वेंकटेश दत्ता

भारत रामसर सम्मेलन और जैविक विविधता के सम्मेलन, दोनों का हस्ताक्षरकर्ता है, लेकिन हैरानी की बात यह कि आर्द्र भूमि के संरक्षण के लिए कोई स्पष्ट नियामक ढांचा नहीं है। हालांकि कुछ राज्यों में आर्द्र भूमि विकास प्राधिकरण बनाए तो गए हैं, लेकिन ये भी अन्य परंपरागत कानूनों के अधीन ही हैं। पर्यावरण विज्ञानियों के सामने इस वक्त एक बड़ी चिंता आर्द्र भूमि (वेटलैंड) के संरक्षण को लेकर उभरी है। धरती के पर्यावरण में नम या आर्द्र भूमि की अहमियत वैसे ही है जैसे शरीर में गुर्दे की। नम भूमि ही धरती के भीतर मीठे पानी के पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आर्द्र भूमि जैव विविधता से लेकर मीठे पानी के जलाशयों, कार्बन अवशोषण और आजीविका का भीबड़ा स्रोत मानी जाती है। ऐसे में यदि आर्द्र भूमि खत्म होती जाएगी तो धरती पर नए तरह का संकट खड़ा हो जाएगा।

भारत में आर्द्र भूमि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 4.7 फीसद है। जाहिर है, यह काफी कम है और इसलिए इसका संरक्षण कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है। वैसे दुनियाभर में आर्द्र भूमि पर संकट गहराता जा रहा है। इसलिए इसे बचाने के लिए पहली बार दो फरवरी 1971 को ईरान के रामसर शहर में वैश्विक सम्मेलन बुलाया गया था और दुनियाभर में फैली आर्द्र भूमि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी गई थी। अंतरराष्ट्रीय महत्त्व की लगभग दो हजार चार सौ आर्द्रभूमियों में से सैंतालीस भारत में हैं और उन्हें रामसर स्थल कहा जाता है। ये विश्व स्तर पर प्रमुख संरक्षित स्थलों में से हैं।

ईस्ट कलकत्ता आर्द्र भूमि, पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर के पूर्व में स्थित प्राकृतिक और मानव निर्मित आर्द्र भूमि का एक बड़ा परिसर है जो एक सौ पच्चीस वर्ग किलोमीटर में फैला है। यहां कृषि क्षेत्र, सीवेज फार्म और कई तालाब हैं। इस आर्द्र भूमि का उपयोग कोलकाता के सीवेज शोधन के लिए भी किया जाता है, और अपशिष्ट जल में निहित पोषक तत्व मछलियों की आबादी और कृषि को बनाए रखता है। इसी तरह नौ रामसर स्थलों के साथ उत्तर प्रदेश देश में ऐसी आर्द्र भूमि वाला दूसरा बड़ा राज्य है। उत्तर प्रदेश में गंगा नदी क्षेत्र का एक अद्वितीय और विशाल पारिस्थितिक तंत्र है जो पौधों और जानवरों की समृद्ध विविधता को बरकरार रखता है।

इसमें तालाबों, झीलों और आर्द्र भूमि का एक बड़ा क्षेत्र है। मछलियों की जैव विविधता में उत्तर प्रदेश का योगदान 14.11 फीसद का का है, और इनमें से बहुत से इन आर्द्र भूमि से आते हैं। उत्तर प्रदेश में गंगा के बाढ़ के मैदान का लगभग पांच फीसद हिस्सा आर्द्र भूमि से ढका है। बृजघाट से नरोरा तक ऊपरी गंगा नदी भी एक रामसर स्थल है। हैदरपुर आर्द्र भूमि क्षेत्र भारत में सबसे नया रामसर स्थल है जिसे दिसंबर 2021 में ही इस शृखंला में जोड़ा गया था। यह भूमि क्षेत्र मध्य गंगा बैराज के साथ गंगा नदी के बाढ़ के मैदानों पर बिजनौर जिले में 6908 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है।

इस वर्ष विश्व आर्द्र भूमि दिवस की विषयवस्तु ‘लोगों और प्रकृति के लिए आर्द्र भूमि’ है। यह वैश्विक आह्वान दुनिया भर में आर्द्र भूमि को बचाने के लिए किया गया है। इसरो ने उपग्रह से प्राप्त चित्रों से इसका एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण भी किया है। इसके अनुसार उत्तर प्रदेश में लगभग 27181 आर्द्र भूमि क्षेत्र हैं जो लगभग 63,525 हेक्टेयर क्षेत्र बनाते हैं। इनमें से लगभग चालीस फीसद आर्द्र भूमि क्षेत्र सौ हेक्टेयर से अधिक आकार के हैं। अकेले हरदोई जिले में दो हजार से अधिक आर्द्र भूमि क्षेत्र हैं। तटीय इलाकों में नमी क्षेत्र और बैकवाटर मैंग्रोव के जंगलों का महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहां लोग भोजन, ईंधन, चारा और आवास के लिए इन पर निर्भर हैं। पारंपरिक मछुआरे आज भी अपनी स्थायी आजीविका के लिए पूरी तरह से मछली और शंख जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं।

शहरीकरण, प्रदूषण, अतिक्रमण और गहन कृषि के कारण भू-उपयोग में बदलाव के कारण भारत में आर्द्र जमीन का अस्तित्व खतरे में है। ऐसे कई भू क्षेत्र अपनी पुरानी पहचान खो चुके हैं और उन्हें बदलते परिवेश के अनुसार विकास का दंश झेलना पड़ा है। लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य में उनकी मुख्य भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। इसलिए मौजूदा जल निकायों की रक्षा करने और आर्द्र भूमि क्षेत्रों को बचाने के लिए उचित संरक्षण रणनीति और सशक्त प्रबंधन योजना बनाने की जरूरत है।

तेजी से हो रहे शहरीकरण और भूमि उपयोग में बदलाव के कारण आर्द्र भूमि का लगातार क्षरण हो रहा है। सिर्फ पिछले एक दशक में हम लगभग तीस फीसद भूमि खो चुके है। उत्तर प्रदेश में ही रायबरेली, हरदोई, लखनऊ, बाराबंकी, सीतापुर और बहराइच जिलों में हजारों एकड़ आर्द्र भूमि है। अकेले रायबरेली ने 1972 से लगभग नवासी फीसद आर्द्र भूमि खो दी है। लखनऊ ने पिछले पांच दशकों में लगभग सत्तर फीसद आर्द्र भूमि खो दी है। गहन सिंचाई के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन आर्द्र भूमि के खत्म होने का कारण बन रहा है। इसके अलावा गन्ना, धान और गेहूं जैसी जल-गहन फसलों के साथ आर्द्र भूमि को कृषि क्षेत्रों में परिवर्तित करना भी है। नहरों और सड़कों के अवैज्ञानिक निर्माण के कारण कई आर्द्र भूमि खंड मानचित्र से गायब हो चुके हैं।

आर्द्र भूमि के संरक्षण के लिए भारत में कोई मजबूत नियामक ढांचा नहीं है। इस समस्या को अभी भी अलग-थलग करके देखा जा रहा है। जल संसाधन प्रबंधन और विकास योजनाओं में शायद ही इसका उल्लेख किया जाता है। ऐसे संवेदनशील पारिस्थितिकीय तंत्रों के प्रबंधन की प्राथमिक जिम्मेदारी पर्यावरण और वन मंत्रालय के हाथों में है। हालांकि भारत रामसर सम्मेलन और जैविक विविधता के सम्मेलन दोनों का हस्ताक्षरकर्ता है, लेकिन हैरानी की बात यह कि आर्द्र भूमि के संरक्षण के लिए कोई स्पष्ट नियामक ढांचा नहीं है।

हालांकि कुछ राज्यों में आर्द्र भूमि विकास प्राधिकरण बनाए तो गए हैं, लेकिन ये भी अन्य परंपरागत कानूनों के अधीन ही हैं। इस वक्त आर्द्र भूमि को आर्द्र भूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम, 2017 के तहत संरक्षित किया जाता है। आर्द्र भूमि को बचाने की दिशा में पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण कदम इसके भूमि दस्तावेज को सुरक्षित करना है। उपग्रह चित्रों और ड्रोन कैमरों का उपयोग करके इनका दस्तावेज बनाया जाना चाहिए। आर्द्र भूमि का जल-प्रसार क्षेत्र मौसम के अनुसार बदलता रहता है।

मानसून के समय जल-प्रसार का मापन कर उसे राजस्व रिकार्ड में दर्ज कर देना चाहिए। मानसून के बाद से ग्रीष्मकाल तक आर्द्रभूमि के जल प्रसार क्षेत्र में उल्लेखनीय कमी पाई जाती है जिसका फायदा उठा कर लोग अतिक्रमण करते हैं। मानसून के बाद फैले जल का परिसीमन करके भू-राजस्व अभिलेखों को ठीक से बनाए रखा जाना चाहिए। तालाबों, झीलों और आर्द्र भूमि के पुनरुद्धार के लिए कार्य योजना का निर्माण वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, न कि तदर्थ उपायों पर। सिंचाई की बेहतर तकनीकों को अपना कर भूजल पर दबाव कम किया जा सकता है। इसके अलावा किसानों को मोटा अनाज उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है, जिसमें बहुत अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है।

पर्यावरण संरक्षण और प्रबंधन के लिए एक समग्र वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण की जरूरत होती है। इसमें जनभागीदारी और सहयोग जरूरी है। कई मामलों में स्थानीय समुदायों की उपेक्षा भी ऐसे संकट को बढ़ाती है। आर्द्र भूमि के तट पर रहने वाले समुदाय स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हैं क्योंकि अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए वे पारिस्थितिक तंत्रों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में पारिस्थितिकी तंत्र का प्रभावी प्रबंधन एक बड़ी चुनौती बन गया है।