विजय प्रकाश श्रीवास्तव
उद्यमिता आधारित एमबीए अथवा एमबीए में एक विषय के रूप में उद्यमिता को शामिल करना कुछ ही लोगों की जरूरतें पूरी कर सकता है, वह भी प्राय: उस वर्ग की जो साधनों की दृष्टि से समर्थ है। उद्यमिता विकास की जरूरत कहीं ज्यादा उन युवाओं को है जो मध्य, निम्न मध्य वर्ग तथा छोटे शहरों, कस्बों और गांवों से ताल्लुक रखते हैं।
दुनिया में भारत की चर्चा विभिन्न संदर्भों में की जाती है। इन्हीं में से एक है जनसंख्या लाभ में भारत का अग्रणी होना। किसी भी देश के लिए जनसंख्या लाभ वह स्थिति होती है जब आबादी के बड़े हिस्से को उत्पादक कार्यों में नियोजित कर उत्पादन का स्तर बढ़ाया जा सके। एक अनुमान के अनुसार अगले वर्ष अर्थात 2022 में भारतीय जनसंख्या की औसत आयु अट्ठाईस वर्ष होगी, जबकि चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका में यह सैंतीस वर्ष, पश्चिमी यूरोप के देशों में पैंतालीस वर्ष और जापान में उनचास वर्ष होगी। अत: आबादी के लिहाज से हम दुनिया के सबसे युवा देश हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जनसंख्या लाभ की यह स्थिति अपने आप हकीकत में नहीं बदलने वाली। इसके लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास करने होंगे।
भारतीय शिक्षा प्रणाली की कई मामलों में आलोचना की जाती रही है। कहा जाता रहा है कि यह शिक्षा व्यवस्था रट कर अंक जुटाने को बढ़ावा देने वाली है, यह विद्यार्थियों की सोच को विकसित नहीं होने देती, जिससे विद्यार्थियों में कल्पनाशीलता, सृजनशीलता और उद्यमिता की भावना कम देखने को मिलती है। हो सकता है नई शिक्षा नीति लागू किए जाने से स्थितियों में कुछ अनुकूल बदलाव हों, पर यह बाद की बात है।
अभी तो ज्यादातर विद्यार्थी पढ़ाई सिर्फ इस उद्देश्य से करते हैं कि यह उन्हें नौकरी दिला सके। पर नौकरी सबको मिल कहां पाती है? देश में बेरोजगारी की स्थिति गंभीर बनी हुई है। कोरोना संकट ने हालात और बदतर कर डाले। महामारी का असर कम होने के साथ रोजगार का परिदृश्य हालांकि सुधरने के आसार बनने लगे हैं, पर यह संभावना दूर-दूर तक नहीं नजर आती कि हमारे देश में हर हाथ को काम यानी रोजगार अगले आठ-दस वर्षों में भी मिल पाएगा।
जब देश की विकास दर में वृद्धि की संभावना व्यक्त की जाती है तो हम खुश हो जाते हैं। अब भी कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने लगी है। पर यह बात कि उक्त वृद्धि रोजगार रहित है, पहले भी कही जा रही थी और अब भी उतनी ही लागू है। अर्थव्यवस्था में रोजगार के उतने अवसर नहीं बन पा रहे हैं जितने कि होने चाहिए। साथ ही यह भी सच है कि एक बड़ा वर्ग उन लोगों का है जिन्हें अपनी शिक्षा के हिसाब से बेहतर रोजगार में होना चाहिए था, पर रोजी-रोटी कमाने के लिए उन्हें समझौता करना पड़ा। एक और बात जिस पर कम ध्यान दिया गया है, वह कृषि पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता का कम होता जाना है। कृषि में अब पहले से कम संख्या में लोग नियोजित हैं, भले ही कृषि उत्पादन अधिक हो रहा हो। बेरोजगारों की संख्या में कृषि से बाहर आए लोगों की संख्या भी जुड़ती जा रही है।
अगर सबके लिए रोजगार नहीं है और देश में बेरोजगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है, तो एक ही रास्ता दिखता है कि अधिक से अधिक लोग उद्यमी बनें और अपने पैरों पर खड़े हों। उद्यमी बनने से मतलब यहां उद्योगपति बनाने से नहीं, बल्कि खुद का व्यवसाय शुरू करने से है। नौकरियों के लिए लोगों का ज्यादा आकर्षण इसलिए होता है कि इसमें जोखिम कम होता है, हर महीने वेतन मिलना सुनिश्चित होता है, काम का समय तय होता है और ढंग से काम करें तो तरक्की मिलती रहती है। पर उद्यमिता में जोखिम है।
पांव जमाने और स्पर्धा में टिके रहने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जाहिर है, उद्यमी बनने की राह नौकरी करने के मुकाबले कहीं ज्यादा कठिन है। ज्यादातर लोग आसान राह चुनना पसंद करते हैं। पर ऐसे नौजवान भी हैं जो जोखिम उठाना पसंद करते हैं। आइआइटी और आइआइएम के कई विद्यार्थी जिन्हें मोटी तनख्वाह पर सुस्थापित कंपनियों में नौकरी के अवसरों की कमी नहीं होती, वे भी स्वतंत्र व्यवसाय को प्राथमिकता देते हैं। इसी तरह से भारत में कारोबारी नवाचार की संस्कृति विकसित हो रही है। लेकिन जिस उद्यमिता की बात हम कर रहे हैं, वह सादगीपूर्ण और व्यापक आधार वाली है तथा उन लोगों से जुड़ी है जिन्हें भले ही शानदार संस्थानों से पढ़ाई करने का अवसर न मिला हो, पर जिनमें निहित संभावनाओं को मूर्त रूप देना संभव हो।
भारत में अगर उद्यमिता की प्रवृति कम देखने को मिलती है तो इसके पीछे कुछ स्पष्ट कारण हैं। दरअसल बुनियादी स्तर पर उद्यमिता के विकास के लिए हमारे यहां प्रयासों में हमेशा से कमी रही है। उद्यमिता आधारित एमबीए अथवा एमबीए में एक विषय के रूप में उद्यमिता को शामिल करना कुछ ही लोगों की जरूरतें पूरी कर सकता है, वह भी प्राय: उस वर्ग की जो साधनों की दृष्टि से समर्थ है। उद्यमिता विकास की जरूरत कहीं ज्यादा उन युवाओं को है जो मध्य, निम्न मध्य वर्ग तथा छोटे शहरों, कस्बों और गांवों से ताल्लुक रखते हैं। व्यवहार विज्ञानी उद्यमिता को एक मानसिकता बताते हैं। कर्म से सफल उद्यमी बनाने के लिए मन से उद्यमी होना चाहिए। शिक्षण व प्रशिक्षण की भूमिका यहीं आती है। लोगों में उद्यमिता की भावना विकसित की जा सकती है। उद्यमिता एक जन्मजात गुण है, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
इसलिए उचित होगा कि उद्यमिता विकास के किसी भी नए अभियान में सबसे पहले उन युवाओं को शामिल किया जाए, जिन्हें प्रयासों के वावजूद नौकरी पाने में सफलता न मिली हो। उद्यमिता विकास का पहला चरण उद्यमिता अपनाने के प्रति झिझक को दूर करना और इसे लेकर लोगों के मन में बैठी आशंकाओं का निवारण करना है। इसके बाद लोगों को अवसरों को पहचानने और उनके रुझान के अनुसार अवसरों को चुनने का तरीका बताया जाना चाहिए। उद्यमिता के रास्ते में संभावित जोखिम कौनसे हैं, इन्हें कम कैसे किया जाए तथा जोखिमों का सामना कैसे किया जाए, इसकी जानकारी देनी होगी। उद्यम शुरू करने के लिए संसाधनों की जरूरत होगी।
पूंजी तथा अन्य संसाधन जुटाने के लिए हमारे देश में क्या विकल्प हैं, इस पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। प्रशिक्षण में मानव संसाधन, वित्त के प्रबंधन और विपणन संबंधी विषयों की भी जानकारी शामिल होनी चाहिए। प्रशिक्षित लोगों के लिए प्रमाणन की व्यवस्था भी हो जो उन्हें वित्तीय तथा अन्य सहायता पाने में मदद करे। उद्यमिता विकास के लिए प्रारंभिक पहल सरकार को करनी होगी। निजी क्षेत्र भी इसमें पर्याप्त योगदान कर सकता है। इसके विविध तरीके हो सकते हैं जैसे कंपनियां खुद उद्यमिता विकास कार्यक्रम आयोजित करें, कारपोरेट जगत के लोग युवाओं के साथ संवाद करें, उन्हें मार्गदर्शन दें, उनके साथ अपने अनुभव साझा करें।
बेरोजगारी की कीमत देश कई प्रकार से चुकाता है। देश के एक भी नागरिक की प्रतिभा का उपयोग नहीं हो पाना प्रतिभा को गंवा देने जैसा है। इसके साथ अवसर लागत की कीमत भी चुकानी पड़ती है। बेरोजगारी कुंठा और निराशा पैदा करती है। कई युवा जब अपनी योग्यता, क्षमता और कुशलता का रचनात्मक उपयोग नहीं कर पाते तो गलत रास्ते की ओर उन्मुख हो जाते हैं। बेरोजगारी केवल बेरोजगार व्यक्ति के लिए समस्या नहीं है। इससे होने वाले नुकसानों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अल्पावधि में रोजगार के अवसरों में भले भारी वृद्धि नहीं की जा सके, पर युवाओं को उद्यमिता की राह चुनने को प्रेरित कर हम उन्हें रचनात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं, बेरोजगारी के दुष्प्रभावों को कम कर सकते हैं और इन सबसे राष्ट्रीय आय का स्तर भी ऊंचा उठा सकते हैं।