अभिषेक कुमार सिंह

शायद ही किसी ने सोचा होगा कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी- नासा के अपोलो अभियानों की शृंखला एक बार खत्म होने के बाद इंसान दोबारा से चंद्रमा पर जाने की पहल करेगा। लेकिन चंद्रमा पर पहली बार इंसान के कदम पड़ने के पांच दशक बाद इसे लेकर एक बार फिर से हलचल बढ़ गई है।

ताजा कोशिश चीन की है, जिसका चांग ई-5 मून मिशन 24 नवंबर, 2020 को प्रक्षेपित किए जाने के बाद पहली दिसंबर को चांद पर पहुंच गया और दो दिन के भीतर उसने चांद की सतह की रंगीन तस्वीरें भेज दीं। यह चीनी अभियान चांद से मिट्टी और पत्थर के नमूने जमा कर पृथ्वी पर वापस लाने के लिए भेजा गया है। जाहिर है, इससे चंद्रमा के बारे में नए रहस्य खुल सकते हैं।

लेकिन इस मामले में चीन अकेला नहीं है। भारत और चीन के अलावा खुद नासा ने भी हाल में एक बार फिर चांद पर अपना मिशन भेजने की योजना का खुलासा किया है। नासा 2024 में चंद्रमा पर पहली महिला और एक पुरुष अंतरिक्ष यात्री को चांद की सतह पर उतारने की योजना बना रहा है।

यह सही है कि चंद्रमा की जमीन पर इंसान को दोबारा पहुंचाना आज भी चुनौतीपूर्ण मिशन है। सरकारी और निजी अंतरिक्ष एजेंसियों की बदौलत आज दुनिया के पास अंतरिक्ष में यान ले जाने और वापस लाने वाले रॉकेट तो विकसित हो गए हैं, परंतु धरती की चारदीवारी पार करते हुए किसी अन्य ग्रह-उपग्रह तक अपने यान को पूरी सटीकता से पहुंचा देना और फिर उसकी सकुशल वापसी के इंतजाम करना बहुत ही जटिल और जोखिमभरा है।

लेकिन इस दिशा में भारत और चीन के कई अभियानों ने वैज्ञानिक बिरादरी में जोश भर दिया है और वे अंतरिक्ष में अपने सबसे करीबी पड़ोसी और धरती से महज तीन लाख चौरासी हजार किलोमीटर दूर स्थित चांद को नई नजरों से देखने लगे हैं।

यह सही है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद खुद को महाशक्ति साबित करने की होड़ में अमेरिका और रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) के बीच शीतयुद्ध काल में अंतरिक्ष अनुसंधान की जो होड़ कायम हुई थी, वह 1969 से 1972 के बीच नासा के नौ अपोलो अभियानों के साथ काफी हद शांत हो गई थी।

इस अवधि में नासा ने छह बार इंसान को चंद्रमा पर उतारा था। इसके बाद मान लिया गया कि चंद्रमा की इतनी ज्यादा खोजबीन हो गई है कि अब वहां इंसान को दोबारा जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस बेरुखी के कुछ कारण और भी थे।

जैसे अमेरिका ने इन अभियानों के बलबूते दुनिया की इकलौती महाशक्ति होने का तमगा हासिल कर लिया था और अब उसे खुद को रूस से ज्यादा ताकतवर दिखाने के लिए अंतरिक्ष अभियान चलाने की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी। यही नहीं, अमेरिका को अब बेहद खचीर्ले अंतरिक्ष अभियानों को जारी रखने का तुक भी समझ नहीं आ रहा था।

चंद्रमा को लेकर पैदा हो रही नई होड़ का एक श्रेय भारत को दिया जा सकता है। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने 22 अक्तूबर 2008 को जब अपना चंद्रयान-1 रवाना किया था, तो सिवाय इसके उस मिशन से कोई उम्मीद नहीं थी कि यह मिशन अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदमों का सबूत है।

लेकिन अपने अन्वेषण के आधार पर सितंबर 2009 में जब चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर पानी होने के सबूत दिए तो दुनिया में हलचल मच गई। चंद्रयान-1 से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचाए गए उपकरण- मून इंपैक्ट प्रोब- ने चांद की सतह पर पानी को चट्टान और धूलकणों में भाप के रूप में पाया था।

चंद्रमा की ये चट्टानें दस लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी बताई जाती हैं। इसी तरह का एक अन्य उपकरण पिछले साल सितंबर में भेजे गए चंद्रयान-2 के रोवर ह्यप्रज्ञानह्ण के साथ भी चांद पर भेजा गया था। इस रोवर का मकसद दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के बाद वहां की सतह में पानी और खनिजों की खोज करना था। हालांकि चंद्रयान-2 मिशन नाकाम हो गया।

लेकिन इससे भारत के हौसले पस्त नहीं हुए हैं। भारत ने घोषणा कर रखी है कि 2022 में वह भी नासा की तरह अपने मिशन गगनयान से मानवों को चंद्रमा पर भेजेगा।

कई अन्य देश भी चंद्रमा पर पहुंचने की होड़ में शामिल हो चुके हैं। पिछले साल इजरायल ने भी अपना एक छोटा रोबोटिक लैंडर चंद्रमा की ओर भेजा था, लेकिन वह प्रयास कामयाब नहीं रहा। इस मामले में सफलता फिलहाल चीन को मिली है, जिसके अंतरिक्ष यान ई-4 ने पिछले साल जनवरी में एक छोटे रोबोटिक रोवर के साथ चांद पर सफलतापूर्वक उतर कर इतिहास रच दिया था।

सबसे खास बात यह रही कि चीन का यह यान चंद्रमा की पृथ्वी से नहीं दिखने वाली दूसरी सतह पर उतरा था, जिस पर अभी तक किसी अन्य देश का कोई मिशन नहीं पहुंच पाया है। भारत, चीन, इजरायल और जापान की चांद पर जाने की तैयारियों से प्रेरित होकर नासा ने आर्टेमिस मून मिशन के रूप में चंद्रमा पर इंसान को भेजने की एक व्यापक योजना पेश की है।

इस मिशन के तरह नासा ने आठ देशों के साथ एक महत्त्वपूर्व समझौता भी किया है, जिसके अंतर्गत सभी आठ देश मिल कर शांति और जिम्मेदारी के साथ चंद्रमा के अन्वेषण में सहयोग करेंगे। योजना के मुताबिक अर्टेमिस मिशन भी अपोलो-11 की तरह एक हफ्ते की अवधि वाला होगा, लेकिन वैज्ञानिक गतिविधियों की संख्या की तुलना में यह अभियान अपोलो-11 से काफी बड़ा होगा।

अपोलो-11 से यह अभियान इस मायने में भी अलग होगा कि इस बार अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा की भूमध्य रेखा की बजाय इसके दक्षिणी ध्रुव पर उतरेंगे, जो अभी तक इंसान के कदमों की छाप से अनछुआ है।
अपोलो-11 और अर्टेमिस मिशनों के बीच अगर सबसे ज्यादा कुछ बदला है तो वह चंद्रमा को लेकर वैज्ञानिकों की अवधारणाएं हैं।

इसमें सबसे अहम यह है कि अपोलो के समय नासा के अंतरिक्ष यात्रियों सहित विज्ञान बिरादरी और पूरी दुनिया को लगता था कि चंद्रमा की सतह बिल्कुल सूखी है, लेकिन अब सभी को पता है कि कम से कम चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर भारी मात्रा में बर्फ और भाप के रूप में पानी मौजूद है।

इसके अलावा मंगल ग्रह और सुदूर अंतरिक्ष की यात्राओं के पड़ाव और इंसानी बस्तियां बसाने के लिहाज से भी अब चंद्रमा को सर्वाधिक संभावना वाले अंतरिक्षीय पिंड के रूप में देखा जाने लगा है। अगर इंसानी बस्तियां नहीं बस सकीं, तो भी चंद्रमा पर ऐसे उपकरण लगाए जा सकते हैं जो सुदूर अंतरिक्ष की टोह लेने में हमारी मदद कर सकते हैं। साथ ही, वहां मौजूद पानी को विघटित करके उससे मिलने वाली हाइड्रोजन का इस्तेमाल दूसरे ग्रहों पर भेजे जाने वाले रॉकेटों के र्इंधन के रूप में किया जा सकता है।

इसमें दो राय नहीं कि अब यदि नासा का नया मून मिशन चंद्रमा के कुछ नए पहलुओं को उजागर करता है और इसी तरह भारत, चीन या किसी अन्य देश के चंद्र अभियानों से चंद्रमा के बारे में कुछ नई सूचनाएं मिलती हैं, तो वे संबंधित देश, दुनिया, समाज और विज्ञान को उपलब्धियों के नए धरातल पर ले जाने में मददगार ही साबित होंगी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंसानी पहुंच का दायरा वायजर-पायनियर जैसे यानों की मार्फत भले ही चांद से बाहर चला गया हो, पर अपने इस सबसे नजदीकी अंतरिक्षीय पिंड को अच्छी तरह जाने बगैर अंतरिक्ष के दूसरे ठौर-ठिकानों तक होने वाली पहुंच कोई विशेष अर्थ नहीं रखती।