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मायावती ने यदि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में नौकरी की होती जैसा कि उन्होंने सोचा था तो आज (जनवरी 2016) में वह ऑफिस से रिटायर हो रही होतीं। लेकिन, चार बार उत्तर प्रदेश की कमान संभालने वाली मायावती जो कि शुक्रवार (15 जनवरी) को 60वां जनमदिन मना रही हैं आज भी राजनीति में अहम भूमिका निभा रही हैं। ये बात और है कि कांशीराम से मुलाकात के बाद मायावती ने राजनीति में आने का फैसला कर लिया। (Source: Express file photo by Vishal Srivastav)
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2012 से मायावती के जीवन में उतार का दौर शुरु हुए जब उन्हें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव मे भी उनकी पार्टी को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। ऐसा पहली बार हुआ कि मायावती की पार्टी को एक भी सीट हासिल नहीं हुई। फिर भी वे अगले साल (2017) में होनेवाले विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाने में लगी हुई हैं ताकि 5वीं बार भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश की गद्दी पर आसीन हो सके। (Express Photo by Prem Nath Pandey. 22.09.2015)
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कानून से स्नातक और स्कूल टीचर रह चुकीं मायावती 1980 और 1990 के दशक में ग्रामीण इलाकों में अगड़ी जातियों पर अपने बेबाक बोल की वजह से उस वक्त लोकप्रियता हासिल की जब बसपा दलितों को एकजुट करने में जुटी थीं। 1995 में मायावती ने देश की पहली दलित और सिर्फ 39 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश की सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। (पीटीआई फाइल फोटो)
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सितंबर 2013 में, जब मायावती ने बसपा के अध्यक्ष की कमान संभाली तो पार्टी में उन्हें बाहरी और आंतरिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसी साल बसपा के एक विधायक ने पार्टी से विरोध कर उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी मुलायम सिंह से हाथ मिलाकर समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने में मदद की। मायावती को ताज कॉरिडोर मामले में सीबीआई जांच का सामना करना पड़ा। (पीटीआई फाइल फोटो)
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आगे आने वाले समय में उन्होंने न सिर्फ पार्टी पर पूरी तरह से नियंत्रण कायम किया और दलितों पर अपनी पकड़ मजबूत की, बल्कि प्रदेश की अगड़ी जातियों तक पहुंचने के लिए गंभीरता से रणनीति रणनीति बनाई। यही वजह रही कि 2007 में बसपा ने मायावती के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत से सरकार बनाई और पार्टी को प्रदेश की राजनीति में एक नई पहचान दी। कांग्रेस और भाजपा के परंपरागत वोटों में सेंधमारी करते हुए बसपा उनके दलितों वोटरों को रिझाने में कामयाब रही। (पीटीआई फाइल फोटो)
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फिर अगले 5 सालों तक उन्होंने दलितों पर ध्यान केंद्रित किया, जिसने बसपा को दलित आधारित पार्टी बनाया जो कि अगड़ी जातियों को भी रिझाने में कामयाब रही। उन्होंने बसपा का नारा बदलकर, 'बहुजन हिताय' से 'सर्वजन हिताय' कर दिया। (पीटीआई फाइल फोटो)
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मायावती एक सख्त और दृढ़-निश्चयी शासक के तौर पर उभरीं। उन्होंने चुनावों के दौरान किसी भी पार्टी से गठबंधन करने की नीति को नकार दिया। उन्होंने ऐसे समय में भी एक संयमित नेता के तौर पर काम करने की कोशिश की, जब उनके शासन में कई तरह की समस्याएं खड़ी हो रही थीं। बसपा में अपराधी माने जाने वाले नेताओं की मौजूदगी ने भी मायावती के लिए परेशानी पैदा की। (पीटीआई फाइल फोटो)
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2014 में करारी हार के बाद भी मायावती भयभीत नहीं हुईं और ना ही पार्टी या फिर विचारधारा में बड़े स्तर पर कोई बदलाव किया। यहां तक कि उन्होंने भाजपा-विरोधी खेमा बनाने में भी दिलचस्पी नही दिखाई, जैसा कि नीतीश कुमार ने बिहार में किया। (पीटीआई फाइल फोटो)