केंद्र में राजग की सरकार बनने के बाद गांधी की स्वच्छता संबंधी सोच को लेकर चर्चा तेज हो गई है। पिछले वर्ष दो अक्तूबर को सांकेतिक रूप में प्रधानमंत्री से लेकर राजग के कई मंत्री, नेता तक हाथ में झाड़ू लेकर जनता को स्वच्छता का पाठ पढ़ाने सड़कों पर उतर पड़े। प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान को असरदार बनाने के लिए नौ सदस्यी मंडली बनाई। सरकारी तंत्र द्वारा इसका प्रचार भी खूब हो रहा है। इसे देखते हुए कभी-कभी लगता है कि क्या गांधी कूड़ा-कचरा बुहारने वाले एक सफाई कर्मचारी मात्र थे? सच तो यह है कि कूड़े-कचरे की सफाई गांधी की स्वच्छता संबंधी व्यापक सोच का एक छोटा-सा पहलू मात्र है।

स्वच्छता पर बात करते हुए अक्सर कबीरदास का यह दोहा याद आ जाता है: ‘नहाए धोए क्या भया जो मन मैल न जाय/ मीन सदा जल में रहे धोए बास न जाय।’ इसका मतलब यह नहीं कि कबीर नहाने-धोने का विरोध करते हैं, बल्कि वे तो यह अहसास कराना चाहते हैं कि नहाना-धोना, शरीर को साफ रखना जरूरी है, पर इतने भर से सफाई का काम पूरा नहीं हो जाता। असली सफाई का संबंध तो मन का मैल साफ करने से है, यानी मन से ईर्ष्या, द्वेष, वासना, तृष्णा जैसी दुष्प्रवृत्तियों का सफाया करना मनुष्य होने के लिए आवश्यक है। बाहरी सफाई के बावजूद मन से अगर वासनाओं का सफाया नहीं किया गया, तो मनुष्य उसी तरह गंधाता रहेगा जिस तरह जल में निरंतर वास करने के बावजूद मछली गंधाती रहती है। यानी सफाई तन से होते हुए मन तक जाए, बाह्य गंदगी के साथ-साथ अंत:करण में लोभ, कामुकता, घृणा आदि के रूप में जमी हुई काई का भी प्रक्षालन हो, तभी स्वच्छता पूर्णता को प्राप्त कर सकती है।

गांधी के जीवन-दर्शन में स्वच्छता के बाहरी और आंतरिक दोनों पक्षों का एक-दूसरे से अटूट संबंध दिखता है। यह सत्य है कि बाहरी सफाई गांधी को इतनी प्रिय थी कि वे काया, कपड़े, घर-बार से लेकर मल-मूत्र तक की सफाई के काम खुद करते थे। अपना तो अपना, दूसरों का मल-मूत्र भी साफ करने से उन्हें परहेज नहीं था। अपनी ‘आत्मकथा’ (सत्य के प्रयोग) में उन्होंने अपने सफाई संबंधी कई कार्यों का उल्लेख किया है, जिनका संबंध उनके कपड़े धोने, हजामत बनाने से लेकर मल-मूत्र तक की सफाई से था। उनके लिए सफाई का मतलब तड़क-भड़क वाली पोशाक पहनना, भव्य मकान में रहना नहीं था, न नाना आभूषणों से शरीर को सजाना था। उनकी सफाई सादगी का पर्याय थी। साफ-सुथरे पहनावे से लेकर मिट्टी, बांस, खपरैल से बने मकानों की सादगी ही उन्हें पसंद थी। उनके दक्षिण अफ्रीका में बनाए फीनिक्स आश्रम से लेकर अमदाबाद के साबरमती, वर्धा के सेवाग्राम, बिहार के भीतिहरवा जैसे आश्रमों को देख कर इस सत्य का पता चल जाता है।

दरअसल, गांधी की स्वच्छता प्रकृति की संगति में सन्निहित थी। पर अब तो स्वच्छता के नाम पर भव्यता-प्रदर्शन के लिए प्रकृति-विरोधी कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। आज का स्वच्छता अभियान हमारे दोहरे चरित्र को उजागर करता है। पहले हम गंगा को औद्योगिक और घरेलू कचरे से गंदा करते हैं, फिर उसकी सफाई के लिए करोड़ों रुपए की योजनाएं बनाते हैं, जिनमें गंगा की सफाई कम होती है, योजनाकारों की तिजोरी अधिक भरती है।

यही नहीं, स्वच्छ आवास, विलासितापूर्ण रहन-सहन के लिए नदी, पहाड़, जंगल सबकी हम ‘सफाई’ करते जा रहे हैं, जो गांधी के स्वच्छता संबंधी सिद्धांतों का सरासर हनन है, क्योंकि उनका मानना था कि हमारी जीवन-शैली ही ऐसी हो जो अधिक से अधिक प्रकृति के साथ तालमेल करके चले। न अतिशय औद्योगीकरण से नदियों का नाश करें, न पर्यावरण प्रदूषण करें, न प्रकृति का क्षरण करें। भारत को ‘स्वच्छ’ बनाने के नाम पर परमाणु संयंत्र, स्मार्ट सिटी, बहुमंजिली इमारतों के जाल आदि के अभिलाषी हमारे विकास-पुरुषों को गांधी के इस गूढ़ स्वच्छता-बोध पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

गांधी के सफाई-सरोकार केवल बाहरी जगत तक सीमित नहीं थे। यह तो उनके जीवन-दर्शन की पहली सीढ़ी थी, जिससे होते हुए वे आंतरिक सफाई- मन के मैल की सफाई- तक खुद पहुंचे और वहां तक पहुंचने का वे दूसरों से भी लगातार आग्रह करते रहे। गांधी के स्वच्छता-बोध का परम लक्ष्य था मनुष्य का हृदयांतरण- जिसमें द्वेष, हिंसा, लोभ, विषयासक्ति आदि का कोई स्थान न हो। इस संबंध में उन्होंने जितना लिखा-कहा और किया, उतना बाह्य स्वच्छता के संबंध में नहीं। आंतरिक सफाई के लिए तो उन्होंने अपने पूरे जीवन को ही प्रयोगशाला बना डाला।

भारत और पश्चिम के पुराने और आधुनिक विचारकों के संपर्क में आकर गांधी इस धारणा के कायल हो चुके थे कि जब तक मन के विकारों पर काबू नहीं होगा, मनुष्य का चित्त चंचल रहेगा और तब वह अच्छे काम करने के बजाय गंदी आदतों और दुर्व्यसनों का शिकार होकर सामाजिक जीवन में गंदगी फैलाने का कारण बनेगा। उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में सभ्यता को परिभाषित करते हुए जो लिखा: ‘सभ्यता वह आचरण है, जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के माने है नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उल्टा है वह बिगाड़ करने वाला है।’

गांधी की दृष्टि में सभ्य होने के लिए केवल तन, वस्त्रों, सड़कों, घर का स्वच्छ होना पर्याप्त नहीं, बल्कि मन का विकार-रहित होना अधिक आवश्यक है, क्योंकि मन में अगर मैल हो तो आदमी न खुद को पहचान सकता है, न नीति का पालन कर सकता है। यानी गांधी का स्वच्छता-बोध पूर्णत: एक नैतिक मूल्य है। इसे साधने के लिए ही उन्होंने ब्रह्मचर्य के महत्त्व को रेखांकित किया। उन्होंने खुद ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन शुरू किया और उसका निर्वाह जीवन के आखिरी पहर तक किया। ब्रह्मचर्य का पालन वे हर व्यक्ति के लिए आवश्यक मानते थे, क्योंकि यही समस्त विकारों के दमन और इंद्रियों को वश में रखने का अमोघ अस्त्र था।

इंद्रियों को वश में करने और मन का मैल साफ करने के क्रम में ही गांधीजी ने अपने आश्रमों में सुबह-शाम प्रार्थनाएं करने का सिलसिला चलाया। उनके आश्रम में हिंदू, ईसाई, इस्लाम, पारसी आदि सभी धर्मों से जुड़ी प्रार्थनाएं गाई जाती थीं। पर इसके लिए उन्होंने मंदिर, देवालय निर्माण या मूर्ति-स्थापना को कतई आवश्यक नहीं समझा। ये प्रार्थनाएं खुले आकाश के नीचे, दसों दिशाओं से घिरे प्रांगण में सार्वजनिक रूप से होती थीं। नवजीवन प्रेस अमदाबाद ने ‘आश्रम भजनावलि’ नाम से गांधी द्वारा गवाए जाने वाले भजनों का एक संग्रह छापा है, जिसमें दो सौ से अधिक भजन हैं।

इन भजनों से साफ पता चलता है कि गांधीजी ने मन और इंद्रियों को वश में करने और त्याग, अपरिग्रह, सेवा, सादगी, करुणा, दया, क्षमा, सहिष्णुता आदि का महत्त्व दर्शाने वाले भजनों को ही महत्त्व दिया है। गांधी के स्वच्छता-बोध को संपूर्णता में समझने के लिए इन भजनों में भी पैठना आवश्यक है।

दरअसल, मनुष्य के अंत:करण से लोभ, क्रोध, हिंसा, विलासप्रियता आदि को दूर करते हुए आवश्यकताओं के सीमित, छोटे घरौंदे में जीवन-यापन को श्रेयस्कर मानते हुए गांधी विकास के नाम पर फैलती दैत्याकार मशीन केंद्रित उत्पादन पद्धति के बरक्स शारीरिक श्रम पर आधारित और अतिशय भोग, लोभ, कामासक्ति आदि को नियंत्रित करने वाले जिस उद्योग-तंत्र की वकालत करते हैं, वही जर्मन दार्शनिक शुमाखर की ‘स्माल इज ब्युटीफुल’ नामक पुस्तक में विवेचित होकर सामने आया है। पर खेद का विषय है कि गांधी के इस आंतरिक स्वच्छता-बोध से हमारा रिश्ता छत्तीस का होता जा रहा है। विकास के नाम पर नाना प्रकार की अवांछनीय, अनावश्यक सामग्री का उत्पादन कर कृत्रिम आवश्यकताओं को, उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। अब आवश्यकता आविष्कार की जननी नहीं रही, बल्कि आविष्कार आवश्यकता का जनक हो चला है।

हमारे यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों को जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी अर्थ और काम पर धर्म और मोक्ष को ही वरीयता दी गई। पर अब धर्म और मोक्ष को हाशिये पर करते हुए भारत भी पश्चिम की तर्ज पर अर्थ और काम की ओर तेजी से भाग रहा है। इसके फलस्वरूप जहां समाज हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, प्रकृति प्रदूषण आदि से विरूप होता जा रहा है, तो व्यक्ति विविध व्याधियों का शिकार होता जा रहा है। कहने को तो उपचार के लिए बड़े-बड़े अस्पताल, नर्सिंग होम धड़ल्ले से खुलते जा रहे हैं, डॉक्टरों की फौज तैयार होती जा रही है विकास के नाम पर, पर यह सब विकास के लक्षण हैं या अत्यधिक बीमार होते जाने के, यह एक विचारणीय प्रश्न है। पूरा समाज विकृतियों और व्याधियों का मंदिर बनता जाए, आदमी का मन धन और पद-लोलुपता, प्रतिहिंसा, कामासक्ति का भंडार बनता जाए, तो ऐसे में सिर्फ सड़कों पर झाड़ू लगाने का क्या औचित्य रह जाता है!

गांधी का स्वच्छता-बोध केवल घर बुहारने या कचरा साफ करने तक सीमित नहीं है, बल्कि वह इससे आगे बढ़ कर व्यक्ति के भौतिक जीवन से लेकर अंत:करण तक की स्वच्छता से संबद्ध है। गांधी के नाम पर स्वच्छता अभियान चलाने वालों को उनके समग्र स्वच्छता-बोध को आत्मसात कर क्रियान्वित करना होगा। ऐसा करके ही हम धरती की जंगल, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी जैसी न्यामतों को बचा सकते हैं, क्योंकि इनका बचे रहना मनुष्य जाति के बचे रहने के लिए अपरिहार्य है- यही सबक सिखाता है गांधी का स्वच्छता-बोध।

(श्रीभगवान सिंह)

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