हिंसा की एक विराट अभिव्यक्ति है पशुओं के प्रति हमारी हिंसा के रूप में। इन निरीह जीवधारियों के प्रति हमारा रुख जितना इस्तेमालवादी है उतना शायद ही किसी जीवित या मृत के प्रति हो। ये हमारे सबसे अधिक आसान शिकार हैं, जबकि हकीकत में ये हमारे सहचर और इस उदास धरती पर सभ्यता के प्रारंभ से हमारे सहयात्री हैं। इस विषय पर देश के मुख्यधारा के बुद्धिजीवी या तो चुप्पी लगा जाते हैं या यह काम पशु-प्रेमी कार्यकर्ताओं और संगठनों पर छोड़ दिया जाता है। यह समझने के लिए किसी दार्शनिक और रहस्यवादी अंतर्दृष्टि की आवश्यकता नहीं कि हमारे द्वारा की जाने वाली हर प्रकार की हिंसा लौट कर हमारे पास ही आती है। नंगी आंखों से भी इसे साफ-साफ देखा जा सकता है। समय-समय पर अलग-अलग जगहों पर होने वाली प्राकृतिक आपदाएं इसका सबूत हैं। एक वृक्ष के जन्म, विकास और उसके पुष्पित होने में समूची सृष्टि का योगदान होता है। धरती, बादल, सूरज और हवाएं सब मिलजुल कर उसकी परवरिश करते हैं। उसके कटने पर इंसान भी कटता है, और पूरी कायनात भी थोड़ा मरती है। यह एक कवि की रोमांटिक कल्पना नहीं, वैज्ञानिक तथ्य है जिसे अनदेखा करने की कीमत हम लगातार चुका रहे हैं। आइंस्टीन कहते थे कि ब्रह्मांड और मनुष्य की मूर्खता असीमित है। पशुओं के प्रति क्रूरता को इसमें जोड़ देना चाहिए।

नेपाल का गढ़ीमाई मंदिर ट्रस्ट चार सौ साल बाद जाकर हाल में अपनी धार्मिक मूढ़ता को देख पाया। वहां लाखों की संख्या में पशुओं की बलि दी जाती रही है। काठमांडो से करीब एक सौ साठ किलोमीटर दूरी पर यह ‘उत्सव’ बिहार की सीमा से लगे हुए मंदिर के इर्दगिर्द मनाया जाता है। कई दिन चलने वाले इस धार्मिक ‘समारोह’ में भैंसों के अलावा अनेक तरह के पक्षी, सुअर और बकरे भी मारे जाते हैं। पशुओं की फिक्र करने वाले संगठनों की बरसों की जद्दोजहद के बाद पिछले साल मंदिर ट्रस्ट ने इस पर रोक लगाने की सोची और उसे उम्मीद है कि भक्त आसानी से मान जाएंगे। यदि आप इस रस्म की तस्वीरें देख लें तो आपको सदमा लग सकता है। खून से पटा हुआ एक बड़ा-सा मैदान, हजारों की संख्या में इधर-उधर बिखरे पशुओं के शव और खून का एक दरिया; साथ ही हाथों में तेज धार वाले हथियार लिए, पशुओं को अंधाधुंध काटते-मारते सैकड़ों लोग, जिन्हें देख कर यह अहसास होता है कि धार्मिक परंपराओं की प्रबलता किस हद तक इंसान को निर्मम और अंधा बना डालती है!

यह तो फिर भी हुई पिछड़े देशों की बात। अमेरिका के एक दंत चिकित्सक वॉल्टर पामर ने हाल ही में जिम्बाब्वे के सबसे लोकप्रिय शेर को एक शिकारी के हाथों मरवा दिया और इसके लिए उसने पचपन हजार डॉलर भी खर्च किए। सेसिल नाम का यह सिंह आॅक्सफर्ड यूनिवर्सिटी वाइल्डलाइफ रिसर्च प्रोजेक्ट का हिस्सा था और उसने जीपीएस कॉलर पहन रखी थी क्योंकि उसके ठिकाने और गतिविधि पर हर क्षण नजर रखी जाती थी। पामर ने सिंह का सिर भी कटवाया और उसकी चमड़ी भी उधेड़वा कर अपने पास रख ली। अफ्रीका में करीब बीस हजार शेर बचे हैं और सीसिल सबसे लोकप्रिय शेरों में से था। पर्यटक उसकी एक झलक पाने को बेताब रहते थे। वॉल्टर जेम्स पामर ने जुलाई में इस शेर को मारने की योजना बनाई। पहले उसे लुभा कर नेशनल पार्क से बाहर निकाला गया और फिर तीरों से उसे घायल किया गया। इसके बाद सीसिल को राइफल की गोलियों से मारा गया। डॉक्टर उसकी त्वचा उधेड़ कर ले गया और साथ में सीसिल का सिर भी। अब वह उसे एक ट्रॉफी की तरह अपने बैठकखाने में लगाएगा और दोस्तों के बीच अपने शौर्य की गाथाएं सुनाएगा।

बुद्ध कहते थे, संसार में अकेले रहो, गैंडे के सींग की तरह अकेले। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि केन्या में एक गैंडा अपने सींग की वजह से ही अब अकेला हो चुका है। सूडान नाम का यह नर-गैंडा इस धरती का आखिरी सफेद नर-गैंडा है। केन्या में इसे चौबीसों घंटे सशस्त्र सुरक्षा में रखा गया है। इस प्रजाति की दो मादाओं को भी अलग रखा गया है, कड़ी सुरक्षा में। इस गैंडे का सींग अलग कर दिया गया है कि यह बच सके। इस सींग के लिए ही इसकी जान ली जाती है। इसके सींग करोड़ों में बिकते हैं। असम के काजीरंगा अभयारण्य में गैंडों के अवैध शिकार की खबरें हमेशा आती रहती हैं। हाथी जैसे अति संवेदनशील पशु को उसके दांतों के लिए भयंकर निर्ममता के साथ मारा जाता है। पशुओं के प्रति क्रूरता पूरे विश्व में महामारी की तरह फैली हुई है। अफ्रीका के नामीबिया में हर वर्ष जुलाई से नवंबर के बीच सील के करीब पचासी हजार छोटे बच्चों को मोटे डंडों से कूट-कूट कर मारा जाता है। इसी तरह डेनमार्क और अटलांटिक के फरो द्वीप में हजारों की संख्या में हर वर्ष व्हेल को मारने का रिवाज है।

लोग यह सिर्फ शौक से करते हैं, क्योंकि व्हेल को न खाने की वैज्ञानिकों ने चेतावनी दे रखी है। गौरतलब है कि हमारे इस व्यवहार के कारण धरती से हर रोज वनस्पति और जीव-जंतुओं की ढाई सौ प्रजातियां लुप्त हो रही हैं! नन्ही गौरैया, पक्षीराज गिद्ध से लेकर बाघ जैसे शानदार जीव तक! हाल ही में आस्ट्रेलिया में आदेश पारित हुआ है कि अगले कुछ वर्षों में बीस लाख बिल्लियों को मारा जाएगा! बिल्ली की कुछ प्रजातियों पर जंगली बिल्लियों के खतरे के मद््देनजर सरकार ने 2020 तक इनको मारने की घोषणा की है। आस्ट्रेलिया के पर्यावरण मंत्री ग्रेग हंट ने जंगली बिल्लियों के खिलाफ जंग की घोषणा कर दी है।

तमिलनाडु में जल्लीकट्टू के समर्थक जिस तरह सांडों को पीड़ित करने के इस ‘उत्सव’ पर रोक लगाने से ‘आहत’ हैं, उसे समझा जा सकता है। आम इंसान और पशुओं का खून बहाना हमारी संस्कृति और इतिहास का अभिन्न अंग रहा है। रक्तपिपासा के महिमामंडन के बिना पूरी संस्कृति का वृक्ष ही जैसे मुरझा जाएगा। जल्लीकट्टू में तो अब सियासत का भी पहलू जुड़ गया है और खुद को बुद्ध और गांधी का देश कहने पर फूले न समाने वाले हम भारतीय लोग पशुओं के साथ अत्याचार करने में संकोच नहीं करते, तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं। कहीं गाय राजनीतिक बाजार का ‘माल’ बनी हुई है, कहीं सांड वोट कमाने की चाल बन गया है। गाय से इतना प्रेम है, तो उसके बेटे बैल या सांड के प्रति थोड़ी करुणा क्यों नहीं?

यह बेहद अफसोस की बात है कि जल्लीकट्टू को फिर से इजाजत दिए जाने की अधिसूचना केंद्र में बैठी भाजपा सरकार ने जारी की। भाजपा गोरक्षा का दम भरते नहीं थकती, पर उसे सांडों को काबू में करने के इस खेल में कोई क्रूरता नजर नहीं आई। अगर मोदी सरकार द्रमुक या अन्नाद्रमुक के समर्थन पर निर्भर होती, तो उसके इस फैसले को सियासी मजबूरी के कोण से समझा जा सकता था। पर भाजपा को तो लोकसभा में अकेले दम पर बहुमत हासिल है। कहा जा रहा है कि जल्लीकट््टू को अनुमति देने की अधिसूचना केंद्र सरकार ने इस साल होने वाले तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रख कर जारी की। तो क्या गोरक्षा की बात भी चुनाव को ध्यान में रख कर करेगी, और चुनाव निकल जाने पर उसे बिसरा देगी! तमिलनाडु में भाजपा मुख्य मुकाबले वाली पार्टी नहीं है। फिर भी उसने घुटने क्यों टेक दिए?

तमिलनाडु में जल्लीकट्टू का आयोजन पोंगल के अवसर पर बड़े पैमाने पर धूमधाम से, चार साल पहले तक, होता रहा है। बेशक इससे इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। मगर जल्लीकट््टू पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी हमेशा उठती रही। 2011 में इस पर प्रतिबंध लग गया। उस समय जारी हुई अधिसूचना को सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहराया था। फिर भी मोदी सरकार ने जल्लीकट््टू को हरी झंडी दे दी, और इस बारे में न अपने महाधिवक्ता की सुनी न न्यायालय के उस फैसले का मान रखा। यह संतोष की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर वैसा ही रुख अपनाया है, जल्लीकट््टू की इजाजत देने वाली अधिसूचना पर उसने रोक लगा दी है।

इंसान सृष्टि का केंद्र नहीं। जब तक एक साधारण-से सद्व्यवहार का प्रवाह भी जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति की ओर, जीव-जंतु, वनस्पति, पेड़-पौधों, कीट-पतंगों के प्रति नहीं होता। हम एक करुणावान, समानता पर आधारित विश्व की स्थापना के बारे में बात भी करें, तो वह हास्यास्पद साबित होगा। आप एक ऐसी दुनिया बनाने की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों के नाम पर, मनोरंजन, भोजन और प्राचीन परंपराओं के लिए पशु-पक्षियों को अंधाधुंध मारते-काटते या पीड़ित करते रहें, और फिर भी एक शांतिपूर्ण वैश्विक व्यवस्था का स्वप्न देखते रहें! मानव समाज, पशु जगत तथा वनस्पति जगत के बीच एक गहरा अंतर्संबंध है। जंगलों में और बाहर रहने वाले निरीह पशुओं के लिए हम आईएसआईएस से भी खूंखार और रक्तपिपासु प्रेत हैं, पर हमारी बिरादरी का कोई भी मार दिया जाए तो कैसी हाय-तौबा मचती है, जबकि आप खुलेआम पशुओं को मारिए-खाइए, मनोरंजन के लिए, धर्म, परंपरा के नाम पर उनका इस्तेमाल कीजिए, इस बारे में कहने वाले बहुत कम लोग हैं, बहुत ही अपर्याप्त कानून और संगठन हैं। इसे हमने एक जीवन शैली के रूप में अपना लिया है।