गांवों में खेती-बाड़ी के न होने, अनेक कारणों से छोटी जोतों में खेती-किसानी के सिमटने और पुरानी कृषक-पीढ़ी द्वारा अपनी नई पीढ़ी को पारंपरिक बीज आधारित कृषि-कर्म का व्यावहारिक ज्ञान हस्तांतरित न किए जाने के कारण आज कृषि क्षेत्र पूरी तरह से आधुनिक और व्यावसायिक हो चुका है। इसी कारण, पारंपरिक बीज संरक्षण के सरकारी यत्न निष्फल सिद्ध हो रहे हैं।
मानव शरीर पर होने वाले विभिन्न चिकित्सीय परीक्षणों से स्पष्ट है कि स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति में निरंतर गिरावट आ रही है। इसके पीछे अनेक कारण हैं। पर, सबसे बड़ा और प्रमुख कारण है अप्राकृतिक और कीटनाशकों की सहायता से उत्पादित खाद्यान्न। देश में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में कृषि कार्य के लिए सुनियोजित कार्यक्रम निर्धारित नहीं किए गए। ऐसा शुरू से होता रहा है।
नतीजतन, खाद्यान्न उत्पादन का दृष्टिकोण विशिष्ट न होकर सामान्य हो गया। ग्रामीण आत्मनिर्भरता की धारणा टूटने लगी। ग्रामीण जन बड़ी संख्या में नगरों और महानगरों में आ बसे। मगर सभी के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता तो प्राकृतिक आवश्यकता है। इसलिए, जनसंख्या के शहरों की ओर पलायन के कारण सरकारों के सामने फसलों की पैदावार बढ़ाने की विवशता उत्पन्न हुई।
पैदावार बढ़ाने के लिए प्राकृतिक और जैविक विधि तत्काल लाभदायी नहीं थी, इसलिए फसली कीटों को मारने और फसल से अधिकाधिक खाद्यान्न उत्पादन के उद्देश्य से कीटनाशी दवाइयों का प्रयोग बढ़ने लगा। इससे पैदावार तो बढ़ी, खाद्यान्न भी ज्यादा हुआ, पर मनुष्य का शरीर ऐसे अन्न से रोगग्रस्त भी होता गया।
यह प्रक्रिया तीन दशक पुरानी हो चुकी है। अब इसमें कीटनाशक बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों का दबदबा है। उनकी पूंजीगत नीतियों से ही फसलों के कीटनाशक तैयार हो रहे हैं। प्राकृतिक खेती-किसानी करने और लोगों का स्वास्थ्य अच्छा बनाने के संकल्प लेने वाली लोकतांत्रिक संस्थाओं का कीटनाशक निर्माता कंपनियों पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं है। अप्राकृतिक खेती करने का लंबी अवधि का व्यवाहारिक अभ्यास हो चुका है।
पारंपरिक बीज संरक्षण, खेती करने और जैविक रूप में खाद्यान्न उत्पादित करने की गतिविधियां भारत जैसे देशों में बहुत सीमित स्तर पर हो रही हैं। इस प्रकार के कृषि उत्पादन की खरीद केवल अमीर लोग कर सकते हैं। ऐसे में कीटनाशक युक्त खाद्यान्न का उत्पादन, वितरण और उपभोग ही ज्यादा हो रहा है। यह लोगों के स्वास्थ्य पर सीधे-सीधे बुरा प्रभाव डाल रहा है। लोग विचित्र रोगों से घिर रहे हैं।
इन रोगों के निदान के लिए तत्काल कोई चिकित्सा या औषधि भी उपलब्ध नहीं होती। जीने के लिए जरूरी अनाज ही जब शुद्ध और प्राकृतिक रूप में नहीं रहा, तो आम आदमी क्या करे! इस स्थिति में सरकार पर कृषि से संबंधित नई नीतियां बना कर उनका ठोस क्रियान्वयन करने की बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। हालांकि इस दिशा में वर्तमान केंद्र सरकार ने महत्त्वपूर्ण कदम उठाए भी हैं, पर अभी इनके सकारात्मक और अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं।
खाद्यान्न शुद्ध हो, इसके लिए बीज और खाद पहली आवश्यकता हैं। फसलों के बीज जीएम पद्धति से उपयोगी कम और विकारग्रस्त ज्यादा हुए हैं। जीएम यानी जेनेटिकली मोडिफाइड, यानी जो बीज आनुवंशिक बीज स्वरूप, गुण और प्रभाव की दृष्टि से उपयुक्त थे और जिनमें प्राकृतिक रूप में कोई बड़ा विकार भी नहीं था, आनुवंशिक अप्राकृतिक बदलाव (जीएम) प्रक्रिया से गुजरने के बाद वे पोषणहीन, शक्तिहीन और विकृतिकारक होते गए। ऐसा होते-होते भी ढाई-तीन दशक की लंबी अवधि बीत चुकी है।
बीज की आनुवंशिकी में बदलाव की इस प्रक्रिया में मूल, प्राकृतिक और पुराने बीजों के संरक्षण का काम नहीं हुआ। बीज संरक्षण की देश में कुछेक युक्तियां किन्हीं सरकारी, अर्द्ध-सरकारी, निगमों की सहायता से हो रही हैं, पर वे भारतवर्ष की संपूर्ण कृषि-व्यवस्था को पुन: प्राकृतिक खेती की राह पर लाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। पारंपरिक बीज संरक्षण की दिशा में वैसे ही प्रयास और कार्य होने चाहिए जैसे सबसे ज्यादा बिकने वाले एफएमसीजी यानी ‘फास्ट मूविंग कंज्यूमर प्रोडक्ट’ बनाने से लेकर बेचने तक होते हैं। और सबसे अहम बात, ऐसे प्रयास और कार्य सरकार के स्तर पर अधिक होने चाहिए। तभी बीज संरक्षण की चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
हालांकि भारत सरकार के कृषि सहयोग एवं कृषक कल्याण विभाग के अधीन कार्यरत राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड इस काम में लगा हुआ है, पर तब भी बीजों पर अप्राकृतिक प्रयोग की प्रवृत्ति नियंत्रण में नहीं है और पारंपरिक बीजों के संरक्षण और भंडारण का उद्देश्य धरातल पर प्रभावी तरीके से नहीं हो पा रहा है। राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड पूरी तरह से भारत सरकार के स्वामित्व में है। पारंपरिक और प्रामाणिक बीजों का उत्पादन करने के उद्देश्य से सन 1963 में इसकी स्थापना गई थी।
निगम वर्तमान में अपने खेतों और देश भर में मौजूद अपने 11,603 पंजीकृत बीज उत्पादकों के माध्यम से अठहत्तर फसलों की लगभग 567 किस्मों के प्रमाणित बीजों का उत्पादन कर रहा है। वित्त वर्ष 2021-22 में निगम का कुल राजस्व 915.72 करोड़ रुपए था। निगम के ग्यारह क्षेत्रीय कार्यालय हैं। इसके 22,000 हेक्टेयर भूमि के पांच खेत हैं। इतना ही नहीं, इसके भारत भर में अड़तालीस क्षेत्रीय कार्यालय/ उप-इकाइयां, तीस बीज उत्पादन केंद्र, 107 मार्केटिंग केंद्र, 76 बीज प्रक्रमण संयंत्र, सात वातानुकूलित बीज भंडारण सुविधाकक्ष, दो शाक बीज पैकिंग केंद्र और एक डीएनए फिंगर प्रिंटिंग लैब है।
राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड ही नहीं, केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अलावा राज्यों के कृत्रि विभाग भी फसलों की पैदावार को पोषणयुक्त, गुणवत्तापूर्ण और हर दृष्टि से स्वास्थ्यवर्द्धक बनाने के लिए अनेक नीतियां बना चुके हैं। मगर नीतियों के क्रियान्वयन में लगा कार्यकारी तंत्र भ्रष्टाचार में लिप्त है। इसीलिए ऐसे तंत्र की लापरवाहियों का फायदा फसल संबंधी कीटनाशक बनाने वाली कंपनियां उठाती हैं।
सब्जियां, दालें, अनाज, मोटा अनाज, फल आदि, यहां तक कि मसालों की पैदावार में भी प्राकृतिक शक्ति नहीं बची। हर किस्म की पैदावार की प्रकृतिजन्य पौष्टिकता, स्वाद, गंध, रंग, अन्य सभी गुण खत्म हो चुके हैं। मसलन, चावल की अधिकांश उपलब्ध किस्में लंबे रूप में, शुष्क, नमहीन और पोषण-सत्व से विहीन हैं। चावल में मांड ही नहीं बचा। चावल का पारंपरिक बीज श्वेत होता है और इस पर ललंगी धारी या धारियां होती हैं। लेकिन अब यह धान-प्रजाति दिखती ही नहीं है।
इसी प्रकार अन्य फसलों के बीज पारंपरिक रूप में नहीं बचे। सरकार को इस दिशा में गंभीरता से और क्रांतिकारी नीतियां बना कर उनका ठोस और निर्बाध क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा। गांवों में खेती-बाड़ी के न होने, अनेक कारणों से छोटी जोतों में खेती-किसानी के सिमटने और पुरानी कृषक-पीढ़ी द्वारा अपनी नई पीढ़ी को पारंपरिक बीज आधारित कृषि-कर्म का व्यावहारिक ज्ञान हस्तांतरित न किए जाने के कारण आज कृषि क्षेत्र पूरी तरह से आधुनिक और व्यावसायिक हो चुका है। इसी कारण, पारंपरिक बीज संरक्षण के सरकारी यत्न निष्फल सिद्ध हो रहे हैं।
इससे तो यही लगता है कि राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड के नेतृत्व में पारंपरिक बीज संरक्षण के जो कागजी संकल्प, रिकार्ड और प्रदर्शन प्रकट हैं, धरातल पर उनका प्रभाव कुछ भी नहीं है। इस अनुभव के संदर्भ में एक कटु सत्य यह भी है कि देश की बड़ी जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति जैविक और प्राकृतिक खाद्यान्न से नहीं की जा सकती।
ऐसा इसलिए कि पारंपरिक बीज संरक्षण की प्रक्रिया के बाद जो भी जैविक और प्राकृतिक पैदावार देश में होती है, अधिक मूल्य प्राप्त करने के उद्देश्य से उसका निर्यात कर दिया जाता है या ऐसी पैदावार खरीदने में केवल देश का धनी वर्ग ही सक्षम होता है। परिणामस्वरूप, देश की बड़ी आबादी अप्राकृतिक, कृत्रिम और पोषणहीन खाद्यान्न खरीदने और खाने को विवश होती है।
हर नागरिक को पौष्टिक, प्राकृतिक, जैविक और मिलावट रहित खाद्यान्न निर्बाध प्राप्त होता रहे, इसके लिए सर्वप्रथम जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता है। देश की आबादी नियंत्रित होने से अपेक्षित खाद्यान्न आपूर्ति ही नहीं, बल्कि अनेक जन आवश्यकताएं और सुविधाएं भी सहज उपलब्ध होंगी।