अगर कांग्रेस ने अपने छह दशकों के शासनकाल में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द के मायने को बहुत हल्का बना कर रख दिया था तो नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली राजग सरकार ने महज ढाई साल में ‘देशभक्ति’ और ‘राष्टÑवाद’ को खौफनाक मंजर पर पहुंचा दिया। सरकार जहां झुकने को कह रही थी उससे जुड़े संगठन लोगों को दंडवत करवाने पर मजबूर करने लगे। पिछले साल वैलेंटाइन डे को मातृ-पितृ दिवस के रूप में मनाने वाले भगवा खेमे ने इस बार हास्यास्पद रूप से इस खास दिन को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के साथ जोड़ कर इस दिन को देशभक्ति के नाम करने की कोशिश की। इसके पहले देशभक्ति के नाम पर नोटबंदी की मार खाई कमजोर जनता को कराहने का भी अवसर नहीं दिया। और अब जब इस अतिरेक का गुस्सा जनता की ओर से फूटने लगा है तो सरकार के इकबाल को बनाए रखने के लिए एक बार फिर से संघ ने उसे अपनी शरण में ले लिया है। संघ और सरकार के रिश्ते पर इस बार का बेबाक बोल।
पहचान की राजनीति के दौर में आलोचनाओं की बारिश की आशंका हो तो ‘रेनकोट’ यानी बरसाती एक बुनियादी जरूरत है। आरोपों, नाकामियों की बारिश में जादूगर सरीखे चेहरे को बचाना जरूरी है। इसी के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी के अगुआ चेहरे के लिए बरसाती का काम कर रहा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। दिल्ली और बिहार की नाकामी के बाद इस बार पांच राज्यों के चुनावों के ऐन पहले चमत्कार की चमक बनाए रखने के लिए मोहन भागवत का देशभक्ति पर दिया बयान संघ की ओर से भाजपा के लिए एक और शहादत है।
अभी जब कई जगए ईवीएम के बटन दब चुके हैं और कई जगह दबने वाले हैं, भाजपा समेत सभी दक्षिणपंथी दलों के अगुआ मोहन भागवत ने कहा कि किसी को भी किसी दूसरे की देशभक्ति नापने का अधिकार नहीं है। कोई भी किसी की कितनी देशभक्ति है, उसे नाप नहीं सकता। भागवत के इस बयान के पहले संघ के ही प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य आरक्षण पर बयान देकर हंगामा बरपा चुके हैं। अब भागवत ने कहा है कि कोई व्यक्ति कितने भी बड़े पद पर क्यों न हो, उसे यह अधिकार नहीं कि किसी दूसरे की राष्टÑभक्ति के लिए मापदंड तय करे…। इसे हम एक चेतावनी के तौर पर भी देख सकते हैं, जो संघ ने सरकार को दी है।
प्रचंड बहुमत पाने के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार बने ढाई साल बीत चुके हैं। इन ढाई सालों में भाजपा की अगुआई में पूरे दक्षिणपंथी खेमे ने पहचान के प्रतीकों का ही झंडा बुलंद किया। सरकार की हर नीति को राष्टÑवाद के आभासी बिंब से जोड़ दिया गया। आम नीतियों के खिलाफ उठी आम लोगों की आवाज को राष्टÑदोह की श्रेणी में रख दिया गया। 14 मई 2014 के बाद यह भी साफ तौर पर दिख रहा है कि भाजपा के कार्यकाल में अभी तक संघ ने खुद को ‘बरसाती’ की तरह ही पेश किया है ताकि नाकामियों के आंधी-तूफान के छींटे सरकार तक न पहुंचे। निश्चित नाकामी का पूर्वाभास होते ही अपनी शहादत दे सरकार के लिए सुरक्षित रास्ता तैयार कर देना संघ की रणनीति का हिस्सा रहा है। बिहार चुनावों के पहले संघ प्रमुख ने आरक्षण खत्म करने के विवादित बोल कह कर सारे तीर अपने सीने पर झेल लिए। संघ अभी भी राजग सरकार का पथ-प्रदर्शक है, रिमोट कंट्रोल है। लेकिन इस रिमोट कंट्रोल का इस्तेमाल कभी कुछ रोकने के लिए नहीं किया गया। हां एक निरंकुश होती जा रही प्रवृत्ति पर पहली बार आदेशात्मक भाषा का इस्तेमाल जरूर किया गया है।
भागवत के लिए यह बयान एक तरह से आधी निक्कर से पूरी पतलून वाली चोलाबदली की कवायद ही कही जा सकती है। भाजपा को अगर संघ द्वारा जल-जंगल-जमीन पर की गई तीन दशकों की मेहनत का फल मिला है तो नवउदारवादी समाज में उसे संघ की तंगनजरी का खमियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। धर्म की कट्टर पहचान के साथ आगे बढ़ने के खतरे साफ-साफ दिखने लगे थे। इसलिए मजबूरी में ही सही संघ भी बहुवचन की भाषा बोल रहा है।
बहुवचन से गलबहियां की यह संघ की पहली कवायद नहीं है। भागवत संकेत दे चुके हैं कि संगठन हिंदुत्त्व की सोच और परिभाषा में भी बदलाव चाहता है। हाल ही में अपने मध्य प्रदेश दौरे के दौरान भागवत ने एक ऐसा बयान दिया है जिसकी व्याख्या विभिन्न कोणों से की जा सकती है। भागवत ने कहा, ‘हिंदुस्तान में जन्म लेने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, उनमें कोई मूर्तिपूजा करता है, कोई नहीं। यहां का मुसलमान भी राष्ट्रीयता से हिंदू है, वह तो इबादत से मुसलमान है।’ इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जैसे इंग्लैंड में इंग्लिश लोग रहते हैं, अमेरिका में अमेरिकी लोग और जर्मनी में जर्मन लोग रहते हैं, ठीक उसी तरह हिंदुस्तान में हिंदू रहते हैं। हिंदुस्तान के लोग भारत माता को अपनी मां मानकर उसकी भक्ति करते हैं। राष्ट्रीय मुसलिम मंच द्वारा भारत माता की आरती करने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह तो भारत माता की आरती करेगा ही, क्योंकि इबादत से वे मुसलिम हो गए, मगर राष्ट्रीयता से तो हिंदू हैं’। हालांकि यह भी दिख रहा है कि धर्म और जाति को लेकर समझौतावादी रुख की ओर कदम बढ़ाने की वजह सरकार की साख के साथ कदमताल भी हो सकती है।
नोटबंदी के अपने अहमतरीन, पर हड़बड़ी में किए फैसले के विरोध को भी राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखने वाली सरकार को अब अपनी सोच पर पुनर्विचार की खास जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहले यह समझ लेना होगा कि वे किसी भी विषय पर तभी निष्पक्ष सोच रख सकते हैं जब वे दूसरे के तर्कों को, दूसरे के पक्ष को अपने ऊपर हुए हमले के तौर पर न लें। अभी वे सरकार की नीतियों के विरोध को ‘मोदी विरोध’ मान बैठते हैं। हालांकि सत्ता हासिल होने के बाद से उन्होंने हर काम में, हर बयान में जिस तरह से निजी रूप से नायकत्व का दर्जा पाना चाहा था यह उसका विपरीत असर भी है। सरकार नाकाम हो सकती है लेकिन नायक का नाकाम होना उसके नायकत्व का खात्मा है। जनता जब सरकार की नीति पर सवाल उठाती है तो नायक को यह अपने ऊपर हमला लगने लगता है और वह निरीह जनता को खलनायक के रूप में देखने लगता है। नोटबंदी सहित बाकी सभी मुद्दों पर यही हुआ और हो रहा है। शायद इसलिए पार्टी के बीज संगठन ने नायक का चेहरा बचाने के लिए अपने पारंपरिक चेहरे की शहादत दी है, ताकि सरकार उसके नक्शेकदम पर चल सके।
ढाई साल बीतने के बाद यह समय संघ और सरकार दोनों के लिए अहम है। आधी खाकी छोड़ कर आप पतलूनधारी तो हो गए लेकिन आपकी कट्टर पहचान आपके लिए सबसे बड़ी बाधा है। कांग्रेसमुक्त भारत के नारे के साथ सत्ता में आने वाली भाजपा को भी अपने हर काम में महात्मा गांधी का नाम लेना पड़ता है और गांधी की हत्या के मुद्दे पर यह संगठन अब तक सवालों के घेरे में है। अब पाकिस्तानी खुफिया एजंसी को लेकर भगवा खेमे के लोगों की गिरफ्तारी ने ‘राष्ट्रवाद’ के मसले पर भी आपको दाग-दाग कर दिया है तो देशभक्ति को लेकर आपको दो कदम पीछे होना पड़ा है। संघ के लिए यह सबसे कठिन दौर है कि हिंदुत्व को लेकर उसे अपनी नीति पर समीक्षा करनी पड़ी। लेकिन जब ऐसी जरूरत है तो उसका इशारा किया गया है। हालांकि यह भी सच है कि इसके पीछे के कारण भी राजनीतिक बताए जा रहे हैं। खास तौर पर तब जबकि ‘कांग्रेसमुक्त’ भारत का नारा देने वाली सरकार को पहले दिल्ली और फिर बिहार में मुंह की खानी पड़ गई।
इस बार पांच राज्यों के चुनावों में भी भाजपा संकट में ही दिख रही है। पंजाब में अपने राजनीतिक जीवन के पहले पल से मोदी को ललकार रहे आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस के सामने, दो कार्यकाल से सत्ता पर काबिज अकाली दल-भाजपा गठबंधन हांफता दिख रहा है। उत्तराखंड में कांग्रेस भाजपा को टक्कर दे रही है, गोवा में उसकी नाव डोलती नजर आ रही है और उत्तर प्रदेश में ‘लड़कों के साथ’ ने उसकी हालत पस्त कर रखी है। वैसे तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने तरकश से हर तीर चला कर वोटों के ध्रुवीकरण में जुटे थे। लेकिन ऐन वक्त पर इस गठबंधन ने पूरा समीकरण बदल दिया। नतीजा जो हो, लेकिन राजनीतिक पंडितों ने इस मिलन के बाद अपने तमाम समीकरणों का ताना-बाना नए सिरे से बुनना शुरू किया। सरकार ने फिर से राम मंदिर का रामबाण चलाया लेकिन इस मुद्दे पर बेनकाब सरकार को विरोधियों के हमले के बाद शर्मिंदगी ही झेलनी पड़ी।
तो नायक की कमजोर पड़ती आभा का बोझ संघ की शाखाओं ने अपने कंधे पर उठा लिया है। हिंदू और हिंदुत्व से आदि और अंत करने वाले भागवत मध्यप्रदेश में जैविक खेती की बात कर रहे हैं, किसानों की समस्या सुन रहे हैं। संगठनात्मक गतिविधियों के इतर ‘वनवासी’ समाज के उत्थान की ओर किए गए कामों की ओर मीडिया का ध्यान खींच रहे हैं। इस बार संगठन ने संत रविदास जयंती को भी अहमियत दी। कुछ दिनों पहले संघ से जुड़े भारतीय मजदूर संगठन ने नोटबंदी के दुष्परिणामों को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर बड़ी रैली की और कामगारों के हालात की तरफ सरकार का ध्यान खींचा। संघ की चोलाबदली और बदले बोल इशारा कर रहे हैं कि उसे जनता की नब्ज की समझ है। क्योंकि जनता भी तो मोमिन की तरह चुनाव दर चुनाव कह ही रही है,
नासिहा दिल में तू इतना तो समझ अपने, के हम
लाख नादान हुए, क्या तुझसे भी नादां होंगे!
Also Read: सोशल मीडिया: राष्ट्रवादी बसंत का पतझड़ काल