योगेश कुमार गोयल

मांट्रियल समझौते के बाद से दुनिया के अधिकांश देश ओजोन परत के संरक्षण के प्रति संवेदनशील हुए हैं और इसे बचाने की कवायद भी जारी है। रसायनों और खतरनाक गैसों के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास जारी हैं, लेकिन इस दिशा में दुनिया को अभी बहुत कुछ करना बाकी है। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि ओजोन परत को जो नुकसान हो चुका है, उसकी पूर्ति कर पाना तो मुश्किल है, लेकिन आगे की क्षति को रोका जा सकता है।

विश्वभर में पर्यावरण के साथ खिलवाड़ के कारण पृथ्वी पर जीवन की रक्षा कर रही ओजोन परत को खतरा पैदा हो गया है। जहरीली गैसों के कारण इसमें छिद्र हो गया है, जिसे भरने के कई दशकों से प्रयास हो रहे हैं, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली है। ओजोन परत का एक बड़ा छिद्र अंटार्कटिका के ऊपर स्थित है, जो पहली बार 1985 में ‘हेली शोध केंद्र’ में देखा गया था। एक शोध के अनुसार वर्ष 1960 के मुकाबले इस क्षेत्र में ओजोन की मात्रा चालीस फीसद तक कम हो चुकी है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले करीब सौ वर्षों से ओजोन परत मानव निर्मित रसायनों द्वारा क्षतिग्रस्त हो रही है और इन रसायनों में क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। क्लोरो फ्लोरो कार्बन कई कारणों से अंतरिक्ष में प्रवेश करते और ओजोन परत में विलीन होकर ये उसे बुरी तरह प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक एसी, रेफ्रिजरेटर जैसे नए जमाने के साधनों तथा शरीर को महकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले डियोडरेंट और परफ्यूम आदि में क्लोरो फ्लोरो कार्बन का इस्तेमाल होता है, जो वातावरण को वातानुकुलित करती और शरीर को महकाती है, लेकिन इनका उत्सर्जन पर्यावरण के लिए बहुत घातक होता है। जीवन के इन आरामदायक संसाधनों से उत्सर्जित गैस से न केवल मानव जीवन, बल्कि ओजोन परत को भी खतरा बना हुआ है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोतरी हो रही है। इसी से पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है।

पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार क्लोरो फ्लोरो कार्बन का सीधे हमारे शरीर पर कोई असर नहीं होता, लेकिन अगर यह गैस रिस कर वातावरण में मिल जाए तो नुकसानदायक हो सकती है। क्लोरो फ्लोरो कार्बन के इस्तेमाल को ही ओजोन परत में सूराख के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। सीएफसी इलेक्ट्रोनेगेटिव होती है, जिसका रिसाव बहुत नुकसानदायक होता है।

जब यह गैस स्थानीय स्तर पर घुल कर नष्ट नहीं होती तो बहुत तेजी से ऊपर उठती है और ओजोन परत के जिस हिस्से से टकराती है, वह कमजोर हो जाता है। इसी कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। विशेषज्ञों के मुताबिक एक कार साल भर में 4.5 मीट्रिक टन कार्बन का उत्सर्जन करती है, वहीं ग्रीन हाऊस का 3.9 फीसद उत्सर्जन एअरकंडीशनर से हो रहा है। यानी वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइआक्साइड सहित जितनी भी ग्रीन हाऊस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं, उनमें 3.9 फीसद हिस्सा एसी का है। इसके अलावा डियोडरेंट में इस्तेमाल हो रही एसएफ-6 गैस कार्बन डाइआक्साइड से बीस से तीस हजार गुना घातक है।

ओजोन एक हल्के नीले रंग की गैस होती है, जो आक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर प्राकृतिक रूप से बनती है और वातावरण में बहुत कम मात्रा में पाई जाती है। जब सूर्य की किरणें वायुमंडल से ऊपरी सतह पर आक्सीजन से टकराती हैं तो उच्च ऊर्जा विकिरण से इसका कुछ हिस्सा ‘ओजोन’ में परिवर्तित हो जाता है। इसके अलावा बादल, आकाशीय बिजली, विद्युत विकास क्रिया तथा बिजली की मोटरों के विद्युत स्पार्क से भी आक्सीजन ‘ओजोन’ में बदल जाती है। ओजोन गैस सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों से मनुष्य तथा जीव-जंतुओं की रक्षा करती है। ओजोन परत धरातल से सामान्यतया दस से पचास किलोमीटर की ऊंचाई के बीच पाई जाती है, जो पर्यावरण की रक्षक मानी जाती है।

चूंकि इस परत के बिना पृथ्वी पर जीवन संकट में पड़ जाएगा, इसीलिए ऊपरी वायुमंडल में इसकी उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है। यह परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों के लिए एक अच्छी छन्नी का कार्य करती है। सूर्य विकिरण के साथ आने वाली पराबैंगनी किरणों का करीब निन्यानबे फीसद हिस्सा ओजोन मंडल द्वारा सोख लिया जाता है और इस तरह पृथ्वी पर न केवल मनुष्य, बल्कि जल-थल पर रहने वाले समस्त प्राणी और पेड़-पौधे सूर्य के खतरनाक विकिरण और अहसनीय तेज ताप से सुरक्षित हैं।

एक अध्ययन में यह देखा गया कि ओजोन परत का क्षय गर्मियों में उसी दर से होता है और इसी कारण अंटार्कटिका तथा उसके आसपास के समुद्री क्षेत्रों में सूर्य का पराबैंगनी प्रकाश बढ़ता जा रहा है, जिसके खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। ओजोन परत के क्षरण से कई प्रकार के गंभीर स्वास्थ्य संबंधी खतरे उत्पन्न हो रहे हैं और जीवनरक्षक टीकों की उपयोगिता भी समय के साथ घट रही है।

सांस की बीमारी, रक्तचाप समस्या, त्वचा कैंसर, त्वचा में रूखापन, झुर्रियों से भरा चेहरा, मोतियाबिंद, अन्य नेत्र विकार, असमय बुढ़ापा आदि के अलावा शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। यही बीमारियां मनुष्यों के साथ-साथ जीव-जंतुओं में भी पनपती हैं। पराबैंगनी किरणों की बढ़ती मात्रा से पेड़-पौधों की पत्तियों का आकार छोटा हो सकता है, बीजों के अंकुरण का समय बढ़ सकता है तथा फसल चक्र प्रभावित होने के साथ-साथ विभिन्न अनाजों, फलों आदि की उपज काफी घट सकती है।

जैविक विविधता पर भी इसका असर होता है तथा पेड़-पौधों और वनस्पतियों की कई प्रजातियां नष्ट हो सकती हैं। ओजोन परत के महत्त्व को इसी से समझा जा सकता है कि अगर वायुमंडल में ओजोन परत न हो और सूर्य से आने वाली सभी पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंच जाएं तो पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी कैंसरग्रस्त हो जाएगा और सभी पेड़-पौधों तथा प्राणियों का जीवन नष्ट हो जाएगा।

ग्लोबल वार्मिंग की विकराल होती समस्या और ओजोन परत के क्षरण के लिए औद्योगिक इकाइयों और वाहनों से निकलने वाली हानिकारक गैसें, कार्बन डाइआक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन डाइआक्साइड, मीथेन आदि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिनका वायुमंडल में उत्सर्जन विश्वभर में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद तेजी से बढ़ा है।

क्लोरो फ्लोरो कार्बन, हेलोन, नाइट्रोजन आक्साइड, हाइड्रो क्लोरो फ्लोरो कार्बन, हाइड्रो ब्रोमो-फ्लोरो कार्बन, ब्रोमो-क्लोरो फ्लोरो मीथेन, मिथाइल क्लोरोफार्म, ब्रोमाइड, मिथाइल ब्रोमाइड, कार्बन टेट्रा क्लोराइड आदि ओजोन परत के लिए बहुत घातक साबित हो रहे हैं, जिनका आजकल एअरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर तथा इसी प्रकार के अन्य कई संयंत्रों में बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है।

ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने में सुपरसोनिक जेट विमानों से निकलने वाली नाइट्रोजन आक्साइड, काला धुआं तथा अनेक प्रकार के खतरनाक रसायन उगलते उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले क्लोरो फ्लोरो कार्बन, हैलोजन तथा मिथाइल ब्रोमाइड जैसे रसायनों से निकलने वाले ब्रोमीन और क्लोसेन जैसे रासायनिक प्रदूषक, रेफ्रिजरेटर तथा अन्य सभी वातानुकूलित उपकरणों में इस्तेमाल होने वाली गैसें बड़ी भूमिका निभा रही हैं। धरती पर अंधाधुंध बढ़ता जीवाश्म र्इंधन का उपयोग भी ओजोन परत की समस्या बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1994 से विश्वभर में ओजोन परत के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए ‘विश्व ओजोन दिवस’ मनाने की घोषणा की थी। उस समय लक्ष्य रखा गया था कि वर्ष 2010 तक दुनिया भर में ‘ओजोन फ्रैंडली’ वातावरण बनाया जाएगा, लेकिन अभी लक्ष्य बहुत दूर है। हालांकि अच्छी बात है कि मोंट्रियल समझौते के बाद से दुनिया के अधिकांश देश ओजोन परत के संरक्षण के प्रति संवेदनशील हुए हैं और इसे बचाने की कवायद भी जारी है।

रसायनों और खतरनाक गैसों के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास जारी हैं, लेकिन इस दिशा में दुनिया को अभी बहुत कुछ करना बाकी है। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि ओजोन परत को जो नुकसान हो चुका है, उसकी पूर्ति कर पाना तो मुश्किल है, लेकिन आगे की क्षति को रोका जा सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार अगर हम ओजोन परत के संरक्षण की दिशा में प्रतिबद्ध होकर कार्य करते रहें तो वर्ष 2050 तक इस समस्या का हल संभव है।