Vande Mataram Debate: वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ पर संसद में हुई बहस विरासत पर जश्न के साथ-साथ समकालीन राजनीतिक वैचारिक विभाजन का प्रतिबिंब हो गई। स्वाभाविक है, उन लोगों को निराशा हुई होगी, जो बहस में आम सहमति ढूंढ़ना चाहते थे। ऐसा सोचना या अपेक्षा रखना गलत है, क्योंकि बहस जश्न के लिए थी भी नहीं। इतिहास के वे प्रश्न, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजनीतिक कुलीनों के निर्णयों के आधार पर हमारे बीच आए और आम लोग उस निर्णय प्रक्रिया से दूर रखे गए, उन्हें हम स्थगित वैचारिक बहस कह सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतिहास के पिटारे को खोल दिया। यह किसी भी राष्ट्र के लिए, विशेषकर भारत के लिए आवश्यकता ही नहीं, सबसे अधिक अपेक्षित है। हम कौन हैं, भारत का अभिप्राय क्या है, हमारी सभ्यता की नींव क्या है और वह वर्तमान में भारत में कितना अहम है! ऐसे प्रश्न बच्चों के लेखों की तरह बताए जाते रहे, जिसमें ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ का सिद्धांत था। भ्रम को पाल कर रखना वैसे ही है, जैसे शरीर की बीमारी को छिपाकर रखना। लोकतंत्र में तीखी बहस और दृष्टिकोण की लड़ाई जितनी गहरी होती है, लोकचेतना उतनी ही मजबूत होती है। ऐसी बहसों में शब्दों, भावों, घटनाओं का चयनित उपयोग होना अस्वाभाविक नहीं है। उन बातों में सिमटना मूल उद्देश्य और परिणाम से अपने आपको दूर कर लेना है।
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सहमति बनाम दृष्टिकोणों की तीखी लड़ाई पर सबसे अच्छा उदाहरण जर्मनी का है। यह विशेषकर उन लोगों के लिए, अधिक उपयोगी है जो ऐसी बहसों से बचना चाहते हैं। जर्मनी का संविधान 1849 में बना था। वहां जनतांत्रिक प्रश्नों पर बहस लंबी चली थी। उस दौर में जनतंत्र की प्रकृति को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण वाले दो प्रोफेसरों द्वारा जर्मनी की संसद में और संसद के बाहर बहस चलाई गई। जो बहस 1870 के दशक में शुरू हुई, वह 1880 में खत्म हुई। वे दोनों फ्रैंकफर्ट पार्लियामेंट के सदस्य थे। प्रो जीवी स्नेलमैन प्रसिद्ध दार्शनिक हीगेल के समर्थक थे। बहस के दूसरे पक्ष का नेतृत्व प्रो लीयो मेकलिन कर रहे थे। स्नेलमैन मानते थे कि बहस का तीखापन और निरंतर विभाजन का दृष्टिकोण राष्ट्र को कमजोर करता है और जनतंत्र का अवमूल्यन होता है। वे आम सहमति के पक्षधर थे।
इसके विपरीत मेकलिन का मानना था कि कोई भी विषय परम सत्य (पूर्ण) नहीं होता है, न ही राजनीति में कोई पूर्ण विवेक होता है। संदर्भों और परिस्थितियों के अनुसार नई बातें, नए मत और नए प्रस्ताव उभरते है और यही राष्ट्र और जनतंत्र, दोनों की बुनियाद को मजबूत करता है। जर्मनी और भारत, दोनों का संविधान लंबी बहस का जीता जागता उदाहरण है। अंतर सिर्फ बहस करने वालों की पक्षधरता का है। जर्मनी की संविधान सभा (फ्रैंकफर्ट पार्लियामेंट) में विश्वविद्यालय, महाविद्यालय शिक्षकों की संख्या डेढ़ सौ से अधिक थी। इसलिए इसे ‘प्रोफेसरों का पार्लियामेंट’ कहा जाता है। भारत का संविधान बनाने वालों में वकीलों की भूमिका अहम थी, इसीलिए राजनीतिक वैज्ञानिक आइकर जेनिंग्स ने इसे ‘वकीलों का स्वर्ग’ कहा था।
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दोनों में एक और अंतर है। जर्मनी में विवादित मुद्दों पर बहस अधूरी नहीं हुई और ‘फ्रैंकफर्ट पार्लियामेंट’ के साथ बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी और आम लोग संसद के बाहर इस बहस में शामिल थे। उस वक्त का अखवार ‘हिलसींग फोरस डगबाल्ड’ मेकलिन के समर्थन में व्यापक बहस को आगे बढ़ाने का राष्ट्रीय मंच था।
भारत की एक विडंबना रही है। अनेक वैचारिक मुद्दों पर बहस अधूरी या न के बराबर हुई। कब, कैसे और क्यों फैसला हुआ, वह आधा अधूरा ही हमारे सामने है। यह जनतांत्रिक समाज के लिए अनपेक्षित है। उदाहरण के तौर पर संविधान की मूल प्रति में, जो भारत की सभ्यता और सांस्कृतिक यात्रा को चित्रित करने वाले बाईस चित्र थे। उनको संविधान की पुस्तक में लाने और उन्हें हटाने के निर्णय से आम लोग क्या, स्वयं संविधान सभा भी अपरिचित थी। भारत को ‘कामनवेल्थ’ (राष्ट्रमंडल) का सदस्य बनाना सामान्य निर्णय नहीं था। इसमें एक बड़ा वैचारिक पक्ष शामिल था। इस पर भी एचवी कामथ ने संविधान सभा में पूछा था कि ‘हमारे बीच कब प्रस्ताव आया और कब बहस हुई!’
‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगान नहीं बनाने पर बहस कुलीनवादी भी नहीं थी, औपचारिक तौर पर सांकेतिकता के साथ निर्णय हुआ। वंदे मातरम् स्वयं में भारत को परिभाषित करने वाला एक सांस्कृतिक विचारधारा का नेतृत्व करता है। इसने राष्ट्रवाद को जागृत किया और राष्ट्रीयता पर बहस का कारण भी बना। उसे बहस का मुद्दा नहीं बनाना बेमानी था। आज उसे आम लोगों के बीच ले जाया जा रहा है।
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किसी भी राष्ट्र का सांस्कृतिक पक्ष उसकी बुनियाद का अहम मुद्दा होता है। उससे आंख-मिचौली कर राष्ट्र अपने आपको सशक्त नहीं बना सकता है। न ही बहस में उभरने वाले तथ्यों और तर्कों से भयभीत होना चाहिए। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सांस्कृतिक पक्ष की उपेक्षा हुई। उपनिवेशवाद सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता पर ही हमला नहीं था, बल्कि देश की सांस्कृतिक चेतना पर भी आघात था। पर सांस्कृतिक प्रश्नों पर शायद ही प्रस्ताव पारित किया गया। इसके विपरीत अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई में भाषाई, सांस्कृतिक पक्षों को बराबर का महत्त्व देता रहा। आज अफ्रीका अपनी अस्मिता को लेकर भ्रमित नहीं है।
भारत में वैचारिक विविधता एवं विरोधाभास दोनों का होना लाजमी है। इसमें भयभीत होना नहीं चाहिए। हम अध्यात्म से लेकर सामाजिक जीवन में अतिशय बहुलता वाला देश हैं। बहुलता हमारा स्वभाव है, इसलिए भावना और विवेक को एक लगाम से नहीं हांका जा सकता है। उसका विविध और विरोधाभासी बने रहना तब तक विभाजन का कारण नहीं होता है, जब तक हम एक-दूसरे की वैधानिकता स्वीकार कर विचारों की साझेदारी करते हैं। समकालीन राजनीति इसी साझेदारी से बच रही है।
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