौर की है, जब राहुल और कांग्रेस सोशल आॅडिट और अस्सी फीसद की सहमति को भूमि अधिग्रहण कानून में जुड़वा रहे थे।
पर खुद को कांग्रेस से बड़ा किसान समर्थक बताने के पहले भाजपा को कुछ सवालों का जवाब देना होगा- राहत और आत्महत्याएं रोकने के कदम तो तत्काल उठाने ही होंगे। उसे सबसे पहले यही जवाब देना होगा कि वह क्यों 2013 के कानून में भागीदार थी और इसे एक दिन के लिए भी लागू किए बिना खारिज कर दिया गया। सत्ता में आते ही उसे क्यों ऐसा अध्यादेश लाने की जरूरत हुई, जिसमें खुद उसी ने नौ बड़े बदलाव कर दिए और जिसे कानूनी रूप देने के लिए जरूरी मंजूरी के वास्ते और भी संशोधन करने को तैयार है।
पहले अध्यादेश से कानून का झुकाव किस पक्ष में दिख रहा था, अब उसकी चर्चा करने का ज्यादा लाभ नहीं है, तो सिर्फ इसलिए कि अब भी बुनियादी रूप से यह किसान और खेती-विरोधी लग रहा है। अगर अध्यादेश ही कानून बन जाता तो हर बात के लिए और हर किसी को लाभ के लिए सरकार जमीन आबंटित कर सकती थी और कोई भी घर, स्कूल, कारखाना, दुकान वगैरह लगाने के नाम पर इस कानून की मदद ले सकता था। नई व्यवस्था अभी क्या रूप लेगी, यह कहना मुश्किल है। अभी विधेयक को राज्यसभा से पास होना है, जहां सरकार को बहुमत नहीं है। शुरू में सरकारी पक्ष ने संयुक्त अधिवेशन का नाम लेकर और नए कानून में बदलाव न करने की जिद को इस तरह का बना दिया कि अब विपक्षी खेमे से इसके लिए बीमा कानून जैसा समर्थन नहीं जुटाया जा सकता।
भाजपा ने सिर्फ यही नहीं किया है। उसने चैन से बदलाव करने, कायदे से बहस करने की जगह इतने थोड़े दिनों में ही इस विधेयक और मुद्दे का ऐसा मलीदा बना दिया है कि अब यह न किसानों के लाभ का बचा है, न उद्योगों के, और कुल मिला कर देश की अर्थव्यवस्था उलझ गई है। जब संसद के शीतकालीन सत्र में घर वापसी और अतिवादी हिंदू संगठनों द्वारा दिए बयान पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगने पर विपक्ष अड़ा तो भाजपा भी अड़ गई और इस जिद में संसद का सत्र खत्म होते ही उसने लपक कर अध्यादेश जारी कर दिया। जब सदन को छोड़ कर कई कानूनों को अध्यादेश के रास्ते लाने की आलोचना हुई और भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास अध्यादेश को किसान-विरोधी बताया जाने लगा तब सरकार ने कुछ और उलटा-सीधा काम कर दिया।
उसने सामाजिक प्रभाव का अध्ययन न करने और अस्सी फीसद किसानों से सहमति न लेने की जिद की भरपाई उन तेरह तरह के अधिग्रहणों को भी चार गुना मुआवजे वाले प्रावधान में लाकर की, जिन्हें यूपीए सरकार ने सामान्य अधिग्रहण के तहत रखा था और जिन पर मुआवजे का ही नहीं, सामाजिक प्रभाव और स्वीकृति वाला प्रावधान भी नहीं लागू होता था। (हालांकि यह मुआवजा बाजार मूल्य से नहीं, कलेक्टर द्वारा तय मूल्य से निर्धारित होता है)। एक बार यह प्रावधान कर देने के बाद भविष्य में इसे वापस लेना मुश्किल हो जाएगा। अब अगर देखा जाए तो यूपीए का कानून सड़क, रक्षा, नहर, अस्पताल से लेकर हर तरह के सार्वजनिक काम के लिए जमीन लेने वाले मामलों में आसानी वाला लगेगा और बाकी अधिग्रहण का जिम्मा भी राज्यों पर डालने वाला दिखेगा। यह भी देखा गया है कि तब कॉरपोरेट जगत ने कानून पर हाय-तौबा तो नहीं मचाई थी, राज्य भी आराम से मुआवजा कम करके काम कर रहे थे।
भूमि अधिग्रहण कानून में छूट गए कोनों को भरने, उसे सख्ती से लागू करने और उसके रास्ते में आ रही परेशानियों को दूर करने के बजाय भाजपा ने जाने किस हड़बड़ी में यह नया कानून ला दिया। यह अब किसानों से ज्यादा उद्योग जगत और रक्षा परियोजनाओं, सड़क, नहर, अस्पताल, स्कूल बनाने जैसे कामों के लिए भी भूमि अधिग्रहण मुश्किल कर देगा। अगर चार गुना मुआवजे पर जमीन लेकर कोई स्कूल खोलेगा, तो सस्ती और अच्छी शिक्षा कैसे संभव होगी। और जिस तरह सरकार के सब लोग एक सुर में विधेयक को सही बताने की मुहिम छेड़ देते हैं उसमें हैरानी होती है कि क्या किसी ने इसे ठीक से पढ़ा भी है, किसी जानकार से सलाह भी ली है या नहीं।
अब सरकार क्या करेगी, उसके लोग जनता के बीच उसकी छवि कितना बिगाड़ते-बनाते हैं और कांग्रेस और विपक्ष इसके माध्यम से सरकार को कितना परेशान करता है और खुद को किसानों का असली हितैषी बताता है, यह तो आने वाले वक्त में साफ होगा। कहने में हर्ज नहीं कि अब बिना सामाजिक प्रभाव के अध्ययन और एक सीमा तक किसानों की सहमति वाले प्रावधान के बगैर कानून लाना संभव नहीं लगता।
यही सुखद स्थिति है, वरना आज भारत और दुनिया में खेती-किसानी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। विकास की जो अवधारणा प्रभावी है उसमें तो किसान और ग्रामीण मजदूर का बच पाना भी संभव नहीं है। यह अनुमान अब काफी स्वीकृत है कि आज दुनिया में पौने चार अरब लोग खेती पर निर्भर हैं, जबकि सिर्फ पचहत्तर करोड़ लोग पृथ्वी पर मौजूद खेतों का काम पूरा कर सकते हैं। बाकी बचे तीन अरब लोग कहां जाएंगे, यह आज अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं की चिंता से बाहर हो गया है।
यह भी लगता है कि विश्वबैंक द्वारा चालीस करोड़ लोगों को गांव से हटा कर शहर में लाने के नुस्खे के चलते ही चालीस स्मार्ट सिटी बसाने और उनके लिए जमीन उपलब्ध कराने के लिए यह कानून बन रहा है। जिस चीन का मॉडल आज हमको लुभा रहा है, वहां हमारे यहां से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं- फसल मारी जाने की जगह जमीन जबरन अधिग्रहीत की जाने के चलते।
प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी किताब ‘बिटर हार्वेस्ट’ में लिखा है कि आज दुनिया में विकास के जो चार मॉडल- यूरोपीय, अमेरिकी, चीनी और जापानी- उपलब्ध हैं उन सबमें विकास के लिए किसानों की कुर्बानी ली गई है। चीनी मॉडल में माओ के समय जरूर थोड़ी चिंता देखी गई, पर आज वह गायब हो गई है। हमारे यहां गांधी ने आजादी की लड़ाई के दौरान एक वैकल्पिक और विकेंद्रित मॉडल विकसित करने का प्रयास किया था, पर यह उससे भी बड़ा सच है कि पंडित नेहरू को उस मॉडल पर रत्ती भर भरोसा नहीं था। उन्होंने जल्दी से जल्दी गांधी के स्वदेशी और पूरे दर्शन को कर्मकांड भर की चीज में बदल देने की कोशिश की।
जब नेहरू मॉडल, समाजवाद और पश्चिमी विकास का मॉडल, खारिज हुआ तो एकदम अमेरिका केंद्रित विकास का मॉडल अपना लिया गया। यह सच है कि इन पचीस-तीस वर्षों में हालत ज्यादा खराब हुई है। कई लाख किसानों ने इस दौरान आत्महत्या की। जब तक विकास का अलग मॉडल अपनाने और सारी विविधताओं का सम्मान करते हुए विकेंद्रित विकास की पहल नहीं होगी, तब तक गांव और गरीब की सुनवाई संभव नहीं है। जाहिर है, उनके लिए महामारियों और अकाल-सूखे का इंतजार ज्यादा नहीं करना पड़ेगा।
स्पष्ट है कि हमारे यहां सारी समृद्धि और तेज विकास के दावे के बीच लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं और सबको मालूम है कि पलामू और कालाहांडी में सूखा-अकाल पड़ेगा और लोग अपने बच्चों तक को बेचने को मजबूर हो जाएंगे। सबको मालूम है कि गरमी शुरू हुई नहीं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के काफी बड़े इलाके में किसी अज्ञात रोग से सैकड़ों बच्चे मरेंगे और हजारों जीवन भर के लिए अक्षम बन जाएंगे। सारी प्रगति, सारा मेडिकल टूरिज्म, सारा मंगल अभियान धरा रह जाता है और हमें बीमारी तक का पता नहीं लगता। स्थानीय डॉक्टर अंदाजे से इंफ्लुएंजा का इलाज करके रोग बढ़ाते हैं या कम करते हैं यह भी पता नहीं है।
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