यह बात किसी से छिपी नहीं है कि देश के बत्तीस फीसद हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता। बारहों महीने, तीसों दिन यहां ‘जेठ’ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की ग्यारह फीसद आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। वहीं जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृष्टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उसके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब हो जाता है।
इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्रोत ताल-तलैया को तो सड़क, बाजार, कालोनी के कंक्रीट के जंगल खा गए। दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए परेशान हो रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया जब अंधाधुंध नलकूप लगाए जाने लगे, लेकिन जब तक संभलते तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
समाज को एक बार फिर तालाब, कुंए, बावड़ी जैसे बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की परंपरा नदारद हो गई। यही नहीं, सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके।
तालाब कहीं कब्जे से, कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे हैं। कहीं तालाबों को जानबूझ कर गैरजरूरी मानते हुए समेटा जा रहा है, तो कही उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंट कर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों रुपए से भी अधिक है, के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र और ताकतवर प्राधिकरण की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है।
तालाब केवल इसलिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्रोत हैं, बल्कि तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि तालाबों से बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशन ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से निपटने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। लेकिन दुर्भाग्य कि कमीशन की रिपोर्ट पर किसी ने गौर नहीं फरमाया और लालफीताशाही का शिकार हो गई।
आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, इनकी दुर्दशा होनी शुरू हो गई। चाहे कालाहांडी हो, बुंदेलखंड हो या फिर तेलंगाना, देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक सैंकड़ों तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, बल्कि स्थानीय अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी का स्रोत यही तालाब ही थे। तालाबों का पानी कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होता था। लेकिन शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब पीने के पानी के लाले पड़ रहे हैं।
वैसे तो मुल्क के हर गांव-कस्बे के तालाब अपने समृद्ध अतीत और आधुनिकता की आंधी में बबार्दी की एक जैसी कहानी कहते हैं। जब पूरा देश पानी के लिए त्राहि-त्राहि करता है, तब उजाड़ पड़े तालाब एक उम्मीद की किरण की तरह होते हैं। इसलिए सवाल है कि तालाबों को बचाया कैसे जाए, जल के इस पांरपरिक स्रोत के संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए जाएं। हालांकि जल विशेषज्ञों की ओर से यह सुझाव अक्सर आता रहा है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ह्यभारतीय तालाब प्राधिकरणह्ण का गठन किया जाना चाहिए। जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिलीमीटर है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है।
एक आंकड़े के अनुसार, भारत में आजादी के समय लगभग चौबीस लाख तालाब थे। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार और मैसूर राज्य में उनतालीस हजार तालाब थे। लेकिन अब हमारी यह तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2001-02 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब चार लाख सत्तर हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब पंद्रह फीसद बेकार पड़े हैं, यानी आजादी के बाद देश में बीस लाख से ज्यादा तालाब खत्म हो गए।
बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार के लिए योजना बनाई थी। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हुआ। योजना को अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की थी। लेकिन आज तक इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली।
तालाबों के विकास और संरक्षण में एक बड़ी समस्या इन पर कब्जे की सामने आई है। तालाबों पर कब्जे कर लेना आसान इसलिए है क्योंकि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं। जैसे राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन ..आदि। कहने की जरूरत नहीं है कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी कर्मचारी की भूमिका होती ही है।
अभी तालाबों के कुछ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है, जिसकी मिली-भगत से उस की दुर्गति होती है, इसलिए हर जगह लीपापोती होती रहती है। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं। तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है।
इसके लिए जरूरी है कि देश में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो सबसे पहले देशभर की जल-निधियों का सर्वे करवा कर उनका मालिकाना हक राज्यों के माध्यम से अपने पास रखे, यानी तालाबों का राष्ट्रीयकरण हो। फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए।
हकीकत में तालाबों की सफाई और उन्हें गहरा करने का काम अधिक खचीर्ला नहीं है, ना ही इसके लिए भारीभरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही बनती है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है, यह किसान जान चुके हैं और इसीलिए उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देशी खादों की ओर है।
यदि जल संकटग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए।