शीतला सिंह
बाबरी मस्जिद विध्वंस के जो दो मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं, एक की सुनवाई लखनऊ और दूसरे की रायबरेली की अदालत में हो रही है। बाबरी मस्जिद और सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से पैरवी करने वाले एक पैरोकार हाजी महबूब ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है कि जिन लोगों के खिलाफसुनवाई होने वाली है उनमें केंद्रीय गृहमंत्री सहित भाजपा के कई बड़े नेता भी हैं और इस बात की पैरवी सीबीआइ कर रही है जो केंद्र सरकार के अधीन संस्थान है, इसलिए अनुचित दबावों और प्रभावों से बचने का कोई वैकल्पिक रास्ता चुना जाना चाहिए, जिससे कमजोर सुनवाई के फलस्वरूप आरोपियों को लाभ न मिल सके।
यह सारा प्रकरण राजनीति पर आधारित है इसलिए समाधान के प्रयत्न कम हो रहे हैं। इसे तब तक लंबा खींचने का प्रयास किया जा रहा है जब तक इसका लाभ उठाया जा सके। इस रूप में पैंसठ वर्षों में बाबरी मस्जिद संबंधी मामला, जो धारा-145 में कुर्क होकर स्वामित्व के निर्धारण के लिए धारा-146 में सिविल कोर्ट गया था, उसमें निरंतर नए-नए पक्ष, तर्क और साक्ष्य जुड़ने लगे। इसलिए यह आज भी सर्वोच्च न्यायालय में अपील के रूप में विचाराधीन है। अगर नीचे की अदालत का फैसला होता तो उसकी अपील उच्च न्यायालय में होती, लेकिन चूंकि यह उच्च न्यायालय के ही तीन जजों द्वारा निर्णीत है इसलिए न्याय के स्वाभाविक सिद्धांतों और विधिक प्रक्रिया के अनुसार इसका अपीलीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय ही है, लेकिन न तो न्यायालय इसके लिए प्राथमिकताओं का निर्धारण कर रहा है और न ही दोनों पक्षों में संयुक्त इच्छाशक्ति ही इसके निर्णय के लिए है।
बाबरी मस्जिद मामले में दो नए प्रकरण भी जुड़े हैं। एक तो विध्वंस के लिए दोषियों और उत्तरदायी लोगों का। दूसरा, तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पर, न्यायालय की मानहानि का, जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय को हलफनामा देकर बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के लिए आश्वस्त किया था। दूसरे मामले में एक पेच यह भी है कि अब उस समय के मुख्यमंत्री राजस्थान के राज्यपाल हैं। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार उन्हें मुकदमों से उन्मुक्तियां प्राप्त हैं, इसलिए पद से सेवामुक्ति के तीन महीने बाद ही उन्हें न्यायालय में तलब किया जा सकता है।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के दो मामलों में लालकृष्ण आडवाणी और बड़े नेताओं से जुड़ा प्रकरण अलग होकर रायबरेली की अदालत में उसकी सुनवाई हो रही है। पहले इसके लिए जारी विज्ञप्ति में दोष के कारण इसे मूल वाद से अलग कर दिया गया था और सुनवाई भी बंद हो गई थी। लेकिन बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सुनवाई अलग से करने का निर्देश दिया और राज्य सरकार को इसके लिए नई विज्ञप्ति भी जारी करनी पड़ी, क्योंकि कानून और व्यवस्था केंद्र का नहीं राज्य का विषय है। इसलिए केंद्रीय जांच ब्यूरो न्यायालय के आदेश से अलग सुनवाई के लिए मामला तैयार करने और पैरवी करने का दायित्व निभा रहा है। पर यह गौरतलब है कि जांच करने वाली एजेंसी, चाहे राज्य की रही हो या केंद्र की, इनकी भूमिकाएं निरंतर विवादास्पद रही हैं।
यह मामला भी पुलिस की जिस प्रथम सूचना रिपोर्ट पर चल रहा था उसमें उन अभियुक्तों को जमानत के दौरान ही दोषमुक्त कर दिया गया था, क्योंकि पुलिस की ओर से जो आरोपपत्र दाखिल किया गया था वही दोषपूर्ण था, जिसमें कहा गया था कि अभियुक्तों ने मंदिर समझ कर उसमें मूर्ति रख दी और अदालत ने इस गलती के लिए अभियुक्तों को जेल में बंद होने के तीन महीने बाद ही मुक्त कर दिया था।
इसी प्रकार केंद्र और राज्य सरकार के सुरक्षा बलों की उपस्थिति में और सर्वोच्च न्यायालय के यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश तथा राष्ट्रीय एकता परिषद में दिए गए वचनों से हट कर इसका विध्वंस हुआ और पुलिस ने डंडे तक नहीं उठाए।
जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो रहा था तो पुलिस के अधिकारी, जो सुरक्षा के लिए तैनात थे, नाच कर खुशियां मना रहे थे। इससे यही लगता है कि जो कुछ हुआ वह केंद्र और राज्य, दोनों की इच्छाओं का ही परिणाम था। अगर केंद्र की इच्छाशक्ति विध्वंस से बचाने की होती तो मुख्यमंत्री का इस्तीफा स्वीकार करके केंद्रीय शासन के तहत वह व्यवधान टाला जा सकता था जिसके लिए तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व को आरोपित किया जा रहा है। यानी जब तक यह विध्वंस पूरा नहीं हुआ तब तक मुख्यमंत्री अपने पद पर यथावत बने रहे।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले के आरोपियों लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह सहित उन सभी को नोटिस जारी किया है कि वे इस याचिका के संबंध में अपना पक्ष प्रस्तुत करें, जो नितांत स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसे किसी के खिलाफ कार्रवाई के रूप में नहीं लिया जा सकता। अब सवाल उठता है कि अगर केंद्रीय जांच ब्यूरो दबाव के कारण दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सकता तो राज्य में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार सरकारें आया-जाया करती हैं, उनकी सुनवाइयों को प्रभावित होने से कैसे बचाया जाएगा? इन सरकारों को तो विचाराधीन मामलों को वापस लेने या दोष सिद्ध होने के बाद भी अभियुक्तों को क्षमा करने तक के अधिकार हैं। इसलिए यह दोष तो व्यवस्थाजन्य है जिसे संविधान में संशोधन से ही दूर करना संभव होगा।
लेकिन राज्य के अधिकारों को कम करने का पक्षधर कोई भी दल नहीं है। इसलिए फिर आ करके मामला वहीं फंस जाता है कि आखिर इस मामले से जुड़ी सांप्रदायिक भावना का लाभ उठाने और उसके प्रभावों से बचने के लिए क्या किया जा सकता है। एक मामला तो अभी हाशिमपुरा में बयालीस लोगों की पीएसी हिरासत में गोली मार कर लाशें नहर में फेंक देने का भी था, जिसमें सभी सोलह अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया गया। उस कांड को लेकर एक पुलिस अधिकारी की प्रतिक्रिया यही थी कि शुरू से ही इस मामले को कमजोर करने और दोषियों को बचाने का प्रयास हो रहा था। लेकिन सरकारों की क्या भूमिका थी, आखिर उन्होंने इसे क्यों नहीं रोका, इस पर तो प्रश्न ही नहीं उठे।
इसी प्रकार बिहार में दलित हत्या के दो मामलों में भी सारे अपराधी रिहा हुए। आरोप यही था कि मारे गए लोगों के प्रति सहानुभूति और परिवार को न्याय मिले यह भावना पैदा ही नहीं हुई, जो खाली डंडे और निदेर्शों से नहीं बल्कि अंदर से जन्मती है। जब सांप्रदायिकता राजनीति का अंग बन जाती है, जिसका समय-समय पर लाभ उठाने से राजनीति नहीं चूकती, तो मामले की जांच कोई भी करे उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। फिर यह सवाल जांच, सुनवाई, पैरवी और दंड देने वालों के संबंध में उठेगा ही कि आखिर उनका विवेक किस ओर से कहां और कैसे झुकता है। बाबरी मस्जिद के मामले में तो कुछ अधिकारी भी जब यह कहते सुने जाते हैं कि अब किसी की यह हैसियत ही नहीं है कि इसका प्रतिकूल निर्णय, जिसे न्यायिक अवधारणा पर आधारित बताया जा रहा है, कर सके। इसलिए इसका समाधान विवेक और आपसी समझदारी के विकास और सर्व-स्वीकार्य फैसले से ही संभव है।
बाबरी मस्जिद जैसे विवादों से मुक्ति के लिए ही अयोध्या विशिष्ट क्षेत्र अधिग्रहण अधिनियम बना था, जिसकी एक धारा, जो विचाराधीन मामलों के समापन से संबद्ध थी, न्यायिक सिद्धांत की इस प्रतिकूलता के कारण कि उन वादों के वैकल्पिक विचार के लिए किसी एजेंसी को अधिकार नहीं दिया गया था, रद्द हो गई थी। इसके कारण यह मामला पुन: उच्च न्यायालय चला गया और अगर यह सफल भी हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने उस अधिग्रहण के शेष कानून को पूर्णतया न्यायसंगत और विधिक बताया था, जिसमें यह व्यवस्था भी थी कि अधिग्रहीत क्षेत्र में राममंदिर, मस्जिद, पुस्तकालय, वाचनालय और संग्रहालय तथा सार्वजनिक उपयोगिता सेवा जैसे पांच निर्माण होंगे। अब इस पर अमल आसान हो गया है।
इसलिए जो हो गया उसके लिए दंडित करने के नाम पर इसे लंबी अवधि तक बनाए रखना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इसके कई आरोपितों को पद्मभूषण जैसे सम्मान और एक को तो राज्यपाल जैसा संवैधानिक पद दिया गया है। उन्मुक्तियों के कारण इनके पद पर रहने तक की अवधि में तलब ही नहीं किया जा सकता। इसलिए अब इसके भविष्य के लिए संसद ने जो कानून बनाया था उस पर आगे क्या हो इस पर विचार किया जाना चाहिए।
जहां तक केंद्रीय जांच ब्यूरो का प्रश्न है, उस पर सर्वाधिक विश्वास किया जाता है, लेकिन वह भी दोषों के लिए आलोचनाओं से मुक्त नहीं है। आखिर उसका गठन भी तो किसी स्वर्गलोक के लोगों में से नहीं बल्कि राज्य पुलिस के लोगों में से ही होता है। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि मानवीय दोषों और प्रवृत्तियों से मुक्ति और आदर्शलोक की कल्पनाएं केवल सजा और दांडिक प्रावधानों से संभव नहीं हैं। लोकतंत्र में जो लोग सत्ता में आते हैं उनका विवेक भी पार्टी की मान्यताओं, विचारों और स्वार्थों से बहुत भिन्न नहीं होता। इसलिए न्यायिक विवेक की खोज कैसे होगी, यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है।
देश की जनता तो जानती ही है कि भीड़ किसने जुटाई, वह किस उद्देश्य के लिए जुटाई गई थी, वह सुरक्षाकर्मियों को क्या निर्देश दे रही थी जिससे वे निष्क्रिय बैठे रहे। विध्वंस के दूसरे दिन राष्ट्रपति शासन में जिस अस्थायी मंदिर का निर्माण हुआ और अल्पसंख्यकों के दो सौ सड़सठ घर और दूकानें जलाई गर्इं, सोलह लोगों की जला कर या पीट-पीट कर हत्या की गई उससे तो यही सिद्ध होता है कि राष्ट्रपति शासन में भी व्यवस्थाकार वही थे जो विध्वंस के समय थे। जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक भी इस मामले के आरोपियों में हैं जो अभी तक मुकदमे से मुक्त नहीं हो पाए हैं, इसलिए भविष्य की चिंता अधिक महत्त्वपूर्ण है।
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