पिछले कुछ वर्षों से डेंगू ने कई राज्यों में पैर पसार लिए हैं, पर दिल्ली में यह बीमारी कहर बरपाती रही है। डेंगू के मच्छर बरसात के साथ अपना असर दिखाना शुरू कर देते हैं।

मच्छरों की अब ऐसी प्रजातियां पैदा हो गई हैं जिन पर सामान्य कीटनाशकों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। उनमें प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो गई है, इसलिए बाजार में बिकने वाली मच्छर-मार टिकिया या रसायनों का उन पर असर नहीं हो रहा है। मच्छरों के काटने से फैलने वाली बीमारियों में डेंगू और मलेरिया के अलावा मस्तिष्क ज्वर, चिकनगुनिया और फाइलेरिया प्रमुख हैं।

पिछले कुछ दशकों में औषधियों के खिलाफ भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से इलाज मुश्किल होता जा रहा है। मच्छरों के उन्मूलन के खिलाफ जो अभियान चलाया जाना चाहिए था वह भी ठप है। इसलिए इन रोगों से मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। डेंगू और मलेरिया से संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि इस तरह के आंकड़े इकट्ठा करना आसान नहीं है। लेकिन अनुमान लगाया गया है कि भारत में हर साल लाखों लोग मलेरिया से बीमार होते हैं।

खासतौर से नवजात शिशु और बच्चे इसके शिकार हो जाते हैं और पता भी नहीं चल पाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मस्तिष्क ज्वर (इन्सेफलाइटिस) से हर साल सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है। सरकार खामोश रहती है।

कुछ बीमारियां पर्यावरण के बिगाड़ या साफ-सफाई की कमी और सार्वजनिक स्तर पर बरती जाने वाली लापरवाही आदि की देन होती हैं। इनसे निपटने के लिए सरकारी प्रयास जरूरी हैं, पर केवल वही काफी नहीं हैं। ऐसी बामारियों की रोकथाम के लिए सरकारी अभियान के साथ-साथ जन-सहभागिता की भी उतनी ही आवश्यकता है।

डेंगू मच्छरों के सहारे पनपा विषाणु संक्रमण, उष्ण कटिबंधीय और उप-उष्ण कटिबंधीय देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी एक प्रमुख चिंता बन गया है। दुनिया की आबादी का चालीस फीसद यानी ढाई अरब लोग डेंगू के खतरे के दायरे में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में हर साल पांच से दस करोड़ लोग इसके संक्रमण के शिकार हो रहे हैं। वर्ष 1970 में दस से कम देश इसकी चपेट में थे, जिनकी संख्या बढ़ कर अब सौ के करीब हो गई है। इस संक्रमण का भीषणतम रूप डेंगू हेमोरेजिक बुखार है जिसकी मृत्यु दर बहुत ऊंची है और करीब पांच लाख लोग इससे पीड़ित हैं।

पिछले साल नवंबर के शुरू तक प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार भारत में डेंगू के सर्वाधिक मामले तमिलनाडु में पाए गए थे, करीब साढ़े आठ हजार। देश में 5,700 मामलों के साथ पश्चिम बंगाल का स्थान दूसरा रहा। वर्ष 2012 में तमिलनाडु में डेंगू के कारण हुई मौतों का आंकड़ा अन्य सभी राज्यों से अधिक रहा, उस साल वहां डेंगू से चौवन मौतें दर्ज की गई थीं। इसके महामारी के रूप में फैलने के लिए भारत में सबसे ज्यादा अनुकूल दशाएं, जैसे जनसंख्या वृद्धि, जनसंख्या घनत्व, अनियोजित शहरीकरण और वृद्धिगत रोगवाहक कीट घनत्व मौजूद हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण भी संक्रामक रोगाणुओं से फैलने वाली बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। तापमान बढ़ने से प्राणियों के देशांतर के साथ-साथ जीवाणु और विषाणु भी अन्य स्थानों पर पहुंच रहे हैं।

भारत में 1953 तक लगभग हर साल साढ़े सात करोड़ लोग मलेरिया के शिकार होते थे, जिनमें लगभग आठ लाख लोग मौत की भेंट चढ़ जाते थे। राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाने के बाद इसमें कमी आई। वर्ष 1977 में सरकार ने मलेरिया उन्मूलन नीति में सुधार करके इस कार्यक्रम को लागू किया। लेकिन 1994 में जब मलेरिया महामारी के रूप में फैला तो इसके कार्यक्रम पर ही संदेह व्यक्त किया जाने लगा।

इसके बाद 1996 में संशोधित मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम बनाया गया। देश के आठ राज्यों के कुल सौ जिलों में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से परिवर्तित मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान और ओड़िशा। लेकिन ओड़िशा के बाद सबसे अधिक प्रभावित राज्य बिहार इसमें शामिल नहीं है। उत्तर प्रदेश में भी मलेरिया के शिकार लोगों की संख्या बढ़ी है। लेकिन राज्य सरकार मलेरिया और मच्छरों के काटने से फैलने वाली बीमारियों के लिए चिंतित नहीं दिखती।

सरकार चेतती ही तब है जब रोग महामारी बन जाता है। कुछ दिन तो इस पर भी बहस चलती है कि इसे महामारी माना जाए या नहीं। राज्यों ने मलेरिया उन्मूलन और मच्छर नियंत्रण के लिए भी विभाग खोल रखा है लेकिन वह करता क्या है, कोई नहीं जानता। दिल्ली में हर साल डेंगू अपने पैर पसारता है। हो-हल्ला मचता है। यह क्रम बरसों से चल रहा है। पर राजधानी दिल्ली में भी कुछ ही अस्पतालों में डेंगू के निदान और इलाज की सुविधा है।

एक अहम समस्या यह है कि इन जानलेवा बीमारियों से निपटने के लिए पश्चिम के विकसित देश तैयार नहीं हैं। ये बीमारियां वहां नहीं होती हैं इसलिए इन पर नियंत्रण अथवा किसी औषधि के अनुसंधान और विकास का कोई विशेष कार्य वहां नहीं हुआ। लेकिन अमेरिका अब अपने सैनिकों की रक्षा के लिए मलेरिया पर अनुसंधान कर रहा है। उसके नौसेना अनुसंधान संस्थान ने नई डीएनए टीका प्रौद्योगिकी विकसित की है। 1998 में सफल परीक्षणों के बाद हाफ मैन ने कहा ‘हमने मलेरिया की बीमारी को उदाहरण के रूप में रख कर नई प्रौद्योगिकी का परीक्षण किया क्योंकि यह बीमारी हमारे जवानों के लिए सबसे खतरनाक संक्रामक रोग है। मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल की जा रही एक दवा है क्लोरोक्वीन का विकास भारत और वाल्टर रीड सेवा शोध संस्थान के संयुक्त प्रयासों से ही हुआ है। पर दशकों के प्रयास के बावजूद वैज्ञानिक ऐसा टीका ईजाद नहीं कर पाए हैं जो कारगर हो।
पहले कुछ इलाकों में मलेरिया से बचाव के लिए लोगों को कुनैन की गोलियां खिला कर रोकथाम की गई, पर इसमें भी पूरी सफलता नहीं मिली। इस दवा का असर थोड़े समय ही रहता था और एक बार बीमारी फैलने के बाद उसको महामारी का रूप धारण करने से रोकना संभव नहीं हो पाया। इसके बाद कई और औषधियां तैयार की गर्इं। इनमें क्लोरोक्विन, प्रोगवानिल, प्राइमाक्विन और पाइरोमेथामिन प्रमुख हैं।

1938 में कीड़ों-मकोड़ों को मारने के लिए डीडीटी की खोज की गई। इसकी खोज से मलेरिया की रोकथाम का एक नया उपाय मिल गया। इटली, साइप्रस, ग्रीस, गुयाना और वेनेजुएला जैसे देशों में डीडीटी के छिड़काव के अभियान चलाए गए, जिसके बहुत ही उत्साहजनक परिणाम आए।

वर्ष 1950 में यह लगने लगा कि अब डीडीटी से मलेरिया का उन्मूलन हो जाएगा। वर्ष 1955 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया से मलेरिया उन्मूलन के लिए डीडीटी के छिड़काव का अभियान चलाया। वर्ष 1960 के मध्य तक यूरोप, रूस और पूर्व के कई देशों से मलेरिया का उन्मूलन किया जा चुका था। उस समय यह लगने लगा था कि मलेरिया से प्रभावित क्षेत्रों में डीडीटी से अस्सी प्रतिशत तक सफलता हासिल हो जाएगी। लेकिन बाद में पता चला कि मलेरिया उन्मूलन का अभियान केवल शीतोष्ण देशों में सफल हुआ है।

अफ्रीका और भारत जैसे उष्ण कटिबंधीय देशों में बड़े पैमाने पर यह अभियान चलाना संभव नहीं हो पाया, क्योंकि इसके लिए कुशल प्रशासन, आवश्यक धन और साधन नहीं जुटाया जा सका। लेकिन इसी दौरान यह भी पता चला कि मच्छरों पर अब डीडीटी का असर नहीं हो रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह बताया गया कि एनाफिलिज मच्छर की अनेक जातियां डीडीटी के अलावा दूसरे कीटनाशकों की प्रतिरोधी हो गई हैं। उधर मलेरिया परजीवियों पर प्रोग्वानिल और पाइरोमेथागिन जैसी प्रचलित औषधियों का असर नहीं हो रहा था।

इसके अलावा, मलेरिया परजीवियों की कुछ नई जातियां भी पैदा हो गई थीं जिन पर क्लोरोक्विन का भी असर नहीं हुआ, जबकि क्लोरोक्विन अब तक की खोजी गई सबसे प्रभावशाली औषधि मानी जाती थी। इसका एक बड़ा कारण यह है कि मलेरिया के विरुद्ध जिस उपाय के जरिए अभियान चला कर लाखों लोगों की जान बचाई गई थी, उसका उपयोग सीमित कर दिया गया है। मलेरिया उन्मूलन का हथियार डीडीटी अपने दुष्प्रभाव के कारण प्रकृति और मनुष्यों के लिए भी खतरा है। वह मलेरिया के मच्छरों के अलावा प्रकृति के मित्र कीड़ों और पक्षियों के अंडों को भी प्रभावित कर देता है। इसलिए 1972 में इसे अमेरिका में प्रतिबंधित कर दिया गया था।

कुल मिला कर बदलते पर्यावरण और शहरीकरण के साथ उद्योगीकरण के कारण डेंगू और मलेरिया नए रूप में फैल रहे हैं। इन पर काबू पाने का तकाजा विशेषज्ञों के लिए नई-नई चुनौतियां पैदा कर रहा है। हालांकि इस दिशा में प्रयास जारी हैं। जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (अमेरिका) के वैज्ञानिकों द्वारा ऐसे जीन रूपांतरित (जीएम) मच्छरों का विकास किया गया है, जो मलेरिया के प्रतिरोधी हैं। भविष्य में ऐसे जीन-प्रतिरोधी मच्छरों की फौज तैयार कर इन्हें मलेरिया नियंत्रण की भावी संभावनाओं के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि यह अध्ययन अभी केवल प्रयोगशाला तक सीमित है और वैज्ञानिकों का मानना है कि यह अभी प्रारंभिक अवस्था में ही है। इन जीनांतरित मच्छरों को पर्यावरण में छोड़ने में करीब दस वर्ष लग जाएंगे।

निरंकार सिंह

 

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