एमजे वारसी

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान मुसलमानों और इस्लामोफोबिया के बारे में बहुत कुछ कहा गया और इस पर काफी चर्चा भी हुई। कुछ लोगों ने अमेरिका में कामकाज के लिए आने वाले आप्रवासी मुसलमानों पर प्रतिबंध लगाने की बात की, लेकिन किसी ने भी मुसलमानों और इनके अपने देश अमेरिका के प्रति समर्पण, योगदान और वफादारी के बारे में बात नहीं की। कुछ दशक से अमेरिका में रह रहे मुसलमानों के राष्ट्र निर्माण में उनके सार्थक सहयोग और योगदान के बारे में किसी ने भी बात करना मुनासिब नहीं समझा।
सब जानते हैं कि पश्चिमी देशों में इस्लाम को काफी नकारात्मक तरीके से पेश किया जाता रहा है। आज हालत यह है कि सोशल मीडिया से लेकर संचार के सभी माध्यमों द्वारा इस्लाम और संस्कृति को बिल्कुल अलग तरीके से दिखाया जा रहा है। समय की आवश्यकता है कि सकारात्मक सोच के साथ इस्लाम की सही छवि दुनिया के सामने पेश की जाए। इस्लाम के सही पैगाम को लोगों तक पहुंचाना, लोगों से संवाद स्थापित कर उनके संदेह को दूर करना और इस्लाम के बारे में जो गलत धारणा उनके मन में बैठ गई है, उन्हें दूर करना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

यह बताना जरूरी है कि इस्लाम में आंतकवाद के लिए कोई जगह नहीं है। कुरान में साफ कहा गया है कि किसी एक बेगुनाह इंसान की हत्या कर देना वैसा ही है जैसे उसने सारी इंसानियत की हत्या कर दी हो। उसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति किसी निर्दोष की जान बचाए, तो वैसा ही है कि जैसे उसने सारी इंसानियत की जान बचाई हो। जो कुरान पूरे मानवता को अमन, शांति और भाईचारे का ऐसा पैगाम देता हो, उस इस्लाम में किसी प्रकार आंतक या दहशत की कोई गुंजाइश नहीं है।

इस्लाम धर्म को मानने वाले आज दुनिया के चाहे किसी भी देश में रह रहे हों, खासकर पढ़े-लिखे नौजवानों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है, कि वे जिस समाज में रहते हैं, उसका हिस्सा बनें और लोगों के सामने इस्लाम की सही तस्वीर पेश करने की कोशिश करें। हर नौजवान को इस्लाम का एंबेसडर बन कर इस्लाम का मैसेज लोगों तक पहुंचाना होगा। अमेरिकी समाज के अधिकतर लोगों को इस्लाम के बारे में सही जानकारी नहीं है। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि हमारे नाम और रंग भले अलग हों, पर हम भी उन्हीं की तरह एक आम इंसान हैं, जिनका अपना एक शांतिप्रिय धर्म है और जो अमन और सुकून से अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।

इक्कीस वर्षीय छात्रा फायमा, जो दक्षिणी कैलिफोर्निया में पली-बढ़ी है, उसने अपने स्कूल के बारे में बताया कि स्कार्फ से सिर ढकने वाली एक मुसलिम छात्रा के रूप में मैंने खुद को दूसरों से अलग महसूस किया। तब मैंने देखा कि मेरे साथ बैठने वाली लड़की मुझे कुछ अलग नजर से देखती थी। मगर जब मैंने उसे इस्लाम के बारे में बताया तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि जब इस्लाम अमन और शांति वाला धर्म है, तो लोग इस्लाम के बारे में इतनी नकारात्मक सोच क्यों रखते हैं? इस्लाम के बारे में जानने के बाद वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई। और जब भी कोई मेरा मजाक बनाने की कोशिश करता तो वह आगे बढ़ कर सबको जवाब देने लगती। इसीलिए आज जरूरत है इस्लाम की सही छवि लोगों के सामने पेश करने की।

मैंने अमेरिका के अपने पिछले चौदह वर्षों के शिक्षण करिअर के दौरान देखा कि हाई स्कूल की अपेक्षा हिजाब पहनने वाली छात्राओं की संख्या यूनिवर्सिटी में अधिक है। यूनिवर्सिटी में सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक विविधता होती है और दूसरे छात्र संघों की तरह हर परिसर में एक मुसलिम छात्र संघ भी होता है। मुसलिम छात्र संघ का काम मुख्य रूप से मासिक बैठक करना, सामाजिक समारोहों का आयोजन करना, दान के लिए धन इकट्ठा करना, रमजान के महीने में रोजा इफ्तार करने का इंतजाम करना, नमाज के लिए कैंपस के अंदर जगह रिजर्व करने के साथ-साथ ईद जैसे महत्त्वपूर्ण त्योहार पर कैंपस के पास एक बड़े मैदान की व्यवस्थ करना, शामिल है। इसके अलावा मुसलिम छात्र संघ के और भी महत्त्वपूर्ण काम हैं। मसलन, दूसरे छात्र संघों के साथ संवाद स्थापित करना, ताकि इस्लाम के बारे में जो गलतफहमियां पैदा हो गई हैं उसे दूर किया जा सके। कभी-कभी इस्लाम के विद्वानों को बुला कर कैंपस में उनका व्याख्यान कराना उनके महत्त्वपूर्ण कामों में शामिल है।

लॉस एंजिल्स में कानून की प्रैक्टिस कर रहे एक छात्र ने बताया कि ‘अमेरिकी यूनिवर्सिटी में मुसलिम के रूप में मेरा अनुभव उतना अधिक अलग नहीं है। परिवार से दूर रह कर पढ़ाई-लिखाई करने के साथ दुनिया को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण विकसित करना मेरा मकसद था। पढ़ाई के साथ नए दोस्त बनाना, उन चीजों को समझना, जिनसे नई प्रेरणा मिल रही हो, साथ ही अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए सोचना कि ग्रेजुएट होने के बाद जीवन में क्या करना है। यह समांतर स्थिति अमेरिकी यूनिवर्सिटी में मुसलिम छात्र के लिए एक विशिष्ट अनुभव है। ये सभी चीजें छात्र जीवन में, एक मुसलिम छात्र होने के नाते मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण था।’

भारतीय मूल की बाईस वर्षीय अमेरिकी छात्रा नुजहत, जो अपने सिर को पारंपरिक स्कार्फ से ढंक कर यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई थी, उसने बताया कि ‘मैं अमेरिकी संस्कृति और उदारवाद के बारे में अधिक जानना चाहती थी और साथ ही अपने इस्लाम धर्म और संस्कृति के बारे में दूसरों को बताना चाहती थी।’ क्योंकि नुजहत का मानना था कि ‘एक ऐसा धर्म, जो अमन और शांति का पैगाम देता है, उसके बारे में पश्चिमी विचाधारा रखने वाले लोगों के बीच गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है।’ वह अमेरिकी समाज को यह दिखाना चाहती है कि ‘इस्लामिक मूल्यों और परंपराओं को मानते हुए भी मुसलिम छात्र-छात्राएं अपने जीवन में सफल हो सकते हैं और नई पीढ़ी के छात्रों के लिए आदर्श बन सकते हैं।’
दरअसल, अमेरिका में मुसलमानों की स्थिति दुनिया के बाकी हिस्सों में रह रहे मुसलामानों से अलग है। अब समय आ गया है कि अमेरिकी मुसलमानों की नई पीढ़ी को अपना भय त्याग कर आगे आना होगा और जो बात गलत है उसको गलत कहना होगा। एक-दूसरे पर दोषारोपण करने के बजाय हकीकत का सामना करना होगा। इस्लाम के बारे में जहां-जहां गलत धारणाएं बनी हुई हैं, उसे दूर करने का प्रयास करना होगा, जो चीज निंदनीय है उसकी निंदा करनी होगी, नाइंसाफी के खिलाफ बोलना होगा और इस्लाम के संदेशों को अच्छे तरीके से लोगों तक पहुंचाना होगा, तभी दुनिया को इस्लाम के बारे में एक अच्छा संदेश देने में कामयाब हो पाएंगे।