आरफ़ा ख़ानम शेरवानी

हाल ही में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी तीन दिनों के भारत दौरे पर आए। राष्ट्रपति का पदभार संभालने के बाद यह उनकी पहली भारत यात्रा थी। सत्ता संभालने के सात महीनों बाद ही अफगान राष्ट्रपति ने भारत आने का फैसला किया। हालांकि भारत से पहले वे चीन, पाकिस्तान और अमेरिका का दौरा कर चुके हैं।

राष्ट्रपति गनी के भारत दौरे का हासिल देखें तो वादे-इरादे तो दिखे लेकिन जमीन पर कुछ भी पुख्ता नजर नहीं आया। दोनों देशों के बीच 2011 में अमल में आए रणनीतिक समझौते पर भी कोई खास बात आगे नहीं बढ़ी, न ही किसी द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

हालांकि दोनों नेताओं की तरफ से कहा गया कि बातचीत की भूमिका बंध रही है और अगले तीन महीने में नए समझौतों पर हस्ताक्षर हो सकेंगे। इनमें मोटर-वाहन समझौता भी शामिल है जिसके जरिए दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते बेहतर हो सकेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोहराया कि दोनों देश समय की धाराओं से परे दिलों के रिश्तों से बंधे हैं। उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए कहा कि वे चाहते हैं कि अफगानिस्तान क्षेत्रीय कारोबार का केंद्र बने।

हालांकि यह साफ दिखा कि दोनों देश अच्छी तरह समझते हैं कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि बिना उसकी रजामंदी के सड़क के रास्ते व्यापार मुमकिन नहीं। और पाकिस्तान की सहमति कितनी होगी इसका एक नजारा पिछले साल नवंबर में काठमांडो में हुए सार्क शिखर सम्मेलन में देखने को मिल चुका है। समूह में आठ देशों की मौजूदगी के बावजूद सिर्फ पाकिस्तान की असहमति की वजह से मोटर वाहन समझौते को आखिरी प्रारूप नहीं मिल सका था।

अफगान राष्ट्रपति के इस दौरे को भारत और अफगानिस्तान में ही नहीं, पूरे एशियाई क्षेत्र में दिलचस्पी और महत्त्व के साथ देखा जा रहा था। इस नई दिलचस्पी की कई वजहें हैं। ग्यारह सितंबर 2001 को अमेरिका पर हमले के बाद नाटो सेनाओं ने अफगानिस्तान से तालिबान के शासन को उखाड़ फेंका था। इसके बाद हामिद करजई 2001 से 2004 तक कार्यकारी राष्ट्रपति रहे और फिर अगले दस साल पूर्ण रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति।

2014 में बेहद लंबे समय तक खिंचे और विवादित चुनाव में अशरफ गनी को राष्ट्रपति चुना गया और उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह को अफगानिस्तान का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीइओ) बनाया गया। हालांकि यह व्यवस्था एक शांति-समझौते के तहत, अमेरिकी मध्यस्थता के बाद ही बन पाई। यह अफगानिस्तान के इतिहास का पहला शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण था। यानी तालिबान की सत्ता उखड़ने के बाद हामिद करजई के बाद वे दूसरे राष्ट्रपति हैं।

कई मायनों में ऐतिहासिक रहे इस चुनाव के बाद अब भारत सहित पूरी दुनिया की निगाहें इस बात पर लगी हैं कि अशरफ गनी सरकार की विदेश नीति क्या होगी। भारत के राजनयिक हलकों में भी इसको लेकर लगातार चर्चा हो रही है कि गनी सरकार की नीतियां, पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई से कितनी अलग होंगी।

पाकिस्तान की खास भौगोलिक दशा, भारत-अफगान रिश्तों को पाकिस्तान के दरीचे से देखने पर मजबूर करती है। सत्ता संभालने के साथ ही गनी, अफगान-पाक सामरिक रिश्तों को जिस स्तर पर ले गए हैं उससे साफ पता चलता है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान को लेकर उनकी नीति, पूर्व की करजई सरकार से कितनी अलग होगी। सत्ता संभालने के कुछ हफ्तों के भीतर ही नई अफगान सरकार ने पहले अफगानी कैडेटों को पाकिस्तान के अबोटाबाद में ट्रेनिंग के लिए भेजा। साथ ही अफगानी जमीन पर संयुक्त सैनिक प्रशिक्षण का काम भी चल रहा है।

इसी दौरान अशरफ गनी के इस बयान ने भी भारत में एक संशय का माहौल पैदा किया जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर अफगानिस्तान को एक बिंदु माना जाए और पड़ोसी देशों को घेरों के तौर पर देखा जाए तो, पाकिस्तान पहला घेरा है और भारत को चौथे घेरे का स्थान हासिल होगा। हालांकि इस बयान पर बाद में दी गई सफाई नाकाफी रही। इसके साथ ही सत्ता संभालने के कुछ दिनों बाद पाकिस्तान दौरे पर राष्ट्रपति अशरफ गनी का सैनिक मुख्यालय रावलपिंडी जाकर सेनाध्यक्ष जनरल राहील पाशा से मिलना, प्रगाढ़ होते अफगान-पाकिस्तान रिश्तों की तरफ संकेत देता है।

इन सभी घटनाक्रमों को परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए यह याद रखना भी जरूरी है कि पूर्व की करजई सरकार से पाकिस्तानी सेना के रिश्ते उतने मधुर नहीं रहे हैं। अफगान सरकार पाकिस्तानी सेना पर तालिबान पर लगाम न लगाने का दोष मढ़ती रही। उसका मानना रहा कि फौज पाकिस्तान के लगभग अराजक हो चुके कबाइली इलाकों में अगर निगरानी रखे तो अफगानी धरती पर सीमा-पार से आ रहे हमलों को कम किया जा सकता है। इसके अलावा पाकिस्तान पर तालिबान के प्रति नरम नीति अपनाने का आरोप भी लगातार लगता रहा।

हालांकि अफगानिस्तान के लिए यह एक रणनीतिक मजबूरी है कि वह अपनी जमीन पर पल रहे आतंकवाद से निपटने के लिए पाकिस्तान का सहारा ले। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सरहदी नजदीकी होने के अलावा, धार्मिक और सांस्कृतिक रिश्ते ऐसे हैं जहां अफगानी युवा शिक्षा से लेकर कारोबारी जरूरतों के लिए पाकिस्तान का सहारा लेता है। यहां तक कि पाकिस्तानियों और अफगानों में आपस में शादी के बंधन में बंधना भी एक मामूल ही है। यह नजदीकी अफगान लोगों के लिए मुसीबत और राहत दोनों की वजह है।

एक तरफ तालिबान को पाकिस्तान के कबायली इलाकों में आम जनता के बीच छिपने और अपने को मजबूत करने की जगह मिलती है, वहीं अफगानिस्तान में हमले कर फिर से भाग जाने का सहारा भी। पाकिस्तानी फौज और नेताओं का एक हिस्सा कुछ तालिबानी गुटों के नजदीक है और उनके इशारों पर काम भी करता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। यह अलग बात है कि तालिबान एक ऐसा दोमुंहा सांप है जो जब चाहे पाकिसतान को भी डस लेता है। पाकिस्तान में आए दिन होते रहने वाले आतंकी धमाके और कई बड़े नेताओं की मौत की वजह बना तालिबान इसी बात का सबूत है।

अफगानिस्तान चाहता है कि पाकिस्तान तालिबान के बीच अपने प्रभाव का इस्तेमाल अफगानिस्तान के हालात बेहतर करने में करे। लेकिन दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना, आइएसआइ और नेताओं का एक वर्ग चाहता है कि अफगानिस्तान पाकिस्तान के राजनीतिक प्रभुत्व में रहे। और शायद यही पेच मामले को जटिल बनाता है। जहां अफगानिस्तान पाकिस्तान पर तालिबान को पालने का आरोप लगाता रहा है, वहीं उससे मदद की गुहार भी लगाता है। और एक स्वतंत्र राष्ट्र होने के नाते अपनी राजनीतिक आजादी और आत्मसम्मान बचा कर रखना भी उसका दायित्व है।

अफगानिस्तान के लिए यह संक्रमण काल है। यह संक्रमण कई मायनों में सुखद होने के साथ-साथ खतरे से भरपूर भी है। अफगानिस्तान को अपने पैरों पर खड़े होकर आत्मसम्मान से जीने का मौका मिलेगा। अपनी सुरक्षा और अर्थव्यवस्था को हाथ में लेकर अपने हिसाब से शक्ल देने का अवसर भी। लेकिन इस बदलाव के साथ सुरक्षा से जुड़ी गंभीर चिंताएं हैं, सवाल हैं। कुछ हजार सैनिकों को छोड़ दें तो अफगानिस्तान से बेशतर अंतरराष्ट्रीय फौजें पलायन कर चुकी हैं।

2001 से लेकर अब तक अंतरराष्ट्रीय मदद से अफगानी सुरक्षा बलों और पुलिस की ट्रेनिंग का काम तो हुआ है, लेकिन ये सैनिक इतने भी प्रशिक्षित नहीं हो सके हैं कि सिर पर कफन बांध कर घूमने वाले तालिबान जैसे जंगजुओं से सिर्फ अपने दम पर मुकाबला कर सकें। सुरक्षा से जुड़े हालात कितने संगीन हैं इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है। यह कहना मुश्किल है कि काबुल और आसपास के कुछ शहरी इलाकों के अलावा कितने ऐसे क्षेत्र हैं जो अफगान सरकार सीधे नियंत्रण में आते हैं। विदेशी सेनाओं और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी के बावजूद 2014 के चुनाव से ठीक पहले चुनावी दफ्तरों और विदेशियों के रहने के ठिकानों पर हुए हमले बताते हैं कि तालिबानी ताकतें कितनी बेधड़क हैं।

अगर बुनियादी तौर पर देखें तो अपने इतिहास के लंबे अरसे तक विदेशी ताकतों के कब्जे से लड़ते रहने की मजबूरी, दशकों की खानाजंगी और कबायली संस्कृति ने अफगानियों को अपने मसलों को हल के लिए हिंसा का रास्ता ही सुझाया है। यों तो अफगानिस्तान आधिकारिक तौर पर अपने को इस्लामी गणतंत्र कहता है लेकिन इतने दशकों में लोकतांत्रिक संस्थानों ने वह परिपक्वता हासिल नहीं की, जो एक देश के तंत्र को मजबूत करे।

एक ऐसा देश जहां लोगों का उस देश के कानून में, संस्थानों में, प्रक्रिया में विश्वास हो। कानून व्यवस्था इतनी लचर और अक्षम है कि लोग अक्सर कानून अपने हाथ में लेते दिखाई देते हैं। अभी तक एक भी ऐसा चुनाव नहीं हुआ जिसे साफ-सुथरा, भेदभाव-रहित और बाहरी दबावों से मुक्तपाया गया हो। 2014 के चुनाव का जरूरत से ज्यादा खिंचना और विवादित होना भी उसी का एक हिस्सा है।

इक्कीसवीं सदी में दाखिल होकर भी मध्ययुगीन रफ्तार और मानसिकता से ग्रस्त इस देश में मानवाधिकार, अल्पसंख्यक और महिला अधिकारों की बात करना ही बेमानी लगता है। ऐसे में अपने संवैधानिक अधिकारों को हासिल करने के लिए भी हथियारों का इस्तेमाल ही एक रास्ता नजर आता है। युवा वर्ग के लिए अपने सिस्टम में अविश्वास और इसी गुस्से की भावना का शोषण, कभी रूस, कभी तालिबान तो कभी अमेरिका ने किया है।

अफगान राष्ट्रपति के हालिया दौरे के बाद यह तो साफ है कि नई अफगान सरकार की नीतियों में भारत के लिए सैनिक सहयोग की जगह कम है। हालांकि वे भारत से आर्थिक मदद के ख्वाहिशमंद जरूर हैं। वैसे भी भारत ने पिछले एक दशक में जो विकास का काम अफगान धरती पर किया है, उससे आम अफगान के दिल में भारत के लिए एक खास जगह बनी है। पिछले कुछ सालों में भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में दो अरब डॉलर का निवेश किया है, जिसमें पुल निर्माण से लेकर अस्पताल बनाना, स्कूल बनाना और बिजली मुहैया कराना भी शामिल है। यहां तक कि भारत ने काबुल में नई अफगानी संसदीय इमारत की तामीर भी की है।

आज काबुल की सड़कों पर और आम लोगों के नजरिए में भारत दोस्ती और भाईचारे का दूसरा नाम है। अब जबकि पश्चिमी फौजें और मदद धीरे-धीरे अपना रास्ता वापस मोड़ रही हैं, एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते भारत को शायद वही करना चाहिए जिसकी जरूरत अफगान सरकार और अफगान लोगों को है। यही अफगानिस्तान के हित में है और भारत के भी।
(लेखिका राज्यसभा टीवी से संबद्ध हैं।)

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta