गुजरात में ‘संपन्न’ पटेलों का आरक्षण-विस्फोट न आकस्मिक है और न अंतिम। संभवत: हम शिक्षा और रोजगार में आरक्षण के तीसरे चरण से रूबरू हैं! पहला चरण यानी अनुसूचित जाति-जनजाति का सार्वभौमिक मताधिकार के दम पर टिका आरक्षण। दूसरा चरण यानी ओबीसी आरक्षण, जिसे दिशाहीन औद्योगीकरण ने खुराक पहुंचाई। तीसरे चरण के उकसावे का स्रोत उन्मत्त वैश्वीकरण है। यह केवल राजनीतिक दावेदारी या सामाजिक चेतावनी जैसी परिघटना नहीं, आर्थिक वास्तविकता भी है। वैश्वीकरण के दौर में कृषि क्षेत्र के बढ़ते रोजगार संकट ने एक के बाद एक ग्रामीण भारत के पारंपरिक खाते-पीते तबकों को भी अनिश्चित-असुरक्षित भविष्य के दोराहे पर ला खड़ा किया है। जैसे अंधाधुंध औद्योगीकरण ने कभी मंडल आरक्षणों की अपरिहार्य जमीन पुख्ता की थी, बेलगाम वैश्वीकरण ने अब इसी जमीन पर नए और कहीं ज्यादा मजबूत आरक्षण दावेदार खड़े कर दिए हैं।

तीसरे चरण तक आते-आते बात सिर्फ राजनीतिक और सामाजिक संतुलन की नहीं रह गई है। भारतीय लोकतंत्र के लिए गुरुतर सवाल है आर्थिक समीकरण के संतुलन का। अगर जंगल में दुर्भिक्ष की आशंका हो तो क्या आप लोमड़ी को मुर्गियों के बाड़े में डालने का हल देना चाहेंगे? गुजरात के पटेलों को ओबीसी कोटे में शामिल करने की मांग कुछ ऐसा ही परिदृश्य है। इन पटेलों जैसे, ग्रामीण भूभाग में पारंपरिक रूप से कृषि संसाधनों पर काबिज चले आ रहे अन्य समुदायों मसलन, हरियाणा में जाट या महाराष्ट्र में मराठा के इस आरक्षित श्रेणी में प्रवेश करने की कीमत हाशिये के ओबीसी समुदायों को ही तो चुकानी पड़ेगी। हालांकि आरक्षण के घोषित सामाजिक लक्ष्यों के बावजूद यह व्यवस्था हाशिया समुदायों के लिए भी मरीचिका में जीने वाली स्थिति ही रही है।

अगर लोग बड़ी संख्या में बेरोजगारी की चपेट में हैं, तो इसका संबंध जातिगत आरक्षण से नहीं है। इसका सीधा संबंध रोजगार लुप्त होने से है। विश्व के तमाम अन्य समाजों में जहां जातिगत आरक्षण नहीं है, वहां भी विभिन्न स्तरों की बेरोजगारी मिलेगी। मान लीजिए आज भारत में जातिगत आरक्षण का प्रावधान समाप्त कर दिया जाए और सभी लोग सामान्य श्रेणी में आ जाएं, तो उस हालत में भी रोजगार पाने वालों की कुल संख्या में तो कोई वृद्धि नहीं होगी। सिर्फ इतना परिवर्तन होगा कि जो तबके बेहतर पढ़ाई की सुविधा पा रहे हैं या जो प्रवेश/ भर्ती खरीदने में समर्थ हैं वे कहीं ज्यादा संख्या में सफलता की सूची में नजर आएंगे और उसी अनुपात में आर्थिक-शैक्षिक-सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के सफल उम्मीदवार कम हो जाएंगे।

आरक्षण की बंदरबांट शत-प्रतिशत रोजगार गारंटी की बहस नहीं है। इस क्रम में आरक्षण को बेशक भारतीय समाज की राष्ट्रीय जरूरत जैसा नियोजित किया गया है, पर आरक्षण की सत्ता-राजनीति करने वालों का एजेंडा और है। यह षड्यंत्र समझ से बाहर नहीं है कि बेरोजगारी और दिशाहीनता से त्रस्त देश का युवा समुदाय रोजगार और शिक्षा में शत-प्रतिशत आरक्षण वाली व्यवस्था बनाने के लिए सड़कों पर क्यों नहीं उतर पाता? ऐसा क्यों है कि मनुष्य स्व-निर्मित व्यवस्थाओं के चलते बेरोजगारी का शिकार बनता है? जरा सोचिए, संपूर्ण प्राणी जगत में मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है, जो बेरोजगार होने का अभिशाप उठाने को बाध्य है; जो परजीवी जीवन-पद्धति में न जन्मते भी भत्ता, दान, भीख, दलाली और वेश्यावृत्ति जैसी परजीविता में जीने को बाध्य है। दरअसल, यह पूंजीवादी व्यवस्था में ही निहित है कि अवसरों के अभाव में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा बेरोजगारों-परजीवियों का होगा। उसी तरह, जैसे पहले की सामंती व्यवस्था में विशाल पराश्रित हिस्सा हाड़-तोड़ श्रम के एवज में जीवन-निर्वाह के न्यूनतम पायदान पर बना रहता था।

जाहिर है, कमतर रोजगार अवसरों के संदर्भ में आरक्षण ही नहीं, जनसंख्या का रोना भी असंगत है। मनुष्य निर्मित सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से तय होता है कि समाज में सबके लिए रोजगार हैं या नहीं; स्वस्थ रोजगार हैं या नहीं; मजबूरी के खैराती रोजगार हैं या मनचाहे रुझान वाले अधिकार सरीखे काम करने के अवसर। अन्यथा क्या हर नया जन्मा शिशु कितने ही रोजगारों को जन्म देने में समर्थ नहीं होता? उसे स्वास्थ्य, शिक्षा, संगीत, भाषा, कानून, साहित्य, कला, किसानी, जंगल, खनिज, श्रम, औजार, तकनीक, खेल-कूद, इतिहास, भूगोल, भूगर्भ, जलवायु, सभ्यता, रसोई, विज्ञान, व्यापार, पर्यटन, इंजीनियरिंग, प्रबंधन, मशीन, समुद्र, अध्यात्म, धर्म, अंतरिक्ष, खगोल, परंपरा, विरासत आदि से रूबरू कराने वालों की जरूरत होगी ही। वैश्वीकरण-उदारीकरण विकास-क्रम में, रोजगार के ये तमाम अवसर कहां गायब हो गए हैं?

ध्यान रहे कि आरक्षण कमजोर को नहीं, मजबूत को मिलता है। क्या स्वतंत्र भारत में सार्वभौमिक मताधिकार लागू होने से पहले सत्ताधारी वर्गों का शिक्षा, रोजगार और संसाधनों पर शत-प्रतिशत आरक्षण नहीं होता था? आज के आरक्षित समुदाय तब किस स्थिति में थे? हजारों साल तक जब समाज में सवर्णों के पक्ष में शत-प्रतिशत आरक्षण चलता रहा, वंचना के अंतिम गुलाम छोर पर कौन-से तबके पड़े रहे थे?
सार्वभौमिक मताधिकार के राजनीतिक धरातल पर मिली मोलभाव की क्षमता से ही दलितों और आदिवासियों के संविधान में आरक्षण का मार्ग प्रशस्त रहा। इसी तरह मंडल कमीशन के कंधे पर सवार होकर आया ओबीसी आरक्षण भी पिछड़े तबकों की लोकतांत्रिक सत्ता की बिसात पर बढ़ती हैसियत से संभव हुआ न कि किसी खैरात से। सवर्ण मानसिकता बेशक इन आरक्षणों की सामाजिकता को आत्मसात न कर सकी हो, पर तंत्र के नीतिकारों ने आरक्षण के प्रथम दो चरणों का तत्कालीन आर्थिकी से कामचलाऊ-सा संतुलन जरूर बैठा लिया। इस मैट्रिक्स को बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर पंचवर्षीय योजनाओं और श्रमिक अधिकार कानूनों से लेकर न्यूनतम समर्थन कृषि मूल्यों के मकड़जाल में देखा जा सकता है। नवगठित नीति आयोग के सामने फिलहाल तीसरे चरण की असंभव-सी दिखती कवायद मुंह बाए खड़ी है- क्या उनकी पैंतरेबाजियों में आरक्षणों की रणनीति को वैश्वीकरण दौर में भी समाहित कर पाने की क्षमता है?

राजनीतिक विकल्प भी सीमित हो रहे हैं। आर्थिक आधार पर आरक्षण को बतौर विश्वसनीय हल के रूप में सुझाया जा रहा है। पहले के दो हल- पचास प्रतिशत की अधिकतम सीमा और क्रीमी लेयर का निष्कासन- अपना सार जी चुके लगते हैं। आरक्षण के नए दावेदारों को भी उसी पचास प्रतिशत में घुसना होगा और अगर क्रीमी लेयर की अवधारणा, जो अभी सीमित अर्थों में ओबीसी पर लागू है, अनुसूचित जाति-जनजाति पर भी लागू कर दी जाए, उससे अनारक्षित वर्गों के रोजगार अवसर नहीं बढ़ जाते। पश्चिम के विकसित देशों ने रंगभेद के मामले में आर्थिक ‘क्षतिपूर्ति’ के साथ शिक्षण क्षेत्र में ‘एफर्मेटिव एक्शन’ और ‘डाइवर्सिटी प्रोग्राम’ को भी एक मान्य हल के रूप अपनाया है। इन सबके बीच मोदी सरकार की नवीनतम ‘जन-धन’ योजना या ‘लीड बैंक’ जैसे विकल्प टुच्चे सिद्ध हुए हैं।

वैश्वीकरण के दौर में एकमात्र आर्थिक आधार पर आरक्षण क्या बेहतर विकल्प नहीं है? इस सवाल के समांतर कुछ जवाबी सवाल इस प्रकार हैं- व्यापमं जैसे सरकारी रोजगार बेचने वाले घोटाले आए दिन क्यों होते रहते हैं? मेडिकल, इंजीनियरिंग और अन्य पेशेवर कॉलेजों में सीटें क्यों बिकती हैं और उन्हें कौन खरीदता है? उद्योग, व्यवसाय, राजनीति, फिल्म जैसे क्षेत्रों में घुसने के लिए पारिवारिक विरासत क्यों हावी रहती है? क्या धनी पारिवारिक विरासत अच्छे लालन-पालन, अच्छी शिक्षा, अच्छे स्वास्थ्य और अच्छे रोजगार के आरक्षण की ही निर्बाध प्रणाली नहीं है? जिन क्षेत्रों में आरक्षण लागू नहीं है, जैसे उच्च न्यायपालिका या सेना वहां आरक्षित समुदायों का प्रतिनिधित्व नगण्य क्यों है?

आज आर्थिक आधार पर लागू किए गए तमाम इडब्लूएस आरक्षणों, जैसे शिक्षा, भूमि, चिकित्सा, आवास, मनरेगा या वनाधिकार का हश्र क्या हो रहा है?
मौजूदा माहौल में अगर जातिगत आधार हटा कर केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाएं तो भी इसमें जातिगत पूर्वग्रह ही खुल कर खेलेंगे। व्यवहार में आर्थिक आरक्षणों का लाभ उच्च और शक्तिशाली जातियों के सदस्यों को मिलेगा, न कि कमजोर तबकों के गरीबों को। किन्हीं गरीबों को मिलेगा, इस पर भी संदेह होना स्वाभाविक है। प्रोफेसर विवेक कुमार के शब्दों में, ‘आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। गरीबों की आर्थिक वंचना दूर करने हेतु सरकार अनेक कार्यक्रम चला रही है और अगर चाहे तो वह निर्धनों के लिए और भी कई कार्यक्रम चला सकती है। पर आरक्षण हजारों साल से सत्ता और संसाधनों से वंचित किए गए समाज के स्वप्रतिनिधित्व की प्रक्रिया है।’

दरअसल, जातिगत आरक्षणों ने भारत की हजारों वर्षों की अमानवीय सामाजिकी को मानवीय गरिमा दी है। आरक्षण से डॉक्टर या इंजीनियर जैसे पेशेवर पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले कम कौशलपूर्ण बन कर नहीं निकलते, क्योंकि संबंधित पेशेवर परीक्षाएं तो उन्हें भी औरों की तरह पास करनी होती हैं। यहां तक कि कोई अध्ययन नहीं है, जो सिद्ध करे कि सामान्य कोटे से सरकारी नौकरियां पाने वाले अभ्यर्थी समकक्ष आरक्षितों के मुकाबले अधिक न्यायपूर्ण, कुशल या समाजोपयोगी सिद्ध हुए हैं। औद्योगीकरण से निकले वैश्वीकरण के दौर में उत्पादकता और प्रबंधन को ‘मेरिट’ नहीं ‘कौशल’ का और भी मोहताज रहना है। भारत में पारंपरिक रूप से सवर्ण तबका ‘मेरिट’ में और गैर-सवर्ण ‘कौशल’ में आगे रहे हैं। हर क्षेत्र में ‘मेरिट’ की कृत्रिम प्रधानता ने ‘कौशल’ वालों के रोजगार पर लगातार चोट की है। कृषि क्षेत्र से व्यक्ति और रोजगार दोनों के व्यापक पलायन ने ही आरक्षण मुद्दे को सुरसा के मुंह-सी पहेली में बदल कर रख दिया है।

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta