हाल ही में खाप पंचायतों के एक आनलाइन वेबिनार में सामाजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श किया गया। देश के बड़े हिस्से के सामाजिक परिवेश पर असर रखने वाली खाप पंचायतों ने इस इंटरनेट बैठकी में यह बात खुल कर कही कि कोई भी लड़का और लड़की अंतरजातीय विवाह करते हैं तो उन्हें कोई एतराज नहीं। सभी खापें अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों का समर्थन करेंगी। साथ ही खापों ने इस बात को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताया कि ‘आनर किलिंग’ यानी झूठी इज्जत के नाम पर हत्या का दाग उनके माथे से नहीं मिटा है। डिजिटल महाखाप महापंचायत में देश भर के प्रतिनिधियों ने कहा कि वे न तो इस तरह की हत्या का समर्थन करती हैं और न ऐसी हत्या कराती हैं। ऐसी हत्याएं विशुद्ध रूप से लड़की या लड़के के परिवार वालों का फैसला है, जिसका खापेंं समर्थन नहीं करेंगी।

यों इस तरह दिखावे के रुतबे की वजह से ऐसी हत्याएं दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में होती रहती हैं। लेकिन भारत जैसे एशियाई देशों में ऐसे मामले ज्यादा देखने को मिलते हैं। खासतौर पर हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और पंजाब समेत कई राज्यों में खाप पंचायतें खासा असर रखती हैं। जाहिर है, ऐसे कृत्यों को लेकर खाप पंचायतों का खुल कर बोलना उस सामजिक दबाव को कम करने वाला साबित होगा जो अभिभावकों को अपने ही बच्चों के समर्थन में आने से रोकता रहा है। चिंता की बात यह है कि सम्मान बचाने के नाम होने वाली ऐसी क्रूरतापूर्ण घटनाएंं हमारे यहां आए दिन सामने आती रही हैं।

अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों के साथ मारपीट करना, तेजाब फेंक देना, जान ले लेना, गांव-घर से निकाल देना जैसी बातें आम हैं। अफसोस कि ऐसे मामले इस बात को पुख्ता करते हैं कि हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढांचे में कई मोर्चों पर आज भी बदलाव के नाम सिर्फ धन-संपत्ति से रहन-सहन और जीवन-शैली में चकाचौंध आया है। विचार और मान्यताएं आमतौर पर जड़ता से त्रस्त हैं।

लेकिन खाप पंचायतों का नया चेहरा सामाजिक सोच की नई बुनियाद बन सकता है। अपनी पसंद से शादी से करने या किसी दूसरी जाति में विवाह कर लेने जैसे व्यक्तिगत फैसले को संवेदनशील ढंग से समझने और समाज में इसके प्रति स्वीकार्यता लाने का आधार बन सकता है। यह छिपा नहीं है कि हमारे यहां खाप जैसे संगठनों के दबाव के चलते कई परिवार अपने बच्चों के ऐसे फैसलों का चाहते हुए भी समर्थन नहीं कर पाते। यही नहीं, सामाजिक बहिष्कार और रिश्ते-नातों में अलग-थलग पड़ जाने के भय के कारण भी कई परिवार न केवल जीवन के सबसे सुखद पड़ाव पर अपने घर की नई पीढ़ी का साथ नहीं दे पाते, बल्कि झूठे सम्मान के नाम पर हत्या जैसा क्रूर कृत्य तक कर जाते हैं।

सम्मान के नाम हो रही बर्बरता पितृसत्तात्मक समाज और जातिवाद से जुड़ी सामंती सोच का भी परिणाम हैं। अफसोस की बात है कि सामाजिक रूढ़ियां और जातीय श्रेष्ठता का दंभ इस बर्बरता को और पोषित करता है। लेकिन दशकों से हमारे देश में बदलाव और सोच में जड़ता, दोनों साथ-साथ चलते रहे हैं। शिक्षा के आंकड़े बढ़े हैं, पर मानसिकता के स्तर पर बदलाव आना अब भी बाकी है। आधुनिकता के नाम पर समाज में बेवजह के आडंबरों ने जगह बना ली है, पर जमीनी स्तर पर कुछ नहीं बदला है।

सच यह है कि शिक्षा और तकनीक के प्रसार और आर्थिक स्थिति में सुधार के बावजूद सामाजिक मानसिकता में बदलाव नहीं आया है। सम्मान के नाम पर हत्या जैसी घटनाएं इसी विरोधाभासी परिवेश का नतीजा हैं। बीते कुछ बरसों में दकियानूसी सोच और जात-पात के भेद के चलते कितने ही प्रेमी जोड़ों को मार डाला गया या उन्हें प्रताड़ित कर खुद जीवन से हार मान लेने के लिए उकसाया गया। ऐसे कामों को अक्सर भले ही खाप पंचायतें निर्देशित करती हैं, लेकिन कई बार खुद प्रेमी जोड़ों का परिवार भी ऐसा ही सोचता है। देखने में आता है कि परिवार के ऐसे अमानवीय आक्रोश को समाज की चुप्पी और सामाजिक संगठनों के दबदबे का भी साथ मिलता है।

दूसरी ओर, सार्वजनिक स्तर पर ग्रामीण इलाकों में स्थानीय समुदाय और खाप पंचायतें भी नौजवान प्रेमी युगलों के प्रति बेहद नकारात्मक रवैया ही अपनाते रहे हैं। उनके कट्टरपंथी फैसले इस बात को साबित करते रहे हैं कि बच्चों की पसंद और चुनाव कतई स्वीकार नहीं किए जा सकते। नतीजतन, ऐसे परिवारों को सामाजिक बहिष्कार और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है, जिनके बच्चे खुली सोच और आपसी समझ के बल पर अपने वैवाहिक जीवन से जुड़े फैसले लेते हैं। ऐसे में इस दुर्व्यवहार पुरातनपंथी सोच का खुल कर विरोध किया जाना बदलाव की एक उम्मीद तो जगाता ही है।

झूठे सम्मान के नाम पर हत्या के बढ़ते मामलों के मसले पर दायर एक याचिका पर काफी पहले मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि ‘इज्जत के नाम पर हो रही हत्याओं में कुछ भी सम्मानजनक नहीं है, बल्कि ये बर्बर और शर्मनाक तरीके से की गई हत्या है। अब इन बर्बर, सामंती प्रथाओं को खत्म करने का समय है, जो हमारे देश पर कलंक हैं।’ सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि इस प्रकार की हत्याओं को ‘दुर्लभ में दुर्लभतम’ मामलों के रूप में देखते हुए इनके अपराधियों को मौत की सजा दी जाए, ताकि इन घटनाओं पर लगाम लगाई जा सके। लेकिन अफसोस कि झूठे सम्मान के नाम पर हत्या करने का कृत्य कानून और पुरातनपंथी सोच के बीच उलझा हुआ है। यही वजह है कि स्पष्ट अदालती दिशा-निर्देश होने के बावजूद देश में ऐसी हत्याएं होती रही हैं।

दूसरी ओर, दो साल पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में दो वयस्कों की शादी में खाप पंचायतों के किसी भी प्रकार के दखल को गैरकानूनी करार दिया था। तब अदालत ने कहा था अलग-अलग समुदायों से संबंध रखने वाले दो वयस्क अपनी मर्जी से शादी करते हैं, तो किसी रिश्तेदार या पंचायत को उन्हें डराने- धमकाने या उन पर किसी प्रकार की हिंसा करने का कोई अधिकार नहीं है।

सम्मान के नाम पर हत्या के अपराध से सुरक्षा अधिनियम, 2010 में किसी दंपती के विवाह को अस्वीकार करने के उद्देश्य से किसी भी समुदाय या गांव की सभा, जैसे कि खाप पंचायत के आयोजन करने तक पर प्रतिबंध लगाने की बात शामिल है। यों राजस्थान देश का ऐसा पहला राज्य है, जहां झूठे सम्मान के नाम पर हत्या को रोकने के लिए फांसी या उम्रकैद तक की सजा देने का सख्त कानून बनाया जा चुका है। हालांकि इसके बावजूद दूरदराज के गांवों से लेकर कस्बों और शहरों तक झूठे सम्मान के नाम पर हत्या किए जाने की घटनाएं होना जारी हैंं।

सवाल है कि अगर सम्मान और समाज के मसले पर सोच के इस टकराव की स्थिति आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी बनी हुई है तो क्या यह हमारे देश में सामाजिक प्रशिक्षण की नाकामी नहीं है? आखिर वे कौन-से कारण रहे हैं कि समाज और उसे संचालित करने वाली स्थानीय इकाइयां यह मान लेती हैं कि अगर कोई बालिग युवा भी अपनी मर्जी से प्रेम या विवाह का फैसला करते हैं तो यह समाज की सत्ता को बाधित करता है? यह सत्ता मूलत: किसकी है और इसके बने रहने से किसका हित सधता है?

इन जड़ताओं और असहज करने वाले प्रश्नों के बीच सामाजिक सोच में बदलाव और नई पीढ़ी के फैसले की स्वीकार्यता का भाव इन मामलों को रोकने में सबसे प्रभावी साबित हो सकता है। हालांकि खाप पंचायतों को आमतौर पर उनके तुगलकी फरमानों के लिए ही जाना जाता रहा है। ऐसे में यह एक बड़ा बदलाव है, जो खाप पंचायतों का अपने प्रति लोगों की सोच बदलने का प्रयास तो है ही, यह कोशिश कहीं न कहीं समग्र समाज की सोच बदलने में अहम् भूमिका निभाने वाली है।