विनोद कुमार

जनसत्ता 17 अक्तूबर, 2014: आमिर खान की फिल्म ‘पीपली लाइव’ के अंत में यह जानकारी दी गई कि 1991 से 2001 तक अस्सी लाख किसानों ने किसानी छोड़ी। यह फिल्म जो बताना चाहती है, वह आज से सत्तर वर्ष पूर्व प्रेमचंद अपनी कहानी ‘कफन’ में बता चुके हैं। वह यह कि हमारे समाज में मानवीय श्रम की जो कीमत रह गई है, उसके चलते ऐसे संवेदनहीन मनुष्य पैदा हो रहे हैं, जो कफन के पैसे से शराब पी जाते हैं। प्रेमचंद की एक और कहानी ‘पूस की रात’ भी हमें इसी यथार्थ से परिचित कराती है कि आज की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में श्रम का कोई मोल नहीं और आदमी देर-सबेर श्रम करने से ही बेजार हो जाता है। याद कीजिए पूस की रात में मचान पर बैठा किसान, पिछले पहर में सो जाता है और सुबह जब उसकी नींद पत्नी के शोरगुल से खुलती है, तो वह देखता है, पूरी फसल जानवर चट कर चुके हैं। लेकिन भीतर से वह खुश होता है, चलो अब ठंड की रात में खुले मचान पर सोना तो नहीं पड़ेगा।

ये कहानियां अपने समय का यथार्थ कहती हैं। आज का यथार्थ तो और भी भीषण है। और कई बार जेहन को यह सवाल खरोंचता है कि आज की लूट की संस्कृति में मानवीय श्रम का क्या मोल रह गया है? क्यों कोई श्रम करना चाहे? हमने कहावत बनाई है कि मेहनत का फल मीठा होता है। क्या वास्तव में परिश्रम- हमारा आशय शुद्ध मानवीय श्रम से है- से हम दो वक्त की रोटी जुटाने के सिवा कुछ भी हासिल कर सकते हैं? मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सकते हैं?

ओड़िशा का आदिवासीबहुल इलाका मनीगुड़ा रायगढ़ा जिले का एक प्रखंड है। यह गांव नियमगिरि पहाड़ी शृंखला की तराई में है। पहाड़ों पर डोंगरिया कोंध रहते हैं, जो सैकड़ों किस्म के फल और सब्जियां उगाते हैं। अभी अन्नानास का मौसम है। पता नहीं दिल्ली में किस भाव है, लेकिन वे ढेर में उसे महज आठ-दस रुपए में बेच कर वापस लौट जाते हैं। वही अन्नानास पंद्रह से बीस रुपए में बिकता है स्थानीय बाजार में। फेरी वाले जब उसे चार टुकड़ों में काट कर और थैली में रख कर स्टेशन पर बेचते हैं तो एक अन्नानास चालीस रुपए में बिकता है। जूस की दुकान में एक अन्नानास से चार गिलास जूस अस्सी रुपए में बिकता है। और कॉरपोरेट जगत तो पैकिंग और प्रचार के बल पर उसे सैकड़ों रुपए में बेचता है।

यानी, जो खून-पसीना बहा कर अन्नानास को उगाता है, उसे तो उचित मूल्य नहीं मिलता, उससे ज्यादा फायदा उसका करोबार करने में है, चाहे वह सड़क पर फेरी लगाने वाला हो या व्यापारी। इसलिए उत्पादन प्रक्रिया और कारोबार में सबसे अहम भूमिका निभाने वाला किसान विपन्न रह जाता है। आदिवासी एक अलग तरह के लोग हैं। उन्हें इस दुनियादारी से कोई मतलब नहीं। लेकिन जो थोड़े भी समझदार हुए, या थोड़ी पढ़ाई-लिखाई की, उनकी पीढ़ी अब किसानी नहीं करना चाहती।

इस आदिवासीबहुल इलाके में कपास की खेती होती है। हाल की बारिश के बाद एक बार फिर किसान हल-बैल लेकर निकल पड़े। मैं करीब जाकर उनमें से एक से मिला, जिसका नाम पापा राव है। आंध्र प्रदेश से जुड़े इलाके में रहने की वजह से शायद उसने अपने नाम में राव जोड़ लिया, लेकिन वे उस समूह के आदिवासी हैं, जो सुदूर आंध्र के आरकू वैली तक फैले हुए हैं। मैंने उनसे कपास की खेती के बारे में जानना-समझना चाहा। उस समय बात नहीं हो सकी, तो शाम को उनकी बस्ती गया। आठ गुणे आठ के दो छोटे-छोटे कच्चे-पक्के कमरे। पीछे रसोई घर, आंगन, जिसमें लगी थी लकड़ियों की टाल। वे जमीन पर ही तौलिया बिछा कर सोए हुए थे। दिन भर के श्रम से थके हुए। मेरे बुलाने पर जगे।

उन्होंने बताया कि दो एकड़ जमीन है उनके पास। अभी बोएंगे तो आठ महीने में फसल तैयार। एक एकड़ में तेरह-चौदह क्विंटल कपास। प्रति क्विंटल पांच हजार कीमत, यानी एक लाख चालीस हजार का माल। लेकिन खर्च भी है। किसी मालिक से वे बीज लाते हैं। आठ सौ रुपए में एक पैकेट, लेकिन चुकाते हैं बारह सौ रुपए। फसल भी वही खरीद लेता है। उन्हें मलाल नहीं। उधारी देगा तो सूद लेगा ही। इसके अलावा पौधों की सुरक्षा, मिट्टी चढ़ाना, खाद, पानी, दवा। यानी बमुश्किल उनके हाथ में पचास-साठ हजार रुपए प्रतिवर्ष आते हैं। वे इतने से संतुष्ट हैं। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं।

लेकिन आदिवासी जमीन को लेकर ओड़िशा में जो लूट का मंजर है, उसे एक नजर देखिए और फिर आंकिए मनुष्य के श्रम का मोल। कैग की पिछली रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ था कि ओड़िशा औद्योगिक विकास निगम ने हाल के वर्षों में 29769.48 एकड़ निजी जमीन और 16963.41 एकड़ सरकारी जमीन उद्योगपतियों को आबंटित की।

इनमें से बावन वैसे कॉरपोरेट हैं, जिनके साथ सरकार ने एमओयू किए थे और चौवन ऐसे, जिनके साथ कोई एमओयू नहीं हुआ था। आदिवासी किसानों से अधिकतम पचास हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से कॉरपोरेशन ने जमीन अधिग्रहीत की, देश के विकास के नाम पर और उद्योगपतियों को बेची करीब दो लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से। यानी कॉरपोरेशन ने प्रति एकड़ डेढ़ लाख रुपए कमाए।

फिर उद्योगपतियों ने क्या किया? उसी जमीन को बैंक के पास रेहन रख कर प्रति एकड़ दो करोड़ का कर्ज ले लिया। कारखाना तो पता नहीं कब लगेगा, लेकिन सबने धंधा कर करोड़ों रुपए बना लिए। तरह-तरह की मंजूरी लंबित हैं। मोदी के सत्ता में आते ही इसलिए कॉरपोरेट जगत की तरफ से मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द मंजूरी दी जाए, ताकि विकास को गति मिले, कॉरपोरेट जगत का जो पैसा फंसा हुआ है, उसे गति मिले, वरना अर्थव्यवस्था ठप हो जाएगी। लेकिन अगर वे पैसा न लौटाएं तो क्या होगा? अधिक से अधिक वह जमीन, जो उन्होंने रेहन रखी, जब्त हो जाएगी!

कैग ने आश्चर्य व्यक्त किया है कि बैंकों ने कंपनियों को कर्ज किस आधार पर दिया, क्योंकि एनओसी उन्हें सरकार ने नहीं दी थी, कॉरपोरेशन ने दे दी और उसी आधार पर वे बैंक से कर्ज लेने में सफल रहे। इनमें से अधिकतर स्टील, पावर, एल्युमीनियम आदि की कंपनियां हैं। यह उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार का मामला है। लेकिन जांच और त्वरित कार्रवाई में रुचि किसे है? इस तरह का भ्रष्टाचार शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की मिलीभगत से ही होता है। कोई शक हो तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक यूनियन के अधिकारियों के हाल में आए उस बयान पर गौर कीजिए, जिसमें कहा गया है कि 2014 मार्च तक 1,30,360 करोड़ की राशि ‘बैड डेबट्स’ यानी ‘नॉन परफारमिंग एसेट’ के खाते में डाल दी गई है। यह विशाल धनराशि बैंकों से कॉरपोरेट जगत ने ही उठा रखी है और देर-सबेर सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफे से उसकी भरपाई करेगी।

स्विस बैंक से काला धन वापस लाने की हुंकार से चुनाव लड़ने वाली सरकार उन उद्योगपतियों के नाम बताने के लिए भी तैयार नहीं, जो सार्वजनिक बैंकों का अरबों रुपया दाबे बैठे हैं। अब जरा सोचिए, लूट के इस भयानक मंजर में उस गरीब किसान के परिश्रम का भला क्या मोल रह जाता है? समझदारों की नजर में तो वह बेवकूफ ही है, जो जमीन से चिपका हुआ है। मगर मामला सिर्फ किसान का नहीं। हमारे समाज में मानव श्रम की कभी कीमत नहीं रही।

हर तरह के शारीरिक श्रम की कीमत हमारे देश में मिट््टी समान है। और यह सदियों से चला आ रहा है। हमने एक ऐसी वर्णवादी व्यवस्था कायम कर रखी है, जिसमें हर तरह का श्रम शूद्र करता है। भूमिहीन किसान, मझोले किसान, बरतन बनाने वाला कुम्हार, जूते सीने वाला मोची, सफाईकर्मी, कपड़ा बनाने वाला जुलाहा, सब वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं और सबके सब सर्वहारा। उनके पास बसने के लिए भी कभी अपनी जमीन नहीं रही।

आदिवासी समाज के पास अगर थोड़ी जमीन रह गई, तो इस वर्णवादी व्यवस्था से बाहर रहने की वजह से। लेकिन अब उनके जल, जंगल, जमीन पर आक्रमण तीव्र हो गया है। बड़ी संख्या में वे विस्थापन के शिकार हो रहे हैं और उस व्यवस्था में शामिल होते जा रहे हैं, जिसमें हमारे देश का शूद्र रहता है। और चूंकि ऐसे लोगों की आबादी निरंतर बढ़ती जा रही है, इसलिए हर वक्त एक ऐसी लाचार जमात तैयार रहती है, जो कम से कम कीमत पर, कठिन से कठिन और बेगैरत परिस्थितियों में काम करने के लिए तैयार हो जाती है।

खुद दुनिया भर में सस्ते श्रम का ढिंढोरा पीट-पीट कर हमारी सरकारें उद्योगपतियों को अपने यहां बुलाती हैं। आओ, हमारे यहां खनिज संपदा सस्ती है। हमारे यहां मानव श्रम सस्ता है। हम आपको फ्रेंडली वातावरण देंगे। तमाम श्रम कानूनों को कूड़े में डाल देंगे। कभी आपसे नहीं पूछेंगे कि आप अपने यहां काम करने वाले मजूरों को क्या वेतन और सुविधा देंगे। आप उन्हें कब रखेंगे और कब हटाएंगे। बस आइए और पूंजी लगाइए। अपना साम्राज्य खड़ा कीजिए। बस, बदले में हमारे निहित स्वार्थों को पूरा करते रहिए। और स्थिति बिगड़ी तो हमारी पुलिस आपकी सुरक्षा के लिए है न! मारुति उद्योग के हालिया आंदोलन और उसमें हमारी सरकार की भूमिका इसी बात का जीवंत प्रमाण है।

हम यह भूल जाते हैं कि सस्ता श्रम, यानी कम पारिश्रमिक। कम पारिश्रमिक, मतलब मनुष्य से एक दर्जा नीचे जीने की परिस्थितियां। इन्हीं स्थितियों में नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण का दौर आने के बाद हमारे यहां के उद्योगपति तेजी से दुनिया के अमीरों में शुमार होते जा रहे हैं। वे विदेशी कंपनियों को खरीद रहे हैं। मीडिया हमें गर्व से बताता है कि फलां उद्योगपति सौ अमीरों की सूची में शामिल हो गया। कुछ तो टॉप पर हैं, कुछ ऊपर के सात में। मगर क्या यह गर्व का विषय है? एक बड़ी आबादी को मुफलिसी और तंगहाली की स्थिति में ढकेल कर यह जो चंद लोगों की अमीरी पैदा हो रही है, क्या कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस पर इतरा सकता है? और इन परिस्थितियों में अगर मेहनतकश आबादी का ईमानदार श्रम से विश्वास उठ रहा है, वह काम से ही बेजार होता जा रहा है तो इसके लिए कौन दोषी है?

 

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