करीब एक दशक पहले (वर्ष 2004) की घटना है, जब जापान के इंजीनियर मत्सू काजू हिरो भारत स्थित एक कंपनी के काम से दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड््डे पर उतरे। एक घंटे तक कंपनी की गाड़ी उन्हें लेने नहीं आई, तो इस विलंब से नाराज होकर वापसी की उड़ान पकड़ कर वह तुरंत स्वदेश लौट गए। हाल में, कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने एयर इंडिया की लेटलतीफी पर नाराज होकर दी है। उन्हें एयर इंडिया के जिस विमान से हैदराबाद में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण सरकारी बैठक में जाना था, वह विमान पायलट के समय पर नहीं पहुंचने के कारण समय पर उड़ान नहीं भर पाया। घंटों के इंतजार के बाद नायडू लौट गए और नाराजगी में सोशल मीडिया पर ट्वीट कर एयर इंडिया से यह कहते हुए जवाब मांगा कि प्रतिस्पर्धा के इस युग में एयर इंडिया इतनी लेटलतीफी आखिर कैसे कर सकती है। एयर इंडिया ने भले ही इस मामले में मंत्रीजी से माफी मांग ली है, पर इस सरकारी उपक्रम में विलंब का यह पहला वाकया नहीं है। सिर्फ एयर इंडिया नहीं, दूसरे तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों का दफ्तर देर से पहुंचना बेहद आम है और इसे लेकर कोई बड़ी हलचल देखने को नहीं मिलती।

एयर इंडिया के यात्री तो शिकायत करते हैं कि ऐसा विलंब वहां रोजमर्रा की बात है। अगर वेंकैया नायडू को इस उड़ान से जाना नहीं होता, तो शायद यह मुद््दा इतना उछलता भी नहीं। ऐसा लगता है कि वक्त की कीमत नहीं समझना और आधा घंटा देरी संबंधी भारतीय मानक समय के कुख्यात मुहावरे को एयर इंडिया ही नहीं, हमारे सरकारी कर्मचारियों ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है। यह स्थिति तब है, जबकि केंद्र सरकार इस बारे में कई बार चेतावनी तक जारी कर चुकी है। लगातार आग्रह के बावजूद इसमें कोई सुधार होता नहीं देख सरकार ने लेटलतीफ कर्मचारियों पर नजर रखने और उन पर कार्रवाई करने की कुछ पहलकदमियां भी की थीं।

इस संबंध में एक उल्लेखनीय पहल कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की तरफ से एक निर्देश जारी करते हुए की गई थी, जिसमें कहा गया कि सरकारी कर्मचारियों के लिए आदतन देर से दफ्तर आना दंडनीय अपराध है और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई की जा सकती है। इसके लिए सेवा नियमों (नौकरी संबंधी नियमावली) का हवाला दिया गया था। इस संबंध में जारी आदेश में कहा गया कि सरकारी कर्मचारियों के लिए समय की पाबंदी की जरूरत के बारे में समय-समय पर निर्देश जारी किए जाते हैं, उनका पालन होना चाहिए। कर्मचारियों के लिए समय की पाबंदी सुनिश्चित करने का दायित्व मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों का है, इसलिए उनके अधिकारियों को कर्मचारियों की उपस्थिति का रिकॉर्ड रखने को कहा गया था।

पर आदेशों-निर्देशों का जारी होना एक बात है, उनका नियमित पालन होना दूसरी बात। अक्सर देखा गया है कि जिन कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने के आधुनिक तौर-तरीके अपना लिये गए हैं, वहां भी उपस्थिति का रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। इससे कुछ समय बाद यह पता नहीं चलता कि कौन-सा कर्मचारी एक निश्चित समयावधि के बीच आदतन समय पर नहीं आता रहा है। पिछले वर्ष जारी निर्देश में यह सुझाया गया था कि एक सरकारी कर्मचारी के लिए एक हफ्ते में चालीस घंटों (आठ घंटे प्रतिदिन) की उपस्थिति अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में किसी भी कारण से यदि कोई कर्मचारी महीने में दो बार तीस मिनट की देरी से आता है, तो उसे समय की पाबंदी में छूट मिल सकती है, लेकिन तीसरी बार इतनी ही देरी पर उसकी आधे दिन की छुट्टी काट ली जाएगी। यही नहीं, यदि वह आदतन ऐसा करता रहता है, तो वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट (अप्रेजल) में उसके बारे में नकारात्मक टिप्पणी की जा सकती है।
सरकारी विभागों में काम के वक्त अधिकारियों-कर्मचारियों का नदारद रहना और अपनी कुर्सी पर देर से आना खासकर तब अखरता है, जब उस अधिकारी-कर्मचारी के जिम्मे जनता से जुड़े कामकाज हों। ऐसी स्थिति में लोग लंबी लाइन लगा कर कर्मचारी-अधिकारी के दफ्तर और अपनी सीट पर विराजमान होने का इंतजार करते रहते हैं। ऐसे कर्मचारी को यदि कोई व्यक्ति भूलवश देरी से आने के लिए कोई बात कह दे, तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का कोई काम हो पाना नामुमकिन ही हो जाता है। यही नहीं, दफ्तर आकर भी अपनी सीट से गायब हो जाना ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों की आदत में शुमार हो गया है। वे घंटों तक दफ्तर तो क्या, उसके आसपास तक नजर नहीं आते, भले ही लाइन में जनता अपने सौ काम छोड़ कर वहां इंतजार ही क्यों न कर रही हो। इन मुश्किलों का समाधान क्या है? संभवत: उपस्थिति को दर्ज करने वाली व्यवस्था को दुरुस्त करके इस मर्ज का एक हल खोजा जा सकता है।

अभी ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में उपस्थिति दर्ज करने की पुरानी व्यवस्था चली आ रही है, जिसमें कर्मचारी टाइम आॅफिस में रखे रजिस्टर में अपने नाम के आगे हस्ताक्षर करते हैं। इसमें प्राय: समय के उल्लेख का कोई प्रावधान नहीं होता। यदि समय दर्ज किया जाता है, तो जरूरी नहीं कि वह एकदम सही लिखा जाए और महीने के आखीर में उस उपस्थिति के आधार पर कर्मचारी की छुट्टियों और वेतन का समायोजन किया जाए। इसमें भी बाबुओं की मिलीभगत से कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वर्षों तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता रह सकता है। ऐसे दर्जनों किस्से उजागर हो चुके हैं जब कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वेतन लेता रहता है।

उपस्थिति की व्यवस्था के आधुनिकीकरण का तब भी कोई फायदा नहीं, जब तक कि दफ्तर आए कर्मचारी की अनिवार्य मौजूदगी के प्रमाण न जुटाए जाएं। कार्ड पंचिंग के तौर-तरीकों के दुरुपयोग की भी सैकड़ों मिसालें मिल चुकी हैं। ऐसी व्यवस्था में भी तब मिलीभगत एक कामयाब नुस्खे के तौर पर आजमाई जाती रही है, जब एक दूसरे के कार्ड से कर्मचारी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे हैं। यही वजह है कि सरकार उपस्थिति दर्ज करने के मौजूदा तौर-तरीकों को खत्म कर उनकी जगह ऐसा बायोमीट्रिक सिस्टम लागू कर रही है जो सारे मैन्युअल सिस्टम की जगह ले सके। आधार एनेबल्ड बायोमीट्रिक अटेंडेंस सिस्टम (एईबीएएस) नामक इस प्रणाली में कर्मचारी की उंगलियों व आंखों की पुतलियों की छाप ली जा सकेगी, जिससे उपस्थिति की धांधलियों पर काफी हद तक रोकथाम की उम्मीद है।

पर ये सिर्फ यांत्रिक उपाय हैं। ऐसे में इसकी भरपूर आशंका आगे भी रहेगी कि बेईमान कर्मचारी इनका कोई न कोई तोड़ निकाल लें। इसलिए बड़ा सवाल नीयत या कार्य संस्कृति का है। अगर नियमों का पालन डंडे के बल पर करवाना पड़े, तो इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। आखिर हमारे देश में ऐसी कार्य संस्कृति क्यों नहीं विकसित हो पा रही है जिसमें वक्त पर दफ्तर आना, सौंपे गए काम और जिम्मेदारी का समर्पण के साथ निर्वाह करना और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना लोग जरूरी समझते हों।

देश में जो नई कॉरपोरेट संस्कृति पनप रही है, उसमें देर से दफ्तर आने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती है। वहां लेटलतीफों के लिए पर्याप्त दंड की व्यवस्था है जिससे कर्मचारी वक्त के पाबंद रहते हैं। अचरज इस बात को लेकर होता है कि सरकारी कर्मचारियों ने इस बदलाव का जरा भी नोटिस नहीं लिया है। वे शायद इसका इंतजार कर रहे हैं कि सरकार जब तक उन पर पाबंदियां नहीं लगाएगी, वे तब तक नहीं सुधरेंगे। पर समस्या यह है कि कोई सरकार इसमें भी ज्यादा जोर-जबर्दस्ती नहीं कर पाती है क्योंकि तब उसे अगले चुनावों में हार की आशंका होती है। इस सिलसिले में एक दावा यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस प्रकार सरकारी कार्यालयों में बायोमीट्रिक हाजिरी लागू करवाने की बात कही थी, उससे सरकारी कर्मचारियों में काफी नाराजगी थी। बताते हैं कि इसका बदला उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनावों में लिया। ऐसी सूरत में सरकारी कर्मचारियों को सख्त कायदों के बल पर दफ्तरों में उपस्थित रहने को मजबूर करना सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।

इसलिए ज्यादा जरूरत लोगों को यह समझाने की है कि समय को लेकर उनकी काहिली देश और समाज ही नहीं, खुद उनके लिए भी दिक्कतें पैदा करती है। उन्हें ऐेसे उदाहरण देने की जरूरत है कि जिन छोटे-से देशों ने मामूली संसाधनों के बल पर करिश्मे किए हैं, उसमें उनकी कार्य संस्कृति का बड़ा भारी योगदान है। जापान में लोग सिर्फ देर से दफ्तर जाना अपराध नहीं मानते हैं, बल्कि दफ्तर पहुंच कर दिए गए काम को न कर पाना भी उनमें अपराध-बोध पैदा करता है।

ध्यान रहे कि छोटे-छोटे देशों ने घड़ी की सुइयों के साध कदमताल करके ही विकसित होने की राह खोली है। अब तो ऐसे उदाहरण देश में ही कई निजी कंपनियां पेश कर रही हैं। उन्होंने साबित कर दिया है कि कार्य संस्कृति को बदलने से कितना बड़ा फर्क किसी संस्थान की तरक्की पर पड़ता है। सरकारी और निजी बैंकों के कामकाज में अंतर तो हर व्यक्ति आज महसूस करता है। लगभग ऐसा ही नजारा हर उस क्षेत्र में हैं, जहां निजी संस्थान सरकारी संस्थानों के मुकाबले में आ खड़े हुए हैं। देखना है कि क्या बायोमीट्रिक सिस्टम सरकारी कर्मचारियों को वक्त का पाबंद बनाता है या फिर सरकारी दफ्तरों में यह उपाय भी आधुनिकीकरण का महज एक पैबंद बन कर रह जाता है।