यह छिपा तथ्य नहीं है कि आज के दौर में खेती से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है। वजह साफ है। जो लोग खेती करके उससे लाभ कमाना चाहते हैं, उनके लिए अब यह लाभकारी सौदा नहीं रह गया। कठोर शारीरिक श्रम, महंगी खाद, बीज, बिजली, पानी और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की तुलना में खाद्य उत्पाद की कम कीमत ने इसे अलाभकारी बना दिया है। इसलिए अगर मौका मिला तो लोग खेती से छुटकारा पाकर कुछ भी दूसरा कामकाज करने में भलाई देखते हैं। दिहाड़ी पर खट लेना, फेरी लगा कर माल बेच लेना, कुछ न हुआ तो किसी बिल्डर को जमीन बेच कर दो-चार फ्लैट बदले में प्राप्त कर लेना और उसके किराए से जीवनयापन करना।

कुछ लोग व्यावसायिक खेती करते हैं। लेकिन यह बड़े किसानों की बात है और वहां से भी आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं। फिर जमीन से आज बंधा कौन रहना चाहता है? बस जमीन का वाजिब दाम, बेहतर मुआवजा मिले, इसको लेकर मोलभाव होता रहता है। वह ठीक-ठाक मिला तो आज की तारीख में अधिकतर किसान जमीन बेच देने में ही लाभ देखते हैं। विश्व बैंक का आकलन है कि पूरे देश में स्वेच्छा से या अनिच्छा से इस वर्ष के अंत तक चालीस करोड़ भारतीय परिवार शहरों की तरफ पलायन करेंगे।

सवाल है कि ऐसे माहौल में जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था ढहने के कगार पर पहुंच रही है, सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने की जरूरत क्यों पड़ी? एक ऐसा अध्यादेश जो कानून बन जाए तो व्यक्ति के बुनियादी अधिकार का हनन होगा, पूंजीवादी व्यवस्था के मूलाधार- संपत्ति के अधिकार- पर चोट पहुंचेगी। हमारी सभ्यता में संपत्ति के अधिकार का कितना पवित्र स्थान है, उसे हम इस तथ्य से समझ सकते हैं कि दुनिया की दो तिहाई संपत्ति चंद मुट््िठयों में कैद है, लेकिन उन पर किसी तरह की कार्रवाई संभव नहीं। ऐसे समय में चंद पूर्ववर्ती कानूनों- मसलन पेसा कानून, समता जजमेंट आदि की धज्जियां उड़ाने वाले नए कानून की जरूरत क्यों आ पड़ी?

वह इसलिए कि आज के दौर में भी एक ऐसा समुदाय है, जो जमीन से जुड़ा है। वह है आदिवासी, जो सदियों से जमीन के लिए संघर्ष करता रहा है। जमीन से उसका रिश्ता अन्य समुदायों से भिन्न रहा है। गैर-आदिवासी इलाकों में जमीन के बारे में एक कहावत रही है- ‘सबै भूमि गोपाल की’, यानी सारी जमीन ईश्वर की है और चूंकि राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, इसलिए सारी जमीन का मालिक वही है। वह अपनी रियाया को जमीन खेती के लिए देता है और बदले में उससे जमीन की मालगुजारी वसूलता है।

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सरकार जमीन की मालगुजारी इसी सोच के तहत वसूलती है। लेकिन आदिवासी समाज में न तो ईश्वर है और न राजा। वह प्रकृति पूजक है और जमीन के बारे में उसकी समझ यह है कि जंगल-झाड़ साफ कर चूंकि जमीन को खेती योग्य उसने बनाया, इसलिए जमीन पर उसका नैसर्गिक अधिकार है। वह अधिक से अधिक अपने पूर्वजों के प्रति अपना कर्ज समझता है। उसने कभी जमीन की मालगुजारी नहीं दी। अंगरेज इस बात को समझ नहीं सके। जमींदारी प्रथा लागू करने की कोशिश की, जिसके खिलाफ पहाड़िया वीरों, सिद्धो कान्हू से लेकर बिरसा मुंडा तक लगातार आदिवासियों का अंगरेजों से संघर्ष हुआ। हजारों लोग मारे गए, लाखों ने पलायन किया।

अंगरेजों को भय यह हुआ कि अगर यह खेती करने वाली परिश्रमी जाति उजड़ गई तो फिर खेती करेगा कौन? इस तथ्य को समझ कर अंगरेज हुक्मरानों ने आदिवासीबहुल इलाकों के लिए विशेष भू-कानून बनाए। छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट, संथाल परगना टिनेंसी एक्ट। उन्होंने इस बात की गारंटी दी कि आदिवासियों की जमीन से कोई बहिरागत उन्हें बेदखल नहीं कर सके।

इस कानून को आजादी के बाद भी भारतीय संविधान में जस का तस, बिना किसी संशोधन के समाहित कर लिया गया। पांचवें और छठे अधिसूचित इलाकों को रेखांकित कर आदिवासियों के हितों के लिए कुछ और कानून बनाए गए। बावजूद इसके राष्ट्र के विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण किया ग२या। उनके गांव, घर उजाड़े गए। पूरे देश में करोड़ों आदिवासी अपने घर, गांव और जमीन से बेदखल किए गए।

यह एक त्रासद कथा है कि चूंकि खनिज संपदा आदिवासी बहुल इलाकों में ही है, इसलिए तथाकथित विकास के नेहरू मॉडल के लिए सबसे अधिक जमीन का अधिग्रहण आदिवासी बहुल ओड़िशा और झारखंड में हुआ। ओड़िशा में सर्वाधिक विस्थापन 1950 में हीराकुंड बांध, रेंगाली परियोजना और राउरकेला स्टील संयंत्र के लिए हुआ। साठ के दशक में हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड, तलचर थर्मल पावर स्टेशन आदि के लिए, सत्तर के दशक में ऊपरी कोलाबा, इंद्रावती बांध और सुवर्णरेखा परियोजना के लिए और अस्सी के दशक में तलचर सुपर पॉवर स्टेशन, आइबी थर्मल पावर और नेशनल एल्यूमीनियम कंपनी आदि के लिए।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार ओड़िशा में 1950 से 1993 के बीच कुल इक्यासी हजार एक सौ छिहत्तर परिवार विस्थापित हुए। झारखंड में तो 1930 से ही विस्थापन का दौर शुरू हो गया, टाटा स्टील कंपनी के जमाने से। उसके बाद दामोदर वैली कॉरपोरेशन और उससे जुड़े अनेक बांधों, बिजलीघरों के लिए। एचइसी, सिंदरी खाद कारखाना, बोकारो स्टील प्लांट के लिए। छत्तीसगढ़ में खेती योग्य जमीन बहुत कम है। अधिकतर इलाके जंगल से आच्छादित हैं, लेकिन चूंकि वहां भी खनिज संपदा की प्रचुरता है, इसलिए वहां औद्योगीकरण की प्रक्रिया चल रही है।

देश का तेईस फीसद लौह अयस्क भंडार वहीं है। इसके अलावा अठारह फीसद कोयला भंडार, डोलोमाइट, बॉक्साइट सहित तरह-तरह के कीमती पत्थरों का भंडार। वहां कारखाने कम लगे, खनिज संपदा को औने-पौने दामों में पचास के दशक से ही बेचा जा रहा है। नए राज्य के रूप में गठन के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने एक नई औद्योगिक नीति की घोषणा की है और दनादन समझौतों पर हस्ताक्षर कर रही है। 2006 के जनवरी से जुलाई के बीच सिर्फ छह महीनों में 51842.22 करोड़ के पूंजी निवेश का समझौता वहां हुआ। अदिवासी बहुल बस्तर और सरगुजा जिलों में टाटा, एस्सार और इफको के लिए जमीन का अधिग्रहण हुआ। अमेरिका की एक कंपनी टेक्सास वहां दस हजार मेगावाट क्षमता का बिजलीघर लगाने जा रही है। गरीब राज्य में फूड पार्क, एल्युमीनियम पार्क, जेम्स और जेवरात पार्क बनने जा रहे हैं। कुल मिला कर 2000 तक छह करोड़ लोग देश में विस्थापित हुए बताए जाते हैं और उनमें अधिकतर आदिवासी हैं।

जब वर्तमान कानूनों के रहते जमीन का अधिग्रहण, विस्थापन हो ही रहा है, फिर भूमि अधिग्रहण के लिए नए कानून-अध्यादेश की जरूरत क्यों पड़ गई मोदी सरकार को? इसकी पड़ताल जरूरी है। इसकी एक वजह तो यह है कि देश के अन्य हिस्सों में भले नागर सभ्यता के विकास की वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था टूट रही है और लोग शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं, लेकिन आदिवासी कहां जाएं? उनका तो अस्तित्व ही जल, जंगल और जमीन पर टिका है।

ओडिशा में पोस्को के खिलाफ पिछले आठ वर्षों से संघर्ष चल रहा है। नियमगिरि क्षेत्र में डोंगरिया कौंध आदिवासी बॉक्साइट के उत्खनन के खिलाफ ऐतिहासिक संघर्ष कर रहे हैं। कलिंगनगर में दर्जनों आदिवासियों ने टाटा के खिलाफ संघर्ष करते हुए कुर्बानी दी। झारखंड में अब तक चौहत्तर समझौते हुए हैं, जिनमें मित्तल, जिंदल, भूषण जैसे औद्योगिक घराने शामिल हैं। जिंदल को पचास लाख टन इस्पात कारखाने के लिए तीन हजार एकड़ जमीन चाहिए। मित्तल को गुमला और खूंटी में दस हजार हेक्टेयर जमीन चाहिए। इन सबके खिलाफ लगातार संघर्ष हो रहे हैं और सरकार जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकी है।

अब तक सरकार सार्वजनिक क्षेत्र और औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिए जमीन का अधिग्रहण करती थी। सामान्यतया जमीन जाने पर रोजगार का प्रावधान था। मुआवजा राशि संतोषप्रद नहीं रहने पर रिफरेंश कैश की भी व्यवस्था थी।

अब सरकार ऐसा किसी तरह का बंधन नहीं चाहती। निर्मम तरीके से, मनमानी कीमत पर जमीन का अधिग्रहण करना चाहती है। पहले यह व्यवस्था थी कि अगर प्रबंधन जमीन का इस्तेमाल एक निर्धारित अवधि में नहीं कर सका, तो जमीन मूल रैयती को वापस कर दी जाएगी। जमीन लीज पर सरकार लेती थी और प्रावधान यहां तक था कि उस जमीन पर स्थायी रिहायशी कॉलोनियां नहीं बनेंगी। मतलब यह कि नौकरी के लिए लोग आएंगे, नौकरी अवधि में क्वार्टरों में रहेंगे और सेवामुक्त होने के बाद वापस अपने गांव-शहर चले जाएंगे।

बावजूद इसके जन आंदोलन होते रहे और सरकार को राजीव गांधी के जमाने में संविधान में तिहत्तरवां संशोधन कर 1992 में पेसा कानून बनाना पड़ा, जिसके तहत सुनिश्चित किया गया कि आदिवासीबहुल इलाकों में ग्रामसभा की अनुमति के बगैर अब जमीन का अधिग्रहण सरकार नहीं कर सकेगी। बाद में समता जजमेंट आया, जिसने यह ऐतिहासिक फैसला दिया कि आदिवासी इलाकों की जमीन पर उत्खनन कार्य सिर्फ आदिवासी करेगा, व्यक्तिगत रूप से या कोआॅपरेटिव बना कर।

मगर मोदी इस तरह का कोई अवरोध मानने को तैयार नहीं। इसीलिए नया भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया गया। अब तथाकथित राष्ट्रीय विकास, संसाधनों के निर्माण, सुरक्षा, रक्षा और औद्योगिक कॉरिडोरों के निर्माण के लिए सरकार बिना सहमति के किसी की जमीन अधिग्रहीत कर सकती है। कानून तो सबके लिए है, लेकिन जिंदल, मित्तल और टाटा की परिसंपत्ति पर तो धावा नहीं ही पड़ने वाला है, निशाने पर है आदिवासी जमीन। वहां की खनिज संपदा, लोहा, कोयला, बॉक्साइट।

यहां उस दौर को याद करना प्रासांगिक होगा जब दक्षिण अफ्रीका ब्रिटेन का उपनिवेश था। केनिया में जब सोने की खानें मिलीं, तो उनके दोहन के लिए वे दौड़ आयोजित करते। गोरे जमा होते किसी खास जगह पर और उनसे कहा जाता कि आप दौड़ लगाएं केनिया की ओर और जितनी जमीन आप चाहें हासिल करें, उसका उत्खनन करें। और लोग लाव-लश्कर सहित दौड़ में शामिल होते। केनिया पहुंचते। स्थानीय निवासियों को मारपीट कर भगाते या उनसे ही उत्खनन करवाते और सोना ले जाते। इस दौर की चर्चा पंडित नेहरू ने अपने विश्व इतिहास की झलक में पूंजीवादी तरीके के लूट खसोट की चर्चा के क्रम में की है।

क्या इसी तरह की दौड़ मोदी आयोजित नहीं कर रहे हैं? वाईब्रेंट गुजरात या इसी तरह का तामझाम वाला समागम क्या केनिया दौर से भिन्न है? हां, इस दौर की मंजिल केनिया के सोने की खदानें नहीं, आदिवासीबहुल्२ा इलाकों की जल, जंगल, जमीन और खनिज संपदा है और मोदी ब्रिटिश हुक्मरान नहीं, एक लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री हैं।

 

विनोद कुमार

 

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