सरोज कुमार

आरबीआइ के लिए बाजार में डालर की आपूर्ति बढ़ाना भी मुश्किल भरा कदम है, क्योंकि देश का विदेशी मुद्रा भंडार छह सौ अरब डालर से नीचे चला गया है। इसमें लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है। ऐसे में राजकोषीय उपाय एकमात्र रास्ता है, जिस पर सरकार शायद ही अमल करे।

रुपया इन दिनों अपनी कमजोरी का कीर्तिमान बना रहा है। वह कमजोरी के ऐसे कुचक्र में फंसा दिखता है, जहां से बाहर निकल पाना आसान नहीं है। नौ मई, 2022 को रुपया लुढ़क कर डालर के मुकाबले 77.41 के ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गया। कमजोरी ऐसी कि सतहत्तर के स्तर से ऊपर अभी भी नहीं उठ पाया है। यह कमजोरी रुपए का निजी मामला नहीं है, बल्कि उसके तार अर्थव्यवस्था और आमजन की सेहत से भी जुड़े हैं।

रुपए की मौजूदा कमजोरी के पीछे का कारण रूस-यूक्रेन संकट और अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ब्याज दर में हुई वृद्धि बताया जा रहा है। यदि यही दोनों कारण हैं, तो फिलहाल रुपए की मजबूती की उम्मीद बेमानी है, क्योंकि दोनों कारणों का निकट भविष्य में निवारण संभव नहीं दिखता। फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में अभी और वृद्धि करने की तैयारी में है। कमजोर रुपए पर डालर का यह हमला पीड़ादायक होगा। रुपए की कमजोरी के घरेलू कारण भी हैं, जिनका जिक्र कम हो रहा है। ये हैं महंगाई और बेरोजगारी।

आर्थिक कुप्रबंधन के कारण दोनों समस्याएं लंबे समय से अनसुलझी पड़ी हैं, बल्कि लगातार बढ़ रही हैं। वैश्वीकरण के युग में पूरी दुनिया एक बाजार है। वैश्विक व्यापार डालर में होता है, लिहाजा किसी भी देश से कोई सामान खरीदने के लिए जेब में डालर होना जरूरी है। ऐसे में घरेलू मुद्रा कमजोर होने पर डालर के लिए अधिक भुगतान करना पड़ता है। परिणामस्वरूप खरीददारी या आयात की लागत बढ़ जाती है और इसका नतीजा घरेलू बाजार में महंगाई के रूप में देखने को मिलता है।

यूक्रेन-रूस संकट और फेडरल रिजर्व की ब्याज दर वृद्धि रुपए की कमजोरी के निश्चित रूप से बड़े कारण हैं। यूक्रेन संकट के कारण आपूर्ति शृंखला बाधित हुई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कई सामान, खासतौर से कच्चे तेल की कीमत आसमान छू रही है। महंगे कच्चे तेल के लिए अधिक डालर चुकाने पड़ रहे हैं। इस कारण डालर की मांग बढ़ गई है और उसकी कीमत चढ़ गई है। दूसरी तरफ फेडरल रिजर्व ने दो दशक में पहली बार ब्याज दर में पचास आधार अंकों की वृद्धि की है।

इससे विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) का आकर्षण अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा है। भारत के अस्थिर आर्थिक वातावरण के बदले अमेरिकी अर्थव्यवस्था में निवेश को वे अधिक सुरक्षित समझ रहे हैं। भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों ने जोरदार बिकवाली शुरू कर दी है। इस साल अब तक एफआइआइ की 1.3 लाख करोड़ रुपए की बिकवाली हो चुकी है। यह सिलसिला जारी है और आगे भी जारी रहने की आशंका है। एफआइआइ की बिकवाली से रुपए की मांग और घटी, रुपया नौ मई को रसातल पहुंच गया, जबकि डालर बीस साल के सर्वोच्च स्तर पर।

रुपए में गिरावट की घटना नई नहीं है। इसका लंबा इतिहास है, जिसकी शुरुआत 1966 के बाद होती है, जब रुपए को पहली बार डालर के मुकाबले आंका गया था। उस समय रुपए की कीमत डालर के बराबर थी। इसके पहले तक रुपया ब्रिटिश पाउंड से जुड़ा हुआ था। आजादी के बाद 1966 तक एक पाउंड की कीमत तेरह रुपए पर स्थिर थी। सन 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ, जिसमें भारत भी भागीदार था। इसके तहत किसी भी सदस्य देश को अपनी मुद्रा की कीमत सोने या डालर के मुकाबले स्वयं तय करनी थी।

इसी बीच 1967 में भारत को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा और सरकार ने संकट से निपटने के लिए पहली बार रुपए की कीमत घटा कर एक डालर के मुकाबले साढ़े सात रुपए कर दी। ब्रेटन वुड्स समझौता 1971 में टूट गया और भारत ने समतुल्य मूल्यांकन प्रणाली के बदले एक निश्चित दर प्रणाली अपना ली। इस मूल्यांकन प्रणाली का जुड़ाव ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग से था। एकल मुद्रा से जुड़ाव असंतुलन और नुकसान बढ़ाने वाला था, जिससे निपटने के लिए 1975 में रुपए को कई मुद्राओं के एक बास्केट से जोड़ दिया गया।

अस्सी के दशक में सोवियत संघ टूटा और भारत में आर्थिक संकट की एक बार फिर वापसी हुई। आरबीआइ ने एक बार फिर 1991 में रुपए का ग्यारह फीसद अवमूल्यन किया। इसके साथ ही भारत निश्चित दर प्रणाली से बाहर निकल कर बाजार आधारित मुद्रा दर प्रणाली से जुड़ गया। परिणामस्वरूप 1992 में रुपए की कीमत डालर के मुकाबले 25.92 रुपए तक गिर गई। 2002 तक रुपया डालर के मुकाबले 48.99 रुपए पर आ गया। 2007 में पहली बार रुपए की कीमत में उछाल आया और यह 39.27 पर पहुंच गया।

उस समय प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की लगातार आमद के कारण शेयर बाजार सातवें आसमान पर था। लेकिन 2008 की वैश्विक मंदी ने 2009 तक रुपए को डालर के मुकाबले 51.57 रुपए पर गिरा दिया और 2013 तक रुपया 56.57 रुपए के स्तर पर पहुंच गया। इसके बाद 2016 की नोटबंदी रुपए के लिए भस्मासुर साबित हुई, जब उसकी कीमत 68.77 रुपए के रिकार्ड निचले स्तर पर पहुंच गई। 2020 की महामारी ने रुपए को और नीचे पहुंचाया। मार्च 2020 में रुपया 76.67 पर और मार्च 2022 में 76.98 के ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गया। नौ मई, 2022 का दिन रुपए के अस्तित्व के लिए काला साबित हुई।

रुपए की कमजोरी में हालांकि मजबूती का भी एक पक्ष है। आरबीआइ ने इसी मजबूती के लिए अतीत में रुपए की कीमत दो बार घटाई थी। रुपए की मौजूदा कमजोरी में मजबूती का पक्ष उन वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात में छिपा है, जिनके उत्पादन में आयातित कच्चा माल या कलपुर्जों की भूमिका नगण्य है। साफ्टवेयर, कपड़ा और कृषि जैसे क्षेत्र इसका लाभ उठा सकते हैं। भारत चूंकि आयात अधिक करता है, इसलिए रुपए की कमजोरी से नुकसान अधिक होने वाला है। वित्त वर्ष 2021-22 में देश का आयात 611.89 अरब डालर का रहा, जबकि निर्यात 419.65 अरब डालर का। यानी वित्त वर्ष 2021-22 में देश का व्यापार घाटा बढ़ कर 192.24 अरब डालर हो गया, जो वित्त वर्ष 2020-21 में 102.63 अरब डालर था।

रुपए की गिरती कीमत को रोकना जरूरी है। लेकिन कोई उपाय सामने नहीं है। नीतिगत उपाय के तहत आरबीआइ ब्याज दर बढ़ा कर बाजार में तरलता घटा कर रुपए की मांग बढ़ाने की कोशिश करता है, दूसरे बाजार में डालर की आपूर्ति बढ़ाने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार से डालर बेचता है। लेकिन ब्याज दर बढ़ाने का आरबीआइ का कदम नाकाम साबित हुआ है, क्योंकि रुपए का ऐतिहासिक अवमूल्यन चार मई को ब्याज दर में चालीस आधार अंकों की वृद्धि के बाद हुआ है। आरबीआइ के लिए बाजार में डालर की आपूर्ति बढ़ाना भी मुश्किल भरा कदम है, क्योंकि देश का विदेशी मुद्रा भंडार छह सौ अरब डालर से नीचे चला गया है। इसमें लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है।

ऐसे में राजकोषीय उपाय एकमात्र रास्ता है, जिस पर सरकार शायद ही अमल करे। वह इस रास्ते से बहुत पहले ही हट चुकी है। महंगाई, बेरोजगारी के मोर्चे पर काम किया गया होता तो आर्थिक वातावरण स्थिर रहता और विदेशी निवेशकों का भारतीय बाजार में भरोसा बना रहता। लेकिन गलत आर्थिक नीतियों के कारण जहां मुट्ठी भर लोगों की आमदनी महामारी के दौरान भी बढ़ी, वहीं चौरानवे फीसद की कमाई घट गई। कमाई घटने से बाजार में मांग घटी और अर्थव्यवस्था कुचक्र में फंस गई। सरकार ने तिस पर भी अप्रत्यक्ष कर बढ़ाने का काम किया। इससे अर्थव्यवस्था और डगमगा गई।

समय अभी भी है कि मोटी कमाई वालों पर प्रत्यक्ष कर बढ़ाया जाए और कारपोरेट कर भी। अप्रत्यक्ष कर घटा कर महंगाई नीचे लाई जाए। इससे बाजार में मांग बढ़ेगी, नौकरियां पैदा होंगी। अर्थव्यवस्था स्थिर होेगी तो विदेशी निवेशकों का भरोसा बढ़ेगा। रुपया मजबूत होगा। अन्यथा रुपया जिस अंधेरी रात में है, उसकी सुबह कब होगी, कह पाना कठिन है।