पुष्परंजन

अलग-अलग दो दृश्यों की हम बात करते हैं। पहला दृश्य छब्बीस नवंबर को काठमांडो के राष्ट्रीय सभागृह का है, जहां पर दक्षेस बैठक में दो शिखर नेता, नवाज शरीफ और नरेंद्र मोदी एक-दूसरे की तरफ देख तक नहीं रहे थे। आठ शिखर नेताओं से सुशोभित मंच पर दाहिने से महिंदा राजपक्षे, नवाज शरीफ के बाद सुशील कोइराला, अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम और उसी लाइन की पांचवीं कुर्सी पर प्रधानमंत्री मोदी विराजे हुए थे। पूरे उद्घाटन सत्र में नवाज और नरेंद्र मोदी एक दूसरे से नजरें चुराते रहे। चेहरे पर मुस्कराहट तक नहीं थी। अजीब-सी खामोशी, और तनाव का आलम तारी था।

अब दूसरा दृश्य! वह भी छब्बीस तारीख थी। मई का महीना। मोदी भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे। इस शपथ ग्रहण समारोह में आकर्षण के केंद्र थे दक्षिण एशिया के सात राष्ट्राध्यक्ष, जो इस अवसर का साक्षी होने आए थे। नवाज शरीफ को इन सबसे जुदा, अजीम शख्सियत के रूप में मीडिया पेश कर रहा था। ऐसा लग रहा था मानो भारत-पाक के शासनाध्यक्ष दोस्ती, विकास और विश्वास की मिसाल पेश करेंगे। मोदी के इस कदम की वाहवाही हो रही थी। मोदी ने नवाज शरीफ की मां के लिए शॉल उपहारस्वरूप भेजी। उधर से मोदी की मां के लिए तोहफे में नवाज शरीफ ने सफेद साड़ी भेजी। ‘शॉल और साड़ी कूटनीति’ का यह अद्भुत संगम था। बेमिसाल, लाजवाब! राहत इंदौरी ने बड़ा अच्छा लिखा है, ‘दोस्ती जब किसी से की जाए, दुश्मनों की भी राय ली जाए।’ लेकिन कूटनीति में शायरी और नज्म, नसीहत देने के काम कम ही आते हैं।

छह साल पहले छब्बीस नवंबर को मुंबई में आतंकवाद का जो भयानक चेहरा हमारे देश ने देखा, उसकी प्रेतछाया काठमांडो शिखर बैठक पर भी दिख रही थी। नवाज शरीफ सम्मेलन के पहले दिन जब पाकिस्तान में विकास के लिए ‘विजन 2025’, और उन्नीसवां सार्क शिखर सम्मेलन इस्लामाबाद में कराने की बात कर रहे थे, तब ऐसा लग रहा था मानो कूटनीति का कोई फरिश्ता पूरे दक्षिण एशिया के कायाकल्प का संदेश दे रहा हो। काठमांडो में नवाज शरीफ अगर ‘विवादमुक्त दक्षेस’ की कामना कर रहे थे, तो उन्हें छह साल पहले 26/11 को याद कर लेना चाहिए था। नवाज के भाषण से आतंकवाद और अलगाववाद जैसे शब्द नदारद थे। मगर उन्हें मोदी ने 26/11 की याद दिला ही दी। क्या मुंबई हमले की दक्षेस के मंच पर चर्चा करना कूटनीति के हिसाब से सही था? इसकी समीक्षा तो होगी ही। अगर नवाज शरीफ, तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हैं, तो दक्षेस में विकास और विश्वास के नए संकल्पों का क्या होगा? नवाज शरीफ के कार्ड में कश्मीर से लेकर भारत की तरफ से नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी, और बलूचिस्तान में अलगाववाद तक है।

इस बार के काठमांडो शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान उस पुराने मुर्दे को उखाड़ रहा था, जिसमें चीन को दक्षेस का सदस्य बनाने का प्रस्ताव था। पाकिस्तान हर हाल में चीन को सार्क का सदस्य बनाना चाहता है, ताकि भारत अगल-थलग पड़ जाए, और दक्षेस में एक नए ध्रुवीकरण की शुरुआत हो।

पाकिस्तान को चाहिए कि वह चीन को यूरोपीय संघ का सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव दे। यह एक अच्छा कूटनीतिक प्रहसन होगा। वैसा ही मजाक, जो अभी काठमांडो में अठारहवें दक्षेस बैठक में चल रहा था। चीन, भौगोलिक रूप से पूर्वी एशिया का देश है। यह सच है कि चीन की सीमाएं भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, भारत, और अफगानिस्तान से मिलती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चीन को सार्क का सदस्य बना लें। सीमाएं, रूस की भी दक्षेस के आठवें सदस्य अफगानिस्तान से मिलती हैं। तो क्या रूस को भी सार्क का सदस्य बन जाना चाहिए? फिर तो दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क का नाम बदल कर कुछ और रखना होगा।

यह कुछ पटरी से उतरा हुआ प्रस्ताव है, जिसकी शुरुआत नेपाल ने ही 12-13 नवंबर 2005 को ढाका शिखर सम्मेलन में की थी। उस समय नेपाल के तत्कालीन नरेश ज्ञानेंद्र ने चीन को सार्क की सदस्यता प्रदान करने का प्रस्ताव दिया था। बाद के दिनों में बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका ‘चीन बुलाओ सार्क बचाओ’ अभियान का हिस्सा बन गए। शिखर सम्मेलन से ठीक पहले नेपाल के तीन मंत्रियों रामशरण महत (वित्त), महेंद्र बहादुर पांडे (विदेश) और मिनेंद्र रिजाल (सूचना प्रसारण) ने बयान दिया था कि चीन को सार्क का सदस्य बनाया जाना जरूरी है। क्या हो सकता है इसके पीछे नेपाल का मकसद? क्या इसके लिए पाकिस्तान परदे के पीछे से नेपाली नेताओं को उकसा रहा है? इन प्रश्नों की पड़ताल ठीक से की जानी चाहिए। संभव है नेपाली नेता चीन को प्रसन्न करने के लिए इस तरह का प्रस्ताव दे रहे हों कि देखिए राजा की गद््दी जाने के बाद भी सार्क में चीन को शामिल किए जाने के एजेंडे से हम पीछे नहीं हटे हैं।

सार्क शिखर सम्मेलन काठमांडो के जिस राष्ट्रीय सभागृह में संपन्न हो रहा है, उसे तैंतालीस साल पहले चीन ने बनवाया था। ऐसा पहली बार हुआ कि नेपाल में सार्क सम्मेलन के दौरान मोदीजी की सुरक्षा का घेरा चीन ने तैयार किया था। क्या शिखर बैठक की सुरक्षा के लिए सार्क के आठ देश सक्षम नहीं थे? सार्क सम्मेलन की चौकसी के लिए चीन ने दस करोड़ युआन की सुरक्षा सामग्री दी थी, जिनमें स्कैनर, सीसीटीवी कैमरे, मैटल डिटेक्टर, दस लग्जरी बुलेटप्रूफ गाड़ियां चीन से भेजी गई थीं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने सदाबहार दोस्त चीन के बुलेट प्रूफ कार पर सवार होने में कोई परेशानी नहीं हुई। इस साल जून में नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला चीन गए थे, तभी चीन ने दक्षेस सम्मेलन की सुरक्षा के वास्ते इन उपकरणों और वाहनों को भेजना तय कर लिया था।

चीन को दक्षेस शिखर सम्मेलन की सुरक्षा की इतनी चिंता क्यों रही है? क्या चीन इस तरह का सुरक्षा-कवर देकर सार्क नेताओं की निगरानी करना चाहता है? या फिर सार्क में पैसे का टोटा पड़ गया है? मोदीजी को चाहिए था कि नेपाल को हेलिकॉप्टर भेंट करने के बदले इस बार दक्षेस की सुरक्षा के लिए जो कुछ भी संसाधन और आर्थिक सहयोग की जरूरत पड़ती, उसे भारत मुहैया कराता। दक्षेस में भारत अब तक इसलिए दबंग है, कि चीन नहीं है। भारत के समर्थन के कारण ही अफगानिस्तान दक्षेस का आठवां सदस्य बन पाया। चीन बार-बार सदस्यता से वंचित रह जाता है, तो उसका कारण भारत है।
सार्क में भारत का कद छोटा करने की कवायद में नेपाल ही नहीं, पाकिस्तान भी शिद््दत से सक्रिय है। इसके बावजूद, भारत ने नेपाल में सहयोग के आयाम को आगे बढ़ाया है। काठमांडो के बीर अस्पताल में डेढ़ अरब रुपए का नेशनल ट्रॉमा सेंटर खोलना, पांच सौ और हजार रुपए के भारतीय नोट नेपाल में चलने देने से रोक हटाना, दिल्ली-काठमांडो बस सेवा, अरुण तेस्रो जलविद्युत परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए नौ समझौतों पर हस्ताक्षर इसके सबूत हैं। इसके बावजूद नेपाल, चीन की चापलूसी से मुक्ति नहीं पाने वाला। 2015 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग नेपाल जा रहे हैं। अगले साल नेपाल-चीन संबंधों की साठवीं वर्षगांठ है। डर यह है कि मोदीजी के नेपाल के वास्ते जो कुछ किए जा रहे हैं, चीन उसे धो-पोंछ कर बराबर न कर दे।

मोदीजी जनकपुर, लुंबिनी और मुक्तिनाथ अगली बार जाएंगे। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने नेपाल की जनता को इसका भरोसा दिलाया है। मोदी की जनकपुर यात्रा स्थगित किए जाने को भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसे पेश किया गया मानो पूरा मधेस उनके जनकपुर नहीं आने से आंदोलित है, मर्माहत है।

मगर इसकी वास्तविक वजह स्थानीय राजनीति थी। नेपाली कांग्रेस, जनकपुर के जानकी मंदिर में मोदी की सभा चाहती थी, बाकीबीस पार्टियां बारहबीघा नामक मैदान में समारोह करना चाहती थीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण मोदी की जनकपुर यात्रा रद््द की गई। इसके पीछे सुरक्षा का भी कारण रहा है।

नेपाली समाचारपत्र ‘अन्नपूर्णा पोस्ट’ ने उन्नीस नवंबर को सुषमा स्वराज और शेर बहादुर देउबा की दिल्ली में मुलाकात के हवाले से लिखा था कि भारत को इस समय दो चीजों से मतलब है- एक, सार्क सम्मेलन के समय नेपाली नेता आपस में लड़े-भिड़ें नहीं। दूसरा, प्रधानमंत्री मोदी के लिए चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था हो। इससे पहले भारतीय खुफिया एजेंसियों ने नेपाल को आगाह किया था कि सार्क सम्मेलन के दौरान इंडियन मुजाहिदीन, अलकायदा किसी बड़े ‘टारगेट’ को उड़ा देने की योजना बना रहे हैं। यह संभव था कि आतंकवादी 26/11 की छठी बरसी पर काठमांडो में कोई कांड करते। पर पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मौजूदगी के कारण शायद, ऐसे किसी कारनामे को अंजाम देने के पक्ष में आतंकवादी न रहे हों। काठमांडो दिनोंदिन अंतरराष्ट्रीय जासूसी और आतंकवादियों के समन्वय का एक अड््डा बनता जा रहा है। इसे तोड़ने के लिए क्या हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोई योजना बना पाएंगे?

पिछले तीस वर्षों में सार्क के सत्रह शिखर सम्मेलन हुए। उनमें से दो-चार को छोड़ कर सारे शिखर सम्मेलनों में भारत-पाक के मुद््दे हावी रहे थे, और मीडिया का फोकस भी इन्हीं दो देशों के नेताओं पर रहता था। भारत-पाक के शिखर नेता कभी इस पर गंभीरता से नहीं सोचते कि द्विपक्षीय संबंधों को लेकर जिस तरह से वे मीडिया का ध्यान खींचते रहे, उससे सार्क के बहुपक्षीय उद््देश्य स्वाहा होते गए। उदाहरण के लिए 10-11 नवंबर 2011 को मालदीव के आडू सिटी में हुए सत्रहवें शिखर सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर सार्क बीज बैंक बनाने, प्राकृतिक आपदा पर त्वरित सहयोग के लिए सार्क समूह का गठन करने पर सहमति जताई गई थी। लेकिन हाल में भारत-पाक के दोनों तरफ वाले कश्मीर में बाढ़ से जो तबाही हुई, उसमें सार्क आपदा प्रबंधन की सक्रियता का सच सामने आ जाता है।

मोदी ने उपग्रह के जरिए सार्क देशों को मौसम विज्ञान, शिक्षा से लेकर, सौर ऊर्जा तक में सहयोग करने, सड़क और रेल से दक्षिण एशिया को जोड़ने, उद्योग और बुनियादी ढांचे के लिए पूरे दक्षिण एशिया में ‘क्रॉस बॉर्डर इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर’ के जो प्रस्ताव दिए, उससे भारत की नेतृत्व-क्षमता प्रदर्शित होती है। लेकिन क्या पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल और बांग्लादेश के सहयोग के बगैर यह संभव है? ये सभी चीन के प्रभामंडल में आ चुके देश हैं। इस व्यूह को तोड़ने के लिए छप्पन इंच का सीना नहीं, रणनीतिक समझदारी की आवश्यकता है!

 

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