कुमार प्रशांत

जनसत्ता 10 नवंबर, 2014: पिछले हफ्ते मीडिया में आई कुछ तस्वीरों ने स्वच्छ भारत अभियान के उस विद्रूप को सामने ला दिया जिसके बारे में हम पहले से सुनते आ रहे थे। ये तस्वीरें बताती हैं कि दिल्ली के लोदी रोड इलाके में, जो यों ही साफ-सुथरा रहता है, भाजपा के दिल्ली-अध्यक्ष के झाड़ू लगाने से पहले वहां कूड़ा लाकर बिखेरा गया। सफाई का ऐसा नाटक देश भर में न जाने कितनी जगहों पर कितनी बार खेला गया होगा। इन दिनों हम रोज किसी न किसी ‘बड़े’ आदमी को प्रधानमंत्री द्वारा उछाली गई सफाई की चुनौती स्वीकार करते देख रहे हैं- कभी सानिया मिर्जा तो कभी नीता अंबानी तो कभी सचिन तेंदुलकर! और तो और, इतिहास और दर्शन के जानकार विद्वान और ‘विजयी कांग्रेसी सांसद’ की विलुप्त होती प्रजाति के सदस्य शशि थरूर ने भी झाड़ू थाम लिया और सबको झाड़ू से चुनौती दे रहे प्रधानमंत्री को यह चुनौती भी दे डाली कि जब तक यह झाड़ू उनके हाथ में है, वे गांधी को उनसे छीन नहीं सकते हैं। हृतिक रोशन, अनिल अंबानी और सलमान खान ने भी सफाई का झाड़ू थामा था।

नरेंद्र मोदी से लेकर सलमान खान तक ने सफाई की, इसका चश्मदीद गवाह था वेबसाइट। इन सबने इधर सफाई की और उधर वेबसाइट पर उसकी साफ तस्वीरें डाल दीं। सोचता हूं कि अगर बरसों-बरस से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी से जो लोग इस देश की सफाई करते आए हैं, वे सब भी रोज अपना सफाई करता फोटो वेबसाइट पर डालने लगें तो क्या होगा? सारी वेबसाइटें ‘क्रैश’ कर जाएंगी और खबर बनेगी कि सफाई करने वालों ने इतनी गंदगी फैला दी कि विज्ञान ने भी हथियार डाल दिए।

यह भी सोचता हूं कि सफाई के ये जो नए सिपाही वेबसाइट वाली सड़कों पर सफाई के लिए उतर रहे हैं, आजादी के बाद से अब तक, नाम बदल-बदल कर, इन्हीं लोगों के हाथ में तो था देश को साफ रखने का जिम्मा। फिर यह कैसे हुआ कि देश इतना गंदा ही नहीं हुआ, बल्कि गंदगी फैलाने के सारे कारनामे इन्हीं लोगों के नाम से जुड़े हैं? क्या हम भूल सकते हैं कि गुजरात देश का एकमात्र ऐसा प्रदेश है जिसके बारे में हमारे सर्वोच्च न्यायालय की यह कानूनी घोषणा है कि 2002 के सांप्रदायिक दंगों के संदर्भ में न्याय की खोज करने वाला कोई भी मुकदमा यहां से बाहर चलाया जाए, क्योंकि वहां फैली ‘गंदगी’ में न्याय की कोई भी खोज संभव नहीं है। इस गंदगी की सफाई के बारे में सब चुप क्यों हैं?

जिस दिन प्रधानमंत्री झाड़ू लेकर उतरे, उस दिन ऐसा कहने और पूछने वाले बहुत थे कि प्रधानमंत्री की फोटो खिंचवाने वाली सफाई से स्वच्छ भारत कैसे बनेगा? लेकिन यह आशंका किसी को नहीं थी कि सड़कों की सफाई के तुरंत बाद, राजनीतिक-सार्वजनिक जीवन का आसमान इतना गंदला दिखने लगेगा। महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस हारी, इससे अच्छी और जरूरी बात दूसरी नहीं हो सकती थी, लेकिन लोकसभा का चुनाव जीतने के क्रम में जितना कलुष और झूठ फैलाया और गलतबयानी की भारतीय जनता पार्टी ने, महाराष्ट्र और हरियाणा में उसी का दूसरा चरण पूरा किया गया। प्रधानमंत्री परिधान और पगड़ियां बदलते रहे और वैसे राजनीतिक हमले करते रहे जिनका मकसद किसी भी कीमत पर सत्ता पाना था।

स्वच्छता अभियान की शुरुआत के लिए गांधी जयंती का दिन चुना गया, यह संदेश देने के लिए कि गांधीजी के ही एक सपने को पूरा करने का बीड़ा उठाया गया है। गांधीजी की स्वच्छता की अवधारणा केवल बाहरी नहीं है, वह सत्य और अहिंसा के आचरण से बुनियादी रूप से जुड़ी हुई है।

इस अवधारणा के मुताबिक स्वच्छता को अपनाना है तो चित्त की निर्मलता और सार्वजनिक जीवन की शुचिता की भी बात करनी होगी। अगर दिमाग की गंदगी साफ न करें तो सड़कों की गंदगी भी साफ नहीं की जा सकती, फोटो चाहे जितने छपा लें आप। क्योंकि दरअसल गंदगी क्या है? जो चीज अपनी समुचित जगह पर नहीं रखी है, वह गंदगी है। राजनीति के साथ भी यही सच है। सार्वजनिक जीवन में राजनीति की मर्यादा क्या है, यह बात नीति से तय करनी पड़ती है। इसलिए गांधी ने नीतिविहीन राजनीति को सात सामाजिक पातकों में एक माना था।

लेकिन अभी बात स्वच्छ भारत अभियान की। मैं प्रधानमंत्री को यह श्रेय जरूर दूंगा कि उन्होंने सत्ता की राजनीतिक छीना-झपटी में सफाई, गंगा, अर्थहीन कानून, गांधी, नेहरू, सरदार, जयप्रकाश, लालबहादुर, इंदिरा गांधी आदि को भी शामिल कर, राजनीति को कुछ ज्यादा रंगीन बना दिया है। लेकिन ऐसी रंगीनी कितनी टिकाऊ होती है, हम सभी जानते हैं।

अब जबकि भारत स्वच्छ किया जा चुका है, यह हिसाब हमें पूछना ही चाहिए कि इस अभियान में कितना खर्च आया? इसके टीवी और अखबारी विज्ञापनों का कितना खर्च आया; इस सफाई के एकदिनी अभियान के लिए साफ-सुथरे संसाधन खरीदने का ठेका किसे और कितने का मिला; मंत्रियों ने अपनी-अपनी तरह, अपनी-अपनी पसंद की जगह पर जो सफाई की, उस पर कितना खर्च आया; बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, हैंडबिल से लेकर दूसरी सामग्री की छपाई पर कितना खर्च आया; और फिर यह भी कि इस सफाई अभियान को सफल बनाने के क्रम में जितनी गंदगी जमा की गई, उसकी सफाई की क्या व्यवस्था हुई और उस पर कितना खर्च आया? यह सारा हिसाब इसलिए नहीं पूछ रहा हूं कि प्रधानमंत्री की स्वच्छ भारत मुहिम मुझे पसंद नहीं आई; कि वह गलत थी, बल्कि यह सब जानना बहुत जरूरी इसलिए है ताकि प्रधानमंत्री भी और देश भी यह जान सके कि लागत और मुनाफे का कोई भी गणित यहां काम करता है क्या?

और फिर यह भी कि क्या दो अक्तूबर को की गई वह सफाई आज भी, रोज-रोज जारी है? क्या ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री भी और उनके मंत्री-राज्यमंत्री भी सुबह दफ्तर पहुंच कर, ज्यादा नहीं तो अपने केबिन की ही झाड़-पोंछ अपने हाथों करने लगे हैं? भले प्रधानमंत्री के केबिन में बेशकीमती कालीन बिछा हो, लेकिन उस कमरे के कोने में एक झाड़ू भी रखा जाने लगा है ताकि मुलाकातियों के जाने के बाद प्रधानमंत्री उस कालीन की सफाई कर लें? और वे सारे बाबू लोग, जिनकी बाबूगिरी आज तक इसी से सिद्ध होती रही है कि वे अपने हाथ से कोई काम नहीं करते, उनके हर काम करने के लिए दूसरे हाथ तैयार रहते हैं, क्या वे भी अपनी केबिन खुद साफ करने लगे हैं? अखबारों में खबर छपी थी कि सीबीआइ निदेशक साहब के घर पर, उनका निजी काम करने के लिए कितने सरकारी कर्मचारी लगाए गए थे। क्या उनकी संख्या में कमी हुई, क्योंकि निदेशक महोदय अब अपना बरामदा खुद बुहारने लगे हैं? कोई तो आधार बनाना होगा कि जिसके आधार पर हम कह सकें कि इस सफाई अभियान से देश की सफाई हुई, सिर्फ सार्वजनिक खजाने की सफाई नहीं हुई।

हम यह न भूलें कि स्वच्छ भारत अभियान हो या कि दूसरा कोई अभियान या कि किसी अनजान-से आदमी के जन्मदिन की मुबारकबाद देता हुआ सार्वजनिक पोस्टर या कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने या प्रियंका गांधी को राजनीति में लाने का बिगुल बजाता बैनर, ये सब देश के कूड़ाखाने में अपरिमित वृद्धि करते हैं।

बहुत जरूरी है यह सावधानी कि महात्मा गांधी को जैसा स्वच्छ भारत देना चाहते हैं प्रधानमंत्री, वैसा भारत बनाने की घोषणा करने में नई गंदगी न बनाई जाए, न फैलाई जाए। फ्लैक्स के बैनर-होर्डिंग वैसी ही जहरीली गंदगी के स्रोत हैं जैसी जहरीली गंदगी प्लास्टिक के थैलों से फैल रही है। जैसे प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत है वैसे ही सफाई के लिहाज से प्रचार के इन संसाधनों पर भी प्रतिबंध जरूरी है। प्रधानमंत्री की नजर में यह बात आनी चाहिए कि ऐसी गंदगी का सर्जन बढ़ा है। इस गंदगी का सीधा रिश्ता सत्ता की भूख से है।

क्या आदमी सफाई का संस्कार लेकर पैदा होता है? मनुष्य का सामान्य विकास-क्रम देख कर ऐसा लगता तो नहीं है। हर बच्चा गंदगी में, गंदगी से खेलता दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि गंदगी और सफाई में भेद करना आदमी आदमी को सिखाता है, अपने परिवेश से आदमी सीखता है और अपनी आर्थिक-सामाजिक अवस्था की सीमा में ही उसे अपनाता है। इसलिए देश में सफाई का माहौल बनाना जरूरी है ताकि उस माहौल से लोग सीखें। यह माहौल बनेगा तभी जब हम सब अपनी-अपनी जगहों की सफाई का खुद ध्यान रखते दिखाई देंगे। हम ऐसा करेंगे तो गंदगी की आधी समस्या तो हल हो जाएगी। फिर सार्वजनिक जगहों की सफाई के लिए ही हमें कोई व्यवस्था बनानी होगी।

जब लोग देखेंगे कि सड़कों की, सरकारी कार्यालयों की, रेलवे स्टेशनों और रेलगाड़ियों की, बस पड़ावों की, अस्पतालों और बाजारों की सफाई के विभाग पूरी मुस्तैदी से काम कर रहे हैं तब लोग घरों का कूड़ा सड़कों पर फेंकते हिचकेंगे। और फिर गंदगी फैलाने वालों के लिए दंड का विधान भी किया जाए इस सावधानी के साथ कि दंडित करने और दंड की वसूली में गंदगी न हो। सफाई का यह मनोविज्ञान सारे देश में बनेगा तो हमारा नया नागरिक उसी में दीक्षित होगा और सफाई का वाहक बनेगा। जब कैमरे को झाड़ू बना कर प्रधानमंत्री प्रायोजित सफाई होती है, तब इतना ही नहीं होता कि सफाई नहीं होती है, बल्कि सफाई के उपहास का वातावरण बनता है। इससे एक नई गंदगी पैदा होती है।

अब थोड़ी-सी बात उस गंदगी की, जिससे सारा आसमान पटा है। चुनाव-पद्धति का मूलमंत्र यह है कि मनुष्य और समाज में जितनी गंदगी, जितनी कुरूपताएं, जितनी क्षुद्रताएं और जितना कल्मष है सबको उभार कर सामने ही न लाया जाए, बल्कि उसे कई-कई गुना बढ़ा कर फैलाया जाए। हमारे यहां चुनाव गंदगी के विस्तार की संविधानसम्मत व्यवस्था है। इसका मुकाबला कैसे करेंगे आप? अगर इसका प्रधानमंत्री का कैलेंडर यह है कि चुनाव जीतने के लिए जितनी चाहो गंदगी फैलाओ, फिर उधर से आंख मूंद कर सड़क की सफाई करो, तो इस लड़ाई में जीत गंदगी की ही होगी। गंदगी गंदगी से नहीं कटती, यह याद रखें हम।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta