मोदी जी ने हमें दो बडे ‘सामाजिक संबोधन’ दिए। एक: ‘सवा सौ करोड़ देशवासी’। दूसरा: ‘पैंसठ फीसदी आकांक्षी युवा’। उत्तर प्रदेश के चुनाव तक मोदी जी की जनसभाओं में आती भीड़ों को जब वे इन दो संबोधनों से नवाजते थे तब सामने बैठे ऐसे ही युवाओं के मुंह से ‘मोदी मोदी’ निकलता था। ये सीन कंपलीट कम्यूनिकेशन होते। वे ऐसे सीनों को बनाने वाले एकमात्र नेता हैं। ऐसी तुरंता हाजिर जवाब इच्छित प्रतिक्रिया देने वाली भीड़ पिछले पच्चीस-तीस साल में किसी नेता ने नहीं बनाई। ‘सवा सौ करोड़ देशवासी’ का संबोधन ‘जनता’ शब्द की अपेक्षा कुछ नया और ‘सबको शामिल करने वाला’ लगता, लेकिन इन देशवासियों में ‘पैंतीस बरस से कम उम्र के पैंसठ फीसद आकांक्षी युवाओं’ का ‘युवा’ भी मोदी जी की एक निराली निर्मिति (कंस्ट्रक्ट) थी। यों तो हर युवा पीढ़ी आकांक्षी (एस्पिरेशनल) होती है लेकिन मोदी जी ने इसे जिस तरह से बार-बार बताया उससे युवा और आकांक्षा शब्द एक दूसरे के पूरक-से बन गए। यही युवा पीढ़ी आज सर्वत्र नाराज है।
इस नाराजी को समझने के लिए मोदी जी के उक्त संबोधन महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे संबोधनों को ध्यान से ‘पढ़ा’ जाना चाहिए। लेकिन प्राय: नहीं पढे जाते। मोदी से चिढ़ने वाले आलोचकों की आलोचना में उनकी चिढ़ या घृणा माथे पर लिखी रहती है। ऐसे लेखक तर्कों को या तो ‘पॉलेमिकल’ बनाते हैं या शुष्क आंकड़ों के बरक्स आंकड़ों की बहसों में बदल देते हैं। ऐसी आलोचनाएं मोदी जी की अचूक संबोधन की शैली और उनके भाषागत कंस्ट्रक्ट और उसके असर के बारे में बात नहीं करतीं, जबकि मोदी अगर मोदी हैं तो अपनी शैली के साथ ही मोदी हैं, उसके बिना नहीं हैं। और वे तभी ‘पढे’ जा सकते हैं जब मोदी या संघ के प्रति बिना किसी निजी चिढ़ के उनके ऐसे भाषागत कंस्ट्रक्ट्स के छूटे हुए असरों का अध्ययन किया जाए जैसे कि ‘पैंसठ फीसदी युवा आकांक्षी पीढ़ी’- संबोधन का असर!अब जब यही पीढ़ी जगह-जगह से निकल अपनी बेचैनियों, अपनी निराशाओं को कहीं प्रदर्शनों, कहीं आंदोलनों, कहीं हिंसक झड़पों में व्यक्त कर रही है तब भी इसे ‘स्थानीय राज्य में बनी या विपक्ष द्वारा बनाई कानून व्यवस्था की समस्या’ की तरह देखा जा रहा है। इन अकुलाहटों, बेचैनियों और नाराजियों में उनकी जगा दी गई आकांक्षाओं के पूरे न होने की निराशाएं घनीभूत हो रही हैं, यह नहीं सोचा जा रहा।
तीन साल से लगातार इस युवा पीढ़ी को उसके आकांक्षित होने के लिए सजग किया गया है और अब वे ही आकांक्षाएं आहत और निराश होकर शिकायत कर रही हैं तो या तो इसे स्थानीय मुद््दा मान कर खारिज किया जा रहा है या कि इन निराशाओं के मरने का इंतजार किया जा रहा है, जबकि ये निराशाएं हैं जो मर के नहीं दे रही हैं। वे कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में सिर उठा रही हैं क्योंकि अब वे अपने को पहली बार ‘परिभाषित’ कर रही हैं, अपना एक नक्शा बना रही हैं। आपने सपने दिखाए। अब आप ही उनको पूरे करें! वही कि ‘तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना’ वाली पुकार, लेकिन इस बार किसी हीरोइन के प्रेम निवेदन के रूप में नहीं है, एक गहरे ‘शिकायत गीत’ के रूप में है। मोदी से उम्मीदें थीं, उम्मीदें हैं। हमारी आकांक्षाओं को मोदी पूरा करेंगे क्योंकि वे उन आकांक्षाओं को पहचान रहे थे, जगा रहे थे। यह सोच युवा मोदी जी को वोट देता गया जिताता गया। अब वही कभी गुजरात में कभी महाराष्ट्र में कभी तमिलनाडु में कभी मध्यप्रदेश में कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी हरियाणा में और अब दार्जीलिंग में पूछने लगा है: वो हमारी आकांक्षाएं क्या हुर्इं सरजी?
गुजरात में पाटीदार और दलित, महाराष्ट्र में दलित और मराठा, मध्यप्रदेश में किसानों के बेटे, हरियाणा में दलित और जाट, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित और जाट, दार्जीलिंग में नेपाली भारतीयों द्वारा कहीं शांतिपूर्ण कहीं किंचित अशांत आंदोलनों के जरिए पिछले दो साल में जो बेचैनियां और नाराजियां दर्ज की जा रही हैं वे उन्हीं जगाई गई और अब तक प्रतीक्षारत आकांक्षाओं की निष्फलताओं से उपजी नाराजियां हैं जो भले अलग-अलग टाइम और अलग-अलग जगहों में हैं लेकिन जिनका रुदन किसी भी वक्त ‘विक्षुब्ध कोरस’ बन सकता है। अभी वे खंड-खंड हैं क्योंकि इनके अनुभव के दायरे स्थानीय हैं जो अपना किंचित रुद्र चेहरा दिखा रहे हैं। इनमें कहीं रिजर्वेशन, तो कहीं उपज के सही दाम और कर्ज माफी की मांग है, कहीं सांस्कृतिक और भाषागत अस्मिताओं की रक्षा की मांग है।
इन बेचैनियों को प्रकट होना ही था। जिसे विशेषत: ‘आकांक्षी’ बता कर वात्सल्य से दुलार कर वोट लिया वही अब पूछ रहा है: मैया मेरी कबहिं बढेÞगी चोटी? यह मोदी की ‘पॉप पालिटिक्स’ का इंदिरा गांधी वाला या राजीव वाला चुनावोत्तर क्षण है और वैसा ही जोरदार है। मध्यप्रदेश के एक मामूली-से किसान आंदोलन ने मोदी सरकार के तीन बरस के सारे उत्सव और उत्साह को ठंडा कर दिया है। यह युवा पीढ़ी का नया प्रति-विमर्श है।मंदसौर आंदोलन की पिक्चर प्रोफाइल याद करें। सीनों में अधिकांश युवाओं के केश मशरूम कट में हैं, वे जींस, टीशर्ट, स्पोर्ट्स शू पहने हैं, हाथों में स्मार्ट फोन हैं और अधिकांश के पास मोटर साइकिलें हैं। इनकी मांगें दो-चार हैं लेकिन इनकी नाराजियां हजार हैं। यही महाराष्ट्र में दिखता है, यही गुजरात में, यही प्रकारांतर से तमिलनाडु में, यही दार्जीलिंग में दिखता है, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दिखता है। गुजरात के हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी और उत्तर प्रदेश के चंद्रशेखर आजाद इसी आकांक्षित युवा पीढ़ी की आवाजें हैं जिनकी औसत उम्र पैंतीस बरस के आसपास ही होगी!
हममें से किसी ने यहां तक कि मोदी जी ने भी इनकी आकांक्षाओं की, ख्वाहिशों की कोई न्यूनतम लिस्ट नहीं बनाई कि उन्हें क्या क्या चाहिए? ऐसी लिस्ट से डर लगता है, क्योंकि इनको पांच-दस परसेंट नहीं, अब पूरा चांद चाहिए! लेकिन सत्ताएं इन जगा दी गई आकांक्षाओं से उत्पन्न निराशाओं को निराशा तक नहीं मान रहीं। वे तो कहने लगी हैं कि किसान-आत्महत्या का कारण पर्सनल (व्यक्तिगत) भी हो सकता है और इन या उनके ये आंदोलन विपक्ष या अराजक या देशद्रोही तत्त्वों की साजिश हो सकते हंै! यानी ‘मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं’!
ये युवा निराशाएं सच हैं। आप ढक्कन लगा कर इनको बंद नहीं कर सकते। बंद करेंगे तो ये बास बदबू मारेंगी और ढक्कन तोड़ देंगी। युवा निराशाओं पर दरवाजा बंद करने के इस रूपक को ‘स्वच्छ भारत अभियानह्ण का वह नया जिंगल अच्छी तरह व्यक्त करता है जिसमें अमिताभ बच्चन गाते हैं: ‘दरवाजा बंद करो, बीमारी बंद’! विज्ञापन कहता है कि घरों के शौचालयों के दरवाजे बंद रखने चाहिए, नहीं तो बीमारी फैलेगी! यानी कि घरों में शौचालय तो बन गए मगर दरवाजे बंद करने की वजह से संडास सड़ने लगे। तब उनको साफ कर लोगों ने दरवाजे खोल दिए ताकि सूख जाएं लेकिन वे फिर एक प्राब्लम बने क्योंकि बदबू फिर भी न गई। अब आप कह रहे हैं कि दरवाजे बंद करो तो बीमारी बंद! विज्ञापन में तो तुक ठीक है लेकिन अगर मैला बदबू अंदर नीचे भरी है और आसपास की जगह तक बास मारती है उसका क्या करेंगे?
यानी कि ‘दरवाजा बंद तो बीमारी बंद’ तुकबंदी अच्छी है, लेकिन यथार्थ का दरवाजा बंद करोगे तो बीमारी निकलेगी कैसे?
