कुमार प्रशांत
जनसत्ता 15 नवंबर, 2014: यह देश का सौभाग्य था कि उसे आजादी की जंग में और फिर प्राप्त आजादी को जन-जन के संदर्भ में अर्थवान बनाने की जंग में भी जवाहरलाल नेहरू का नेतृत्व मिला। वे भारत-राष्ट्र और भारतीय मन को झकझोर-झकझोर कर नया बनाने की अनवरत जद्दोजहद में लगे ऐसे नायक थे जिसने अंत तक हथियार नहीं डाले! वे रास्ते भटकते रहे, बार-बार विफल भी होते रहे, राजनीतिक चालें भी चलते रहे लेकिन देश उनकी प्राथमिकता में हमेशा प्रथम रहा। आंद्रे मार्लो ने पूछा था उनसे कि उनकी जिंदगी में सबसे बड़ी चुनौती क्या रही, तो वे बोले थे: संकीर्ण धार्मिक दीवारों में बंद धर्मभीरुसमाज को एक सर्वधर्म-समावेशी समाज में बदलने की चुनौती!
जवाहरलाल संत, साधक, विचारक, क्रांतिकारी या दुर्धर्ष प्रशासक नहीं थे लेकिन इतिहास ने उन्हें इन सारी भूमिकाओं को निभाने पर मजबूर किया; और वे उस दौर के दूसरे नायकों की अपेक्षा इन सारी भूमिकाओं के निर्वाह में बहादुरी से लगे ही नहीं रहे बल्कि एक प्रतिमान भी बना गए। इतिहास की गहरी समझ रखने वाले नेहरू उत्साह और ऊर्जा से भरपूर मोहक व्यक्तित्व के धनी थे। कविगुरुरवींद्रनाथ ठाकुर ने उन्हें वैसे ही ‘ऋतुराज’ या गांधी ने ‘हिंद का जवाहर’ नहीं कहा था! वे सच में ऐसे ही थे। आज जब देश उनकी 125वीं जयंती मना रहा है, हमें उस जवाहरलाल से परिचित होना चाहिए। प्रधानमंत्री के रूप में, आज सड़सठ सालों के बाद भी वही रोल मॉडल हमारे राजनेताओं के सामने है जिस पर खरा उतरने की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी ने भी की और आज नरेंद्र मोदी भी उसकी ही नकली नकल करते दिखाई देते हैं।
भारतीय राजनीति में जवाहरलाल प्रवेश ही तब करते हैं जब गांधी प्रखर सूर्य की तरह दैदीप्यमान थे। आसान नहीं था उस अग्निपुंज के सम्मुख खड़ा होना! लेकिन जवाहरलाल खड़े ही नहीं हुए बल्कि अपना अलग आभामंडल भी बना लिया उन्होंने। वे गांधी के प्रति उस हद तक समर्पित थे जिस हद तक दूसरा कोई नहीं था, लेकिन गांधी-विचार से अस्वीकृति में उनका हाथ हमेशा उठा रहा। आज हम समझते भी हैं और कहते भी हैं कि इस अस्वीकृति में नादानी बहुत थी, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता है कि उसमें बेईमानी थी। वे साहस के साथ गांधी की हर उस बात से असहमत थे जिसे उनका मन स्वीकार नहीं करता था लेकिन गांधी के नेतृत्व को उन्होंने कभी चुनौती नहीं दी।
आजाद भारत को गांधी से अलग और उलटी दिशा में वे ले गए, क्योंकि वे पूरी ईमानदारी के साथ इसी में देश का भला देखते थे। देश आज तक इसकी कीमत चुका रहा है। ऐसा करने में उनका साथ उन तमाम बुद्धिजीवियों, राजनेताओं, कला-संस्कृति के लोगोें, कमअक्ल वामपंथियों और व्यापारिक घरानों ने दिया था जो तब गांधी का सब कुछ दकियानूस और आधुनिकता-विरोधी पाते थे और जवाहरलाल की वाहवाही करते थे। इसलिए हम नहीं कह सकते कि गांधी से देश को दूर ले जाने में वे अकेले जिम्मेवार थे। हां, यह बोझ तो उन्हें ढोना ही पड़ेगा कि गांधी को समझने और समझाने की जितनी कोशिश उन्हें करनी चाहिए थी, वह उन्होंने नहीं की और गांधी की उपेक्षा का माहौल बनाया और बनने दिया।
जैसे परिवार से, जैसे परिवेश से वे थे और इंग्लैंड के जैसे जीवन में पले-बढ़े थे, उसमें स्वाभाविक तो यह था कि वे छोटे मोतीलाल नेहरू बनते- आभिजात्य में डूबे, अत्यंत आत्मकेंद्रित सत्ताधीश! अगर ऐसा होता तो आजाद हिंदुस्तान जल्दी ही पाकिस्तान भी बन सकता था! लेकिन अपने तमाम तेवरों और मिजाजबाजी के बाद भी वे संसदीय लोकतंत्र के प्रति जैसी प्रतिबद्धता निभा गए, उसकी दूसरी मिसाल नहीं है।
महात्मा गांधी की हत्या और सरदार पटेल की मृत्यु के बाद तो भारतीय राजनेताओं में कोई इस कद का नहीं था जो उनकी बराबरी में खड़ा हो पाता। लेकिन जवाहरलाल ने खुद पर खुद ही लगाम कसी और अपने देश में संसदीय लोकतंत्र की जड़ जमाने की दिशा में वह सब किया जो उनसे अपेक्षित था।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वे गांधी को लेकर उस हद तक गए जिस हद तक उनकी प्रतिबद्धता थी। पंचशील और तटस्थ राष्ट्रों की पूरी संकल्पना, राष्ट्रकुल और संयुक्त राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता आदि का तत्त्व उन्हें गांधी से ही मिला था। भारतीय लोकतंत्र की नींव ग्रामीण भारत में होगी और ग्रामोद्योगों का विकास ही भारतीय विकास की कसौटी होगा, ऐसा उन्होंने न कभी माना था न समझा था। अपनी यह मान्यता उन्होंने कभी छिपाई भी नहीं। गांधी ने उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित तो किया लेकिन साथ ही शुरू कर दी उनकी गहरी परीक्षा! इतनी कड़ी परीक्षा कि जब व्यक्तिगत सत्याग्रह का कार्यक्रम दिया तो पहला सत्याग्रही उन्हें नहीं, विनोबा भावे को बनाया, जबकि जवाहरलाल उसकी जाहिर इच्छा रखते थे। यह खाई आगे और भी चौड़ी हुई।
इस विषय को जवाहरलाल कुरेदना नहीं चाहते थे लेकिन गांधी ने लिख भेजा कि भारत के भावी के बारे में मेरे और मेरे राजनीतिक उत्तराधिकारी के बीच जो भेद है, वह दुनिया को जान लेना चाहिए; और इसके लिए जरूरी है कि तुम समय निकाल कर मेरे साथ बात कर लो। भावी भारत की तस्वीर और उसकी रणनीति के संदर्भ में वे तब अपनी किताब ‘हिंद-स्वराज’ की याद दिलाते हैं। बहुत नाजुक मौका था, आजादी आया ही चाहती थी और देश का नेतृत्व पाने के लिए गांधी का समर्थन कितना जरूरी है यह जवाहरलाल से बेहतर कौन जानता था! लेकिन जवाहरलाल ने पूरी ईमानदारी से जवाब दिया कि आपकी ऐसी एक पुस्तिका है, यह याद तो आता है लेकिन न मैंने और न कांग्रेस ने कभी उसे गंभीरता से लिया है। इसलिए हम उन पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि उन्होंने गांधी को छोड़ दिया!
जवाहरलाल ने गांधी को अस्वीकार किया। जीवन के एकदम आखिरी दिनों में उन्हें इसकी अफसोस भरी प्रतीति भी हुई और लोकसभा में ही उन्होंने कबूल किया कि गांधी का रास्ता छोड़ कर हमने गलती की शायद! लेकिन तब तक गलतियां हिमालय जैसी हो चुकी थीं और नए पर्वतारोहण का उनका सामर्थ्य राई भर ही बचा था। विनोबा ने तब यह मार्मिक टिप्पणी की थी कि इन लोगों को अगर अब यह अहसास हो रहा है तो हम मान लेंगे कि अब तक जितना भी खर्च हुआ है हमारे देश का, वह इन लोगों की शिक्षा पर हुआ!
आजाद भारत का नेतृत्व संभालते ही जवाहरलाल ने दो लक्ष्य अपने सामने रखे थे- भारतीय लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाना और भारतीय अर्थतंत्र को स्वावलंबी बनाना। गांधी उन्हें कबूल नहीं थे और उनसे अलग समाज का कोई नया ढांचा बना सकने की बौद्धिक क्षमता उनमें थी नहीं। इसलिए उन्होंने दूसरा आसान रास्ता खोजा! उनके सामने अमेरिकी और रूसी, दो मॉडल थे और उन दोनों के अच्छे तत्त्वों को वे अपने भारत के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे। वे यह बुनियादी बात समझ नहीं सके कि कहीं की र्इंट कहीं का रोड़ा जोड़ कर सड़कें-इमारतें तो शायद बन भी जाएं, मुल्क नहीं बनते हैं!
इसलिए नेहरू के नेतृत्व में भारतीय समाज के विकास की कहानी बहुत आधी-अधूरी और जयप्रकाश नारायण के शब्दों में बेहद नकली बनी। लेकिन हमें यह समझना होगा कि हमारे साथ ही आजाद हुआ चीन या फिर हमारे सारे पड़ोसी मुल्क लोकतंत्र को संभालते हुए, वहां नहीं पहुंच सके जहां तक जवाहरलाल ने भारत को पहुंचाया।
मिश्रित अर्थतंत्र की उनकी कोशिश में से आर्थिक समता और सामाजिक बराबरी पैदा होने वाली तो थी नहीं। लेकिन स्वावलंबन का जितना भी आधार आज हमारे पास है वह नेहरू की ही देन है। विश्व-अर्थतंत्र के दवाब में मोदी आज भले ही ‘मेक इन इंडिया’ का नारा उछाल रहे हों लेकिन यह नारा नेहरू के भारत को लूटने से ज्यादा कुछ भी बना या कमा नहीं सकेगा, जबकि नेहरू ने ‘मेड इन इंडिया’ की जिद पकड़ कर रखी तो हम आलपिन से लेकर चांद तक जाने की क्षमता बना सके।
इतिहास की अपनी गहरी समझ के चलते नेहरू यह पहचान सके थे कि राजनीतिक आजादी को मानसिक आजादी का सहारा नहीं मिलता है तो वह लड़खड़ा जाती है।
इसलिए राजनीति के तमाम पचड़ों के बीच वे स्वतंत्र भारत में कला, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान, खेलकूद, पत्रकारिता, सुचिंतित योजनाकारी आदि के बीज बोते जाते हैं। वे तमाम तरह की दकियानूसी बातों, प्रथाओं, मान्यताओं पर हमले करते हैं और सार्वजनिक जीवन में सहृदयता और उदारता का माहौल बनाते हैं। उनकी पहल और सोच में से पैदा हुए ये संस्थान ही हैं जिनमें हम आज अपने देश को बनते-पनपते और खड़ा होते पाते हैं। यह करुण सच है कि अपने जीवनकाल में ही जवाहरलाल इन सबका पतन होता भी देख रहे थे और कुछ कर नहीं पा रहे थे। अगर यह उनकी निजी विफलता थी तो देश के रूप में हमारी सामूहिक विफलता भी। परविफलता से प्रयास की महत्ता कम नहीं होती है।
चीन-भारत संबंधों को जहां पहुंचा कर स्थिर करने की कोशिश में नेहरू लगे थे, अगर उसमें उन्हें सफलता मिल जाती तो विश्व के सत्ता समीकरण का रूप और रंग, दोनों बदल जाता। फिर हम देखते कि तिब्बत की स्वतंत्रता भी उसी में से निकलती और चीनी साम्यवाद की कोख से पैदा हुआ साम्राज्यवाद भी वहीं दम तोड़ जाता।
पंचशील की संधि और तटस्थ राष्ट्रों का मजबूत भाईचारा एशिया को केंद्र में ला खड़ा करता और वह सारा कुछ भारत-केंद्रित होता। इस संभावना की भव्यता आज भी मोहित करती है। कश्मीर का नासूर सिर्फ इसलिए नहीं बना कि जवाहरलाल उसे संयुक्त राष्ट्र में ले गए जिससे साम्राज्यवादी शक्तियों को उसमें खुल कर खेलने का मौका मिला। वह बिना शक उनकी कूटनीतिक भूल थी लेकिन उसके पीछे कहीं यह भाव भी था कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में मध्यस्थता के लिए ऐसी संस्था की वकालत करने वाले अगर उसे अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का मौका ही नहीं देंगे तो वह मजबूती से प्रतिष्ठित कैसे होगी? और हम यह भी न भूलें कि कश्मीर के मामले को बिगाड़ने में हमारी विपक्षी राजनीति की भूमिका भी कम विषैली नहीं रही है।
हमारी आजादी की जंग के नायकों में वे ही सबसे ज्यादा जिए। इसलिए उन्हें ही सबसे ज्यादा मौका मिला कि वे आजादी की सूरत गढ़ सकें। उन्होंने वह जिम्मेवारी स्वीकार ही नहीं की बल्कि अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगा कर उसे साकार करने की कोशिश भी की। इसलिए कहने को हम कुछ भी कहें लेकिन जवाहरलाल ही आधुनिक भारत के शिल्पी थे। अब यह अलग बात है कि उनकी आधुनिकता की समझ उतनी ही गड़बड़ थी जितनी विकास की हमारी आज की समझ है।
आज जब हम उनको याद कर रहे हैं तब क्या यह पहचान पा रहे हैं कि भारत को उसकी अपरिमित संभावनाओं तक पहुंचाना किसी एक व्यक्ति के लिए संभव ही नहीं है- जवाहरलाल जैसे आदमकद व्यक्ति के लिए भी नहीं? सामूहिक संकल्प और सामूहिक प्रयास में ही भारत की सिद्धि छिपी है। यह पहचान कर, गहरी प्रतिबद्धता के साथ हम जब भी सक्रिय होंगे हमें जवाहरलाल का मतलब भी और उनकी कीमत भी समझ में आएगी।
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