बनवारी

पिछली दो शताब्दियों में यूरोपीय जाति के राजनीतिक और आर्थिक जीवन में बड़े परिवर्तन हुए हैं। इस कारण पूरे विश्व में उनके बारे में यह धारणा बैठ गई है कि वे एक उन्नत सभ्यता के वाहक हैं। विश्व के शेष सभी समाजों को सबसे पहले उनके बौद्धिक स्तर और राजनीतिक और आर्थिक उपलब्धियों तक पहुंचना है। इस मुख्यत: सामरिक विवशता ने सबको उनका अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया है और उनका ध्यान अपनी सभ्यतागत विशेषताओं को समझने और उसके अनुरूप अपनी भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने से भटक गया है। दुर्भाग्य से जब यूरोपीय जाति का भाग्योदय हो रहा था तो विश्व के अन्य सभी बड़े समाज विदेशी अधीनता में थे। अरब लोग तुर्कों के उस्मानी साम्राज्य का अंग थे, चीन पर उत्तरवर्ती मांचुओ का शासन था और भारत सीधे ब्रिटिश अधीनता में चला गया था।

ब्रिटिश अधीनता के कारण भारत के पास यूरोपीय सभ्यता के मूल स्वरूप को समझने का बड़ा अवसर था। क्योंकि एक तो केवल वह लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक सीधे उनकी अधीनता में रहा था और अपने विरोधी को समझने के लिए इतना समय पर्याप्त होता है। दूसरे, भारत विश्व की अकेली ऐसी सभ्यता है जिसके पास एक अत्यंत विकसित शास्त्रीय दृष्टि है। इस सबके बावजूद भारत अपने अत्यंत महत्त्वपूर्ण दायित्व को नहीं निभा पाया। इसका एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि लंबी विदेशी अधीनता के कारण उसमें बौद्धिक निष्क्रियता आ गई है।

हर विजयी सभ्यता अपनी श्रेष्ठता की एक कथा गढ़ती है और यूरोप के लोगों ने भी बहुत कुशलता से यह कथा गढ़ी है। उन्हें दुनिया भर को यह विश्वास दिलाने में सफलता मिल गई दिखती है कि मनुष्य का इतिहास उत्तरोत्तर प्रगति का इतिहास है और यूरोप ने पूरी दुनिया को मनुष्य के इतिहास के एक नए और अत्यंत उन्नत युग में पहुंचा दिया है। इस कथा की ही एक अंतर्कथा यह है कि यूरोप के लोग ज्ञान-विज्ञान में औरों से आगे निकल गए और उसके आधार पर उन्होंने यह नई सभ्यता रच दी। आज पूरी दुनिया उनकी इस कथा पर विश्वास करके उनका अनुकरण करने का प्रयत्न कर रही है। किसी को यूरोप का पिछली पांच शताब्दी का इतिहास भी देखने की फुरसत नहीं है। इस इतिहास से वे बड़ी आसानी से यूरोप की वाहक शक्तियों का सच्चा परिचय प्राप्त कर सकते थे।

पिछले साठ-सत्तर वर्षों में यूरोपीय विद्वानों ने अपने इतिहास को लगभग फिर से लिख दिया है और इस पुनर्लेखन के द्वारा उन्होंने अपनी कमजोरियों को छिपा दिया है और अपनी उपलब्धियों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया है। इस सबके बावजूद यूरोपीय इतिहास पर एक सरसरी दृष्टि डालते हुए भी यह समझा जा सकता है कि लगभग 1750 तक यूरोप विश्व की अन्य महत्त्वपूर्ण सभ्यताओं से ज्ञान-विज्ञान और भौतिक उन्नति में बहुत पीछे था। इस तथ्य को अनदेखा किए गए होने का एक बड़ा कारण यह भ्रम है कि विजयी जातियां विजित जातियों से निश्चय ही उन्नत होती हैं। अगर हम केवल पिछले हजार वर्ष के विश्व के इतिहास को देखें तो हमें इस भ्रामक धारणा का कोई आधार दिखाई नहीं देगा।

पिछले हजार वर्ष में दुनिया में जो उथल-पुथल हुई है उसका आरंभ चीन के उत्तर की सर्द चरागाहों में बसे कबीलों ने किया था। आज के मंगोलिया के इन क्षेत्रों से एक के बाद एक लहर में तुर्क और मंगोल आए और विश्व के बड़े हिस्से पर छा गए। तुर्कों ने अरबों की इस्लाम के जोश से भरी हुई शक्ति को कुंद कर दिया और अरब उस्मानी साम्राज्य के निचले पायदान पर चले गए।

मंगोलों ने एक तरफ आधे यूरोप को जीत लिया और दूसरी तरफ चीन जैसे विशाल साम्राज्य को रौंद डाला। ये लोग किसी उन्नत सभ्यता के वाहक नहीं थे, बल्कि जहां गए विजित सभ्यता में ढल गए। मध्य एशिया में वे मुसलमान हो गए, यूरोप में ईसाई और चीन में बौद्ध।
आज यह पढ़ कर आश्चर्य होता है कि पचास हजार मंगोल घुड़सवारों ने पांच लाख की सेना वाले चीन को रौंद डाला। मंगोल तो घुमंतू जाति के ही थे और उनके यहां पेट भरने लायक अनाज भी पैदा नहीं होता था। उनके चरागाहों में लगभग दस लाख जंगली घोड़े थे। वही उनकी शक्ति थे और कठिन दिनों में लूटपाट उनका व्यवसाय था। वे चीन को पशुओं की ऊन और खाल बेच कर अनाज चाहते थे, पर चीन की उसमें कोई रुचि नहीं थी। इसी कारण वे उन पर आक्रमण करते रहे और एक समय विजयी हो बैठे।

उसके बाद नब्बे वर्ष तक उन्होंने चीन पर उसे खूब उत्पीड़ित करते हुए शासन किया। वहीं से उन्होंने बारूद पर आधारित शस्त्रों का निर्माण सीखा। उन्हीं से यह कौशल मध्य एशिया गया और फिर वहां से यूरोप। यही कौशल यूरोप की विश्व विजय में सहायक हुआ।
उन्हीं की तरह यूरोप ने पंद्रहवीं शताब्दी में जब बाहर की ओर देखना आरंभ किया तो उसकी स्थिति बहुत दयनीय थी। लेकिन यूरोप में पिछले पांच सौ वर्षों में क्या हुआ उसे समझने से पहले हमें यूरोपीय सभ्यता की एक विशेषता को जान लेना चाहिए। यूरोप के लोगों ने अपनी सभ्यता का सातत्य अपने समाज में नहीं देखा, समाज जैसा कभी वहां कुछ रहा ही नहीं। अपना सातत्य उसने अपनी शक्ति में देखा, ऐसा शक्ति तंत्र जो अपने ही लोगों के उपनिवेशीकरण पर फलफूल रहा था। अपने लोगों से उसके संबंध का स्वरूप बदलता रहा है। पर यूनानी नगर राज्यों से लगा कर आज की डेमोक्रेसी तक उसका ढांचा वही है।

यूनान के नगर राज्यों, रोम साम्राज्य और फिर यूरोप के सामंती दौर में अस्सी-पचासी प्रतिशत जनसंख्या दासता में रहते हुए उनके शक्ति तंत्र की संपन्नता के साधन जुटाती रही थी। दस-पंद्रह प्रतिशत जनसंख्या को सीमित स्वतंत्रता प्राप्त थी। एक से तीन प्रतिशत लोग कुलीन वर्ग में आते थे जो विजेता समूहों और चर्च से संबंधित थे। सारी संपत्ति पर इसी कुलीन वर्ग का अधिकार था। यूरोप के पचासी प्रतिशत लोग अपने भोजन, आवास और दूसरी सभी आवश्यकताओं के लिए इस कुलीन वर्ग पर ही निर्भर थे। उनसे अधिक से अधिक काम लेने के लिए कुलीन वर्ग उन पर सब तरह का अत्याचार करता रहता था।

इसे आप ब्रिटेन के उदाहरण से आसानी से समझ सकते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में अपने दस हजार घुड़सवारों के साथ नार्मंडी के बिलियम द्वितीय ने इंग्लैंड को जीता और फिर पूरे देश को अपने साथियों के स्वामित्व में धकेल दिया। स्थानीय जनसंख्या उनकी दास होकर उनके उत्पादन तंत्र का साधन हो गई। यूरोप का शासक वर्ग इसी तरह के उपनिवेशीकरण से बना है। 1350 में यूरोप में भयानक प्लेग फैला और यूरोप की आधी आबादी समाप्त हो गई। उत्पादन तंत्र को चलाते रहने के लिए पर्याप्त लोग नहीं रहे तो उन्होंने यूरोप से बाहर देखना प्रारंभ किया। इसी क्रम में अमेरिकी महाद्वीप खोजा गया और वहां की दस करोड़ की आबादी को नष्ट करके उसके विशाल प्राकृतिक साधनों पर उनका नियंत्रण हो गया। लेकिन इसे संभव बनाने में लगभग दो शताब्दियां लग गर्इं। इस बीच विशेषकर ब्रिटेन में खेती की जमीन पर बाड़ लगा कर भेड़-पालन आरंभ हुआ क्योंकि ऊन के निर्यात में अधिक मुनाफा था।

खेतों से खदेड़े जाने के कारण सत्रहवीं शताब्दी तक वहां की अधिकांश आबादी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी से बेहाल हो गई थी। दूसरी तरफ अमेरिकी महाद्वीप पर नियंत्रण ने यूरोपीय शासक वर्ग को और आगे देखने के लिए प्रेरित किया और लगभग 1800 तक वे उस समय की सभी बड़ी राज्य-व्यवस्थाओं को अपनी इच्छा के अधीन करने में सफल हो गए।

यूरोप की आंतरिक परिस्थितियों ने वहां के शासक वर्ग को दुस्साहसी बना दिया था और यही उस समय के थके-हारे भारत, चीन और अरब के विदेशी शासकों पर उनके विजयी अभियानों का कारण था। इसके साथ ही अफ्रीका पर नियंत्रण भी उनकी विश्व विजय में सहायक हुआ। तुर्क और मंगोलों के मुकाबले यूरोपीय शासक यूनान और रोम के समय परिपक्व हुई राजनीतिक बुद्धि और सामाजिक कौशल से संपन्न थे। इसलिए वे यूरोप के बाहर की दुनिया को पहले राजनीतिक और फिर व्यापारिक उपनिवेश में बदल पाए।

यहां इतना ही ध्यान रखना आवश्यक है कि यूरोपीय औद्योगिक क्रांति इस विश्व विजय का कारण नहीं परिणाम थी। यूरोपीय लोगों ने बलपूर्वक शेष विश्व को अपना बाजार बनाया था। उनके राजनीतिक विस्तार के आरंभिक दिनों में तो उनके पास भारत, चीन या अरब देशों को बेचने के लिए कुछ था ही नहीं।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यूरोप की औद्योगिक क्रांति में उसकी वैज्ञानिक प्रगति की कोई भूमिका नहीं थी। उन्नीसवीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति यांत्रिक प्रक्रियाओं के परिष्कार से संभव हुई थी। भांप के इंजन, कपास से बिनौला अलग करने की मशीन या कपड़ा बुनने की मशीनरी के लिए किसी वैज्ञानिक बुद्धि की नहीं सामान्य व्यावहारिक बुद्धि की आवश्यकता थी। यूरोप की वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक उपलब्धियां बीसवीं शताब्दी में सामने आर्इं और उसकी प्रेरक शक्ति भी सामरिक स्पर्धा ही थी। यूरोप में हुए वैज्ञानिक आविष्कारों को अमेरिका ने अपना सामरिक तंत्र खड़ा करने के लिए इस्तेमाल किया। यूरोप भी युद्ध की तैयारी कर रहा था और दो महायुद्धों के बीच अपने आपको झोंक कर उसने अपने एक नए अवतरण की तैयारी की थी।

आज हम जिस औद्योगीकृत पश्चिमी दुनिया को देखते हैं वह 1950 के बाद अस्तित्व में आई है। महायुद्धों के विनाश के ऊपर 1950 और 1970 के बीच वहां एक विशाल उद्योग तंत्र खड़ा हुआ। इस नए दौर में यूरोप की सर्फ आबादी नागरिक बन गई। शिक्षा भी बीसवीं सदी के इस नए दौर की ही देन है। 1800 तक तो वहां कोई स्कूल ही नहीं थे। भारत के अनुभव पर अंगरेजों ने और फिर यूरोप ने स्कूलों का एक तंत्र खड़ा किया। यही उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रसार और विस्तार करने में काम आया।

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