अफ्रीका से बीमारी, भुखमरी और निरक्षरता घटाने तथा व्यापार बढ़ाने के वास्ते नई दिल्ली में 26 से 29 अक्टूबर के बीच एक बड़ा कूटनीतिक जलसा होने जा रहा है, जिसके केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे। इस कूटनीतिक ‘मेगा शो’ में कितने अफ्रीकी नेता मोदी कुर्ते के साथ नुमाया होंगे, यह जिज्ञासा का विषय होगा। पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय जमावड़े में आने वाले शिखर नेताओं के लिए मोदी कुर्ते का इंतजाम किया गया है। लेकिन अतिथियों के लिए सिर्फ कुर्ते का इंतजाम है, पायजामे का नहीं।

दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जुमा, मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी, जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे, नाइजीरिया के राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी जैसे शासन प्रमुखों ने पुष्टि कर दी है कि वे दिल्ली आएंगे, और मोदी कुर्ता पहनेंगे। भारत-अफ्रीका फोरम की पहली शिखर बैठक 2008 में नई दिल्ली में, और दूसरी बैठक 2011 में इथियोपिया की राजधानी आदिस अबाबा में हुई थी। ‘भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मेलन’ हर तीन साल पर होना तय हुआ था, लेकिन इबोला महामारी के कारण दिसंबर 2014 में यह शिखर बैठक नहीं हो सकी।

पांच उप-क्षेत्रों में बंटे अफ्रीका में चौवन देश हैं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि अब तक सिर्फ उनतीस अफ्रीकी देशों से भारत के कूटनीतिक संबंध स्थापित हो पाए हैं। उनमें से छब्बीस अफ्रीकी देशों के ‘मिशन, या पोस्ट’ भारत में हैं। लेकिन लंबी-लंबी छोड़ने वालों का दावा है कि इस बार इक्यावन अफ्रीकी देशों के शिखर नेताओं और प्रतिनिधियों ने आना पक्का कर दिया है। आदिस अबाबा की शिखर बैठक में मात्र बारह अफ्रीकी शासनाध्यक्षों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। 4 से 9 अप्रैल, 2008 को नई दिल्ली में भारत-अफ्रीकी फोरम की पहली शिखर बैठक में सिर्फ चौदह नेता आए थे। ऐसे में पचास अफ्रीकी देशों के शासन प्रमुखों और प्रतिनिधियों को बुलाना भगीरथ प्रयत्न से कम नहीं है।

भारत-अफ्रीकी फोरम के आयोजकों को भरोसा है कि इस बार के मेगा शो में चीन, अमेरिका और जापान पीछे छूट जाएंगे। 2006 में चीन-अफ्रीका फोरम की बैठक में अड़तालीस अफ्रीकी देशों के प्रतिनिधि आए थे, जिनमें चालीस शासन प्रमुख थे। 2013 में अफ्रीका-जापान फोरम की बैठक में उनचास अफ्रीकी देशों के नेता और नुमांइदे आए थे, जिनमें सैंतीस शासनाध्यक्ष थे। अमेरिका ने 2014 में पचास अफ्रीकी देशों के नेताओं को इसी तरह की शिखर बैठक में बुलाया था, उस बैठक में सैंतालीस शासनाध्यक्षों की रिकार्ड उपस्थिति रही थी। भारत का प्रयास है कि इन तीनों दिग्गज देशों का रिकार्ड टूटे। इस बार भारत-अफ्रीकी फोरम बैठक में संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर विशेष आमंत्रित देश हैं।

एक आम अफ्रीकी उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष की विरासत के कारण हमसे जुड़ता है। ‘अफ्रीका के गांधी’ के रूप में नेल्सन मंडेला निरूपित किए गए, तो उसके राजनीतिक, भौगोलिक और भावनात्मक कारण भी रहे हैं। सबके बावजूद हमारे रणनीतिकार बहुत देर से जागे। देर से नींद खुलने का नतीजा है कि अफ्रीका से 2014 तक सत्तर अरब डॉलर तक का व्यापार हो पाया। 2015 में चीन-अफ्रीका व्यापार दो सौ अरब डॉलर से कितना आगे जाएगा, इसके आंकड़े आने के बाद ही पता चलेगा। यदि भारत 2015 में नब्बे अरब डॉलर को छू लेता है, तो ढोल-नगाड़े बजने शुरू हो जाएंगे। अफ्रीका में रूस को सौ अरब डॉलर के व्यापार की उपलब्धि मिली है, उसकी वजह पुतिन और शी की साझा रणनीति है। यह चीनी व्यूह-रचना का नतीजा है कि अमेरिका नब्बे अरब डॉलर के व्यापार पर सिमट कर तीसरे स्थान पर चला गया है। मलयेशिया, ब्राजील, तुर्की, जापान, यूरोपीय संघ, भारत के प्रबल प्रतिस्पर्धी हैं।

इस समय अंगोला, मिस्र, मोरक्को, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका से भारत का नवासी प्रतिशत व्यापार हो रहा है। 2005 से 2011 तक के भारत-अफ्रीका व्यापार पर गौर कीजिए, तो औसतन बत्तीस फीसद सालाना की वृद्धि हुई है। अफ्रीका के बाकी सारे उनचास देशों से यदि सिर्फ ग्यारह प्रतिशत व्यापार होता है, तो यहां पर हम चूक रहे हैं। हमारे रणनीतिकारों को उन वजहों की तलाश करनी होगी, ताकि अफ्रीका के शेष उनचास देशों में भारत अपने व्यापार का विस्तार कर सके। शायद इसी उदासीनता के कारण 2008 और 2011 की दो शिखर बैठकों में पच्चीस प्रतिशत अफ्रीकी नेता और नुमाइंदे आ सके थे। यह भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मेलन की सफलता की कहानी नहीं है।

चीन में जिस तरह से आर्थिक भूचाल आया हुआ है, और यूरोप जिस तरह से शरणार्थी समस्या से दो-चार हो रहा है, क्या उसका लाभ भारत, अफ्रीका में उठा पाएगा? इस सवाल का उत्तर वही लोग दे सकते हैं, जो विदेश मंत्रालय में अफ्रीका प्रकोष्ठ को संभाल रहे हैं। क्योंकि जब भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मेलन की वेबसाइट 2008 के बाद अद्यतन नहीं हुई है, तो देश को कैसे पता चलेगा कि सरकार इस इलाके में क्या कर रही है? इस वेबसाइट को अद्यतन करने की जिम्मेदारी भारतीय विदेश मंत्रालय की है। डर इस बात का है कि हमारी रणनीतिक गंभीरता अक्सर ‘इवेन्ट मैनेजमेंट’ और डांस-ड्रामे की भेंट चढ़ जाती है। अफ्रीका-भारत शिखर बैठक तक मोदी सरकार के डेढ़ साल पूरे हो जाएंगे। इस डेढ़ साल में अफ्रीका पर कम ध्यान दिया गया, इस सच को नकारा नहीं जा सकता।

इस समय भारत, अफ्रीका में पांचवां निवेशक देश है। टाटा, किर्लोस्कर, रिलायंस, मित्तल जैसे समूह अफ्रीका के खनन और तेल दोहन में काफी पैसा लगा चुके हैं। सीआइआइ और विश्व व्यापार संगठन ने 2013 में जो ब्योरे दिए थे, उनके अनुसार भारत ने अफ्रीका में पैंतीस अरब डॉलर का निवेश कर रखा है। इसके बरक्स अफ्रीका से भारत में निवेश 2013 में चौंसठ अरब डॉलर का था। शेष अफ्रीका के मुकाबले मारीशस का भारत में चालीस प्रतिशत पैसा लगा है। यह बहुत हद तक सही है कि मारीशस से भारत आया पैसा काले धन को सफेद करने की प्रक्रिया का हिस्सा रहा है। फिर भी मारीशस, अफ्रीका का सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) करने वाला देश बन गया है। अपने यहां मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका दूसरे-तीसरे नंबर के निवेशक रहे हैं। मोरक्को का निवेश निर्माण के क्षेत्र में है, तो दक्षिण अफ्रीका ने सेवा क्षेत्र और खुदरा कारोबार में पैसा लगा रखा है। क्या हम पश्चिमी अफ्रीकी निवेशकों को भारत में पैसा लगाने के वास्ते आकर्षित कर सकते हैं?

आज की तारीख में अफ्रीका से व्यापार के मामले में चीन से सबक लेने की जरूरत है। चीन-अफ्रीका का व्यापार दो सौ अरब डॉलर सालाना को पार कर चुका है। ओडीआइ (आउट्वर्ड डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट) करीब तीस अरब डॉलर का है। अफ्रीकी देशों को हर साल अरबों डॉलर की कर्ज माफी चीन कर रहा है। चीन से प्रतिवर्ष 160 अरब डॉलर का सामान अफ्रीकी देशों को जा रहा है। अफ्रीका में अस्सी फीसद ‘ट्रेनर एयरक्राफ्ट’ चीन से भेजे गए हैं। अफ्रीकी देशों में दस लाख से अधिक चीनी नागरिक रह रहे हैं, उनमें से अधिकाधिक चीनी परियोजनाओं में काम कर रहे हैं। तंजिया लोग कहते भी हैं कि अफ्रीका, चीन का दूसरा ‘आर्थिक उपमहाद्वीप’ है।

चीन की अफ्रीका में सक्रियता 1955 में बांगडुंग सम्मेलन के बाद शुरू हुई थी। अफ्रीका जैसी तीसरी दुनिया से एका बनाने का आह्वान नेहरू ने किया था, लेकिन उस विचार को माओत्से तुंग ने लपक लिया। 25 अक्टूबर 1971 को संयुक्त राष्ट्र में कम्युनिस्ट चीन (पीआरसी) का प्रवेश और रिपब्लिक ऑफ चाइना (आरओसी), जिसे ताइवान कहते हैं, को बेदखल करने में अफ्रीकी देशों की बड़ी भूमिका रही थी। आज की तारीख में सत्ताईस हजार अफ्रीकी छात्र चीन के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे हैं, जिनके खर्चे को चीन वहन कर रहा है। चीनी भाषा और संस्कृति की दीक्षा देने के लिए ‘कनफ्युसियश इन्स्टीच्यूट’ अफ्रीका के कोने-कोने में अपना काम कर रहा है। दो अलग-अलग संस्कृतियों की जनता को कैसे जोड़ना है, इसे बातों से नहीं, चीन ने अमली जामा पहना कर दिखाया है। अफ्रीका के हर क्षेत्रीय मुख्यालय में चीन ने कूटनीतिक मिशन खोल रखा है। इसके उलट, अधिकतर भारतीय कूटनीतिक अफ्रीका में नियुक्ति के लिए तैयार नहीं होते, गोया उन्हें काले पानी की सजा मिल रही हो।

अफ्रीका, ‘मेक इन इंडिया’ के लिए एक बड़ा बाजार है। यह बाजार ‘सब-सहारा’ से लेकर सतत विकास के रास्ते पर निकल पड़े छोटे-छोटे अफ्रीकी देश भी हो सकते हैं। अफ्रीका के सात क्षेत्रीय ग्रुपों में सबसे ताकतवर पश्चिम अफ्रीका है, जहां बढ़ती आबादी समृद्ध हो रही है। पश्चिम अफ्रीकी देश नाइजीरिया, गीनिया, आइवरी कोस्ट, गेबोन व घाना, ऊर्जा और खनिज के मामले में संपन्न हैं। भारत बीस प्रतिशत कच्चा तेल अफ्रीका से मंगाता है, जिसका पचास प्रतिशत पश्चिम अफ्रीका से आयात होता है। इकोनॉमिक कम्युनिटी आॅफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स (इकोवास) पर भारत की पकड़ बनी रहे, यह इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है।

सीआइआइ ने तीस भारतीय कंपनियों को ‘इंडिया-अफ्रीका प्रोजेक्ट पार्टनरशिप कॉनक्लेव’ के जरिये पश्चिम अफ्रीकी देशों में सक्रिय किया है। नाइजीरिया से अमेरिका सबसे अधिक कच्चा तेल लेता था, वहां अमेरिका की लकीर भारत ने छोटी कर दी। अमेरिका ने अफ्रीका पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए ‘एफ्रीकॉम’ की व्यूह रचना बना रखी है, जिसे भेद कर चीन ने रूस को आगे कर दिया है। मोदीजी को चाहिए कि अपने मित्र ‘बराक’ से मिलकर अफ्रीका में चीन का विकल्प बनने पर कोई बात करें। अफ्रीका में तेज रफ्तार की कूटनीति करने की जरूरत है। प्रधानमंत्री इस वास्ते प्रवासी भारतीयों का इस्तेमाल कर सकते हैं, ताकि निवेश का माहौल बने। उम्मीद की जाए कि जो अफ्रीकी नेता मोदी कुर्ता पहन कर लौटेंगे, शायद वे भारत के करीब आने की सोचें!

(पुष्परंजन)

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